पूनम नेगी
स्वामी विवेकानंद भारत की संन्यासी परंपरा के उन चुनिंदा महापुरुषों में से हैं, जो केवल भारतीय जनमानस ही नहीं अपितु समूचे विश्व मानव के लिए एक 'रोल मॉडल' हैं। उन्होंने परंपरा और आधुनिकता के समन्वय को इस खूबसूरती से दुनिया के सामने प्रस्तुत किया कि लोग उनकी विचारशक्ति के कायल हुए बिना न रह सके। धर्म और परंपरा में गहरी अंतरदृष्टि रखने वाले स्वामीजी जिस तरह अपने समय, परिवेश और पृष्ठभूमि से बहुत आगे जाकर नवोन्मेष की अनूठी जीवन दृष्टि देते हैं, वह कौतूहल का विषय तो है ही, उनकी बेमिसाल मेधा और दूरदर्शिता को भी उजागर करता है। किसी भी अन्य आध्यात्मिक धर्म गुरु के व्यक्तित्व में सनातन जीवनमूल्यों और आधुनिकता का ऐसा समन्वयकारी दृष्टिकोण विरले ही दिखता है।
सनातनी हिंदू जीवनशैली के पोषक होते हुए भी स्वामी जी की सोच अत्यन्त प्रगतिशील और भविष्योन्मुख है। स्वामी जी का कहना था देशभक्ति सिर्फ एक भावना या मातृभूमि के प्रति प्रेम की अभिव्यक्ति मात्र नहीं है। देशभक्ति का सही अर्थ है अपने देशवासियों की सेवा करने का जज्बा। वे कहते हैं कि तर्कों की कसौटी पर कसे बिना किसी भी बात या विचार को अमल में नहीं लाना चाहिए क्योंकि जब मन में अंधविश्वास घर कर जाता है तो बुद्धि विदा हो जाती है। स्वामी जी युवकों के आदर्श इसलिए बने क्योंकि उन्होंने युवाओं को उद्देश्यपरकता प्रदान की। व्यक्ति, राष्ट्र, विश्व और धर्म के संदर्भ में उनकी प्राथमिकताएं इतनी स्पष्ट थीं कि लगता है वे कोई समाजशास्त्री हों। उन्होंने कर्मकांडों के स्थान पर धर्म को संस्कारों से जोड़ा और आध्यात्मिक अवधारणाओं की सरल व तर्कपूर्ण व्याख्या की। उनका कहना था कि धर्म-संस्कार और तरक्की के बीच वैसा विरोधाभास नहीं है, जैसा कि कुछ भ्रामक धारणा रखने वाले संकीर्ण मानसिकता के लोगों ने फैला रखा है। स्वामी के विचार लोगों को इसलिए आकर्षित करते हैं क्योंकि वे धर्म को एक प्रगतिशील व उद्वेलन पैदा करने वाली शक्ति के रूप में जन समाज के समक्ष प्रस्तुत करते हैं। वे कहते हैं, 'मनुष्य का सबसे बड़ा शिक्षक उसका अपना अनुभव है। विश्व का इतिहास उन चंद लोगों का इतिहास है, जिन्हें अपने आप में विश्वास था।' ऐसे सरल से सूत्रों के द्वारा वे जिस तरह बातों बातों में प्रबंधन के मूल सिद्धांत सिखा देते हैं, वह वाकई अनूठा है। विश्व कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर का कहना था कि यदि आप भारत को जानना चाहते हैं तो विवेकानन्द को पढ़िये। उनमें आप सब कुछ सकारात्मक ही पाएंगे, नकारात्मक कुछ भी नहीं। इसी तरह विश्व प्रसिद्ध विचारक रोमां रोलां का उनके बारे में कहना था कि उनके द्वितीय होने की कल्पना करना भी असम्भव है, वे जहां भी गये, सर्वप्रथम ही रहे। हर कोई उनमें अपने नेता का दिग्दर्शन करता था।
मैकाले प्रणीत शिक्षा प्रणाली के धुर विरोधी थे स्वामी जी
स्वामी विवेकानन्द मैकाले प्रणीत शिक्षा प्रणाली और उस समय प्रचलित अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था के धुर विरोधी थे क्योंकि इस शिक्षा का उद्देश्य सिर्फ बाबुओं की संख्या बढ़ाना था। वह देश में ऐसी शिक्षा व्यवस्था चाहते थे, जिससे बालक का सर्वांगीण विकास हो सके। इस बाबत स्वामी जी का कहना था कि शिक्षा का मतलब यह नहीं है कि तुम्हारे दिमाग में बहुत-सी बातें इस तरह ठूंस दी जाएं जो आपस में ही लड़ने लगें और तुम्हारा दिमाग उन्हें जीवन भर में हजम न कर सके। स्वामी विवेकानन्द ने कहा है कि यदि आप उस व्यक्ति को शिक्षित मानते हैं, जिसने कुछ परीक्षाएं उत्तीर्ण कर ली हों तथा जो अच्छे भाषण दे सकता हो तो यह आपकी भूल है। जो शिक्षा जनसाधारण को जीवन संघर्ष के लिए तैयार नहीं कर सकती, चरित्र निर्माण नहीं कर सकती, समाज सेवा की भावना विकसित नहीं कर सकती, शेर जैसा साहस पैदा नहीं कर सकती, उस शिक्षा से कोई लाभ नहीं।
स्वामी विवेकानंद की वैज्ञानिक जीवनदृष्टि
स्वामी विवेकानंद एक वैज्ञानिक की तरह तर्क-वितर्क, शोध, मनन और विश्लेषण के बाद तथ्यों को स्वीकार करने वाले मनीषी थे। 1895 में अमेरिका में आधुनिक विज्ञान पर बोलते हुए उन्होंने कहा था कि विज्ञान का उद्देश्य वाह्य दृश्यमान विविधता के मध्य विद्यमान एकत्व की खोज ही है। रसायन शास्त्र का अंतिम लक्ष्य ऐसे एक मूलतत्व की खोज है, जिससे सभी पदार्थों के रहस्य का पता चल सके। उनका यह कथन उनकी वैज्ञानिक जीवनदृष्टि का बोधक है। जमशेदजी टाटा को भारत में विज्ञान अनुसंधान की नींव डालने की प्रेरणा स्वामी विवेकानन्द ने ही दी थी। स्वामी जी जब अमेरिका की यात्रा पर जा रहे थे तो मुम्बई से शिकागो जाते समय उनका पहला पड़ाव जापान था। उस यात्रा में जहाज पर उनके साथ जमशेदजी टाटा भी मौजूद थे। टाटा का वह जापान दौरा इस्पात निर्माण की तकनीक प्राप्त करने के लिए था। स्वामी जी ने जब टाटा को यह जानकारी दी कि मिश्रित धातु को ढालने की सर्वोत्तम तकनीक भारत में ही विकसित की गई थी और लौह अयस्क से फौलाद निर्माण की अनेक भट्टियां प्राचीन भारत में मौजूद थीं तो वे हैरान रह गये। इस चर्चा में से टाटा को दो प्रेरणाएं मिली। पहला उन्होंने अपने इस्पात उद्योग को जापान में ले जाने की जगह भारत में ही रखा। दूसरा भारत में विज्ञान अनुसंधान संस्थान का निर्माण। स्वामीजी के शिकागो लौटने के बाद टाटा ने स्वामीजी को पत्र लिखकर उन्हें भारतीय विज्ञान संस्थान, बंगलुरू की स्थापना की जानकारी देकर उनसे निदेशक का दायित्व ग्रहण निवेदन किया था। संस्थान के स्वागत कक्ष में आज भी उस पत्र की प्रतिलिपि सुशोभित है।
ज्ञात हो कि स्वामीजी के आग्रह पर भगिनी निवेदिता ने रायल सोसायटी लन्दन में जगदीश बसु की रेडियो लहरियों से संबंधित शोध पर काम करने में न सिर्फ मदद की वरन बाद में स्वयं उनके साथ बैठकर उस प्रबन्ध का पुनर्लेखन भी किया। शायद आप यह जानकर विस्मित होंगे कि विश्वविख्यात विज्ञान वेत्ता अल्बर्ट आइन्स्टाइन के ऊर्जा सिद्धान का प्रतिपादन करने से लगभग दो दशक पूर्व ही स्वामीजी ने जड़-चेतन सम्बन्ध पर व्याख्यान देते समय प्रतिपादित कर चुके थे कि जड़ को ऊर्जा में परिवर्तित किया जा सकता है। उपनिषदों के सन्दर्भ देते हुए स्वामीजी ने कहा था कि किसी भी भौतिक वस्तु को प्रकाश की गति से प्रक्षेपित किया जाए तो वह ऊर्जा में परिवर्तित हो जाती है। सन् 1900 में शताब्दी परिवर्तन के अवसर पर पेरिस (फ्रांस) में आयोजित विश्व विज्ञान परिषद के दौरान स्वामीजी के विचारों ने विज्ञान को एक नयी विश्व दृष्टि दी थी। उक्त विज्ञान परिषद में स्वामी जी ने विचार व्यक्त करते हुए कहा था कि आज वैज्ञानिक वर्ग अपनी अधूरी मान्यताओं को भी किसी सम्प्रदाय के समान ही सब पर थोप रहा है। अतीन्द्रिय अनुभवों को पूर्णतः नकारने वाला भौतिक विज्ञान अपने सूक्ष्मतम सिध्दान्तों में निरीक्षक पूर्वाग्रह जैसे विचारों को स्थान दे रहा है। अब समय आ गया है कि वस्तुनिष्ठ कहलाने वाले आधुनिक विज्ञान को विश्व मानव के हित में अपनी यह उद्दंडता छोड़नी होगी।
बताते चलें कि रामकृष्ण मठ की स्थापना के समय स्वामीजी ने मठ के संन्यासियों का आहवान किया था कि एक हाथ में ग्लोब व दूसरे हाथ में टार्च लेकर गांव-गांव में जाएं और भोले भाले ग्रामीण जनों को शिक्षित करें कि हमारी धरती इस तरह गोल है और अपनी धुरी पर घूमती है और इस तरह ग्रहण इस तरह पड़ता है। आज के युवा यह जानकर विस्मित हो सकते हैं कि विज्ञान से कोई सीधा संबंध न रखने वाला यह साधु अपने समय में युवकों से कहा करता था कि कोई विचार लो और फिर उसी को अपने जीवन का मकसद बना लो। अपने मस्तिष्क, मांसपेशियों, नाड़ियों और शरीर के हर भाग को उस विचार से भर लो। उनका कहना था कि हमें यात्रा अवश्य करनी चाहिए। हमें विदेशी भूमियों पर जाकर देखना चाहिए कि दूसरे देशों में सामाजिक तौर तरीके और परिपाटियां क्या हैं। दूसरे देश किस दिशा में क्या सोच रहे हैं। यह जानने के लिए हमें उनके साथ मुक्त और खुले संवाद से झिझकना नहीं चाहिए। सूचना प्रौद्योगिकी से लेकर राजनीति और कारोबार से लेकर विज्ञान तक सभी क्षेत्रों में उनके सूत्र इस कदर कारगर हैं कि मानो किसी दिव्य दृष्टा को आने वाले युग की परिस्थितियों का सटीक पूर्वानुमान हो। स्वामीजी कि यह विज्ञानदृष्टि आज भी हमारे इक्कीसवीं सदी के उदीयमान भारत को सतत प्रेरणा दे रही है।
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