आदर्श सिंह
चीनी वायरस दुनिया में कहर ढा रहा है और तमाम देश इससे मुकाबले के लिए तमाम संसाधन झोंक रहे हैं, तब चीन मौके का फायदा उठाकर अपनी रणनीतिक चालों में व्यस्त है। पिछले कुछ महीनोें में उसने भूटान की सीमा पर चुपचाप चार गांव बसा लिये। इन सभी गांवों का निर्माण मई 2020 और नवंबर 2021 के बीच किया गया है। ये तब बसाए गए, जब लद्दाख गतिरोध के समय वह वार्ता का दिखावा कर रहा था। ये गांव सिलीगुड़ी गलियारे से महज तीस किलोमीटर और भारत के लिए सामरिक रूप से बेहद महत्वपूर्ण इस गलियारे, जिसे ‘चिकेंस नेक’ कहते हैं, के पास बसाए गए हैं। यानी ‘चिकेंस नेक’ अब चीनी तोपों की जद में है। पश्चिम बंगाल स्थित सिलीगुड़ी गलियारा सिर्फ 60 किलोमीटर लंबा और बीस किलोमीटर चौड़ा वह इलाका है जो आज शेष भारत को पूर्वोत्तर से जोड़ता है। बाकी के जो परंपरागत रास्ते थे, वे अब बांग्लादेश में हैं। इसके उत्तर में एक तरफ नेपाल, भूटान और चीन हैं तो दक्षिण में बांग्लादेश है। इस गलियारे को दक्षिण एशिया का द्वार भी कह सकते हैं। यहां से तिब्बत स्थित चुंबी घाटी महज 130 किलोमीटर दूर है। यह पतला सा गलियारा, जो एक जगह तो सिर्फ 20 किलोमीटर चौड़ा है, पूरी तरह से मैदानी इलाके में है। सुरक्षा के दृष्टिकोण से यह आदर्श स्थिति नहीं है। पूरा पूर्वोत्तर भारत और उसके पांच करोड़ लोग इस गलियारे से ही शेष भारत से जुड़े हैं।
जिनताओ का इशारा अमेरिका की तरफ था। लेकिन उनका संकेत भारत की तरफ भी था जो अपनी भौगोलिक स्थिति का फायदा उठाते हुए किसी टकराव की स्थिति में मलक्का जलडमरूमध्य के रास्ते बंद कर सकता है। चीनी सेना ने 2015 में एक रणनीतिक दस्तावेज में कहा, ‘विदेशी हितों, जिसमें ऊर्जा, संसाधन, रणनीतिक समुद्री रास्ते, संस्थान, कर्मचारीऔर विदेश स्थित संपत्तियां शामिल हैं, की सुरक्षा अब उसके लिए सबसे बड़े तात्कालिक महत्व का विषय बन चुकी है।’
निश्चित रूप से चिकेंस नेक गलियारा भारत की कमजोर नस है। चीनी अक्सर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इसका जिक्र करते रहते हैं। लेकिन चीन की कुछ दुखती रगें हैं जिन्हें दबाना कोई मुश्किल काम नहीं है। और वह दुखती रग है मलक्का जलडमरूमध्य यानी चीन के अस्तित्व का सवाल।
मलक्का जलडमरूमध्य की भौगोलिक स्थिति
भौगोलिक रूप से जलडमरूमध्य वह संकरा समुद्री गलियारा होता है जो दो बड़ी जलराशियों को आपस में जोड़ता है। और, मलक्का जलडमरूमध्य दक्षिणी-पूर्वी एशिया को बाकी एशिया और शेष विश्व से जोड़ता है। यह दक्षिणी चीन सागर को हिंद महासागर से जोड़ता है। जिसका इस पर कब्जा होगा, उसके पास चीन को घुटने के बल लाने की चाबी होगी। यह एक बेहद संकरा और उथला जलडमरूमध्य है और एक जगह तो यह सिर्फ दो से तीन मील चौड़ा है। इंडोनेशिया और मलेशिया के बीच से गुजरने वाले इस जलडमरूमध्य के मुहाने पर सिंगापुर है। जबकि अंडमान निकोबार के सबसे दक्षिण में स्थित इंदिरा प्वाइंट से इंडोनेशिया के सुमात्रा की दूरी सिर्फ 160 किलोमीटर है। भारत का 30 प्रतिशत विशिष्ट समुद्री आर्थिक क्षेत्र (ईईजेड) अंडमान में ही स्थित है। चोल और चालुक्य राजवंशों के समय यह दक्षिण भारत और दक्षिण पूर्वी एशिया के बीच सिर्फ व्यापार ही नहीं बल्कि सांस्कृतिक आदान-प्रदान का भी मार्ग था। दसवीं सदी आते-आते मलक्का जलडमरूमध्य का रणनीतिक महत्व लोगों की समझ में आ गया और यह व्यापार से कहीं ज्यादा सामरिक महत्व की चीज बन गया। चीन यहां से काफी दूर है जबकि उसकी पूरी अर्थव्यवस्था इस गलियारे पर निर्भर है।
मलक्का दुविधा
मलक्का की सुरक्षा से जुड़ी चिंताओं और चीन की इस पर निर्भरता को लेकर ‘मलक्का डाइलेमा (दुविधा)’ शब्द का प्रयोग पहली बार चीनी राष्ट्रपति हू जिन्ताओ ने नवंबर 2003 में किया। उन्होंने विकल्पों के अभाव और किसी टकराव की स्थिति में इस रास्ते की नाकाबंदी की आशंका जताते हुए कहा कि कुछ शक्तियां मलक्का जलडमरूमध्य का अतिक्रमण कर रही हैं और इसके जरिए नौवहन को नियंत्रित करने का प्रयास कर रही हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि जिन्ताओ का इशारा अमेरिका की तरफ था। लेकिन उनका संकेत भारत की तरफ भी था जो अपनी भौगोलिक स्थिति का फायदा उठाते हुए किसी टकराव की स्थिति में मलक्का जलडमरूमध्य के रास्ते बंद कर सकता है। चीनी सेना ने 2015 में एक रणनीतिक दस्तावेज में कहा, ‘विदेशी हितों, जिसमें ऊर्जा, संसाधन, रणनीतिक समुद्री रास्ते, संस्थान, कर्मचारी और विदेश स्थित संपत्तियां शामिल हैं, की सुरक्षा अब उसके लिए सबसे बड़े तात्कालिक महत्व का विषय बन चुकी है।’
चीनी निर्भरता
पूरी दुनिया का 20 प्रतिशत समुद्री व्यापार मलक्का जलडमरूमध्य के रास्ते होता है। साल में लगभग 75,000 से लेकर 95,000 पोत इस जलडमरूमध्य से गुजरते हैं। यानी पनामा नहर से तीन गुना और स्वेज नहर से दोगुना ज्यादा व्यापार इस रास्ते से होता है। यूएस एनर्जी इन्फार्मेशन (ईआईए) की 2016 की एक रिपोर्ट के अनुसार मलक्का जलडमरूमध्य से रोजाना 16 मिलियन बैरल कच्चा तेल और 3.2 मिलियन बैरल वाष्पीकृत गैस यानी एलएनजी का परिवहन होता है। यानी होरमुज जलडमरूमध्य के बाद यह दुनिया का दूसरा सबसे व्यस्त नौवहन मार्ग है। चीन का 70 प्रतिशत पेट्रोल और गैस इसी रास्ते से गुजरती है। साथ ही उसके पूरे व्यापार का 64 प्रतिशत इसी रास्ते से होता है। इसके मुकाबले जापान का 42 प्रतिशत और अमेरिका का सिर्फ 14 प्रतिशत व्यापार इस रास्ते से होता है। यानी इस रास्ते पर चीन की निर्भरता का अंदाजा स्पष्ट लगाया जा सकता है। यदि चीन ने कभी ताइवान की समुद्री नाकाबंदी करने की कोशिश की तो बाकी देश जवाब में मलक्का जलडमरूमध्य को बंद कर सकते हैं।
चीन के लिए महंगा विकल्प
चीनी रणनीतिकार दशकों से मलक्का जलडमरूमध्य पर अपनी निर्भरता को दूर करने का रास्ता निकालने के प्रयास में हैं। इसके लिए वे तेल और गैस के लिए खाड़ी देशों पर निर्भरता घटाने से लेकर रूस के रास्ते नार्दर्न सी रोड यानी आर्कटिक समुद्री मार्ग से व्यापार, मध्य एशियाई देशों से तेल व गैस आयात, पाकिस्तान में ग्वादर बंदरगाह के जरिए सिनकियांग पहुंचने जैसे तमाम रास्तों की खोज में लगे हैं। दशकों से थाइलैंड के रास्ते क्रा कैनाल या अब थाई नहर (देखें बाक्स) बनाने के प्रयास भी जारी हैं जिनमें अभी तक कोई सफलता नहीं मिली है।
थाई नहर यानी एक और ग्वादरग्वादर पर अरबों डॉलर फूंकने के बाद भी बंदरगाह अभी सूना ही है। लेकिन चीनी मलक्का जलडमरूमध्य का एक वैकल्पिक रास्ता तलाशने के लिए थाइलैंड में एक नहर बनाने के प्रयास में हैं। वैसे नहर का सपना आज का नहीं बल्कि साढ़े तीन सौ साल पुराना है जब 1677 में तत्कालीन थाई नरेश ने अपने एक इंजीनियर को यह पता लगाने को भेजा कि क्या मलय प्रायद्वीप की सबसे संकरी जगह क्रा इस्थमस में कोई नहर बनाई जा सकती है जिससे थाईलैंड और बर्मा (म्यांमार) के बीचे सीधे व्यापार का रास्ता खुल सके। इंजीनियर ने रिपोर्ट दी कि यह असंभव है। नहर अब तक नहीं बनी लेकिन इसे बनाने की चर्चा भी खत्म नहीं होती दिखती। फिलहाल चीन इस नहर को बनाने के लिए जोर लगा रहा है जो थाइलैंड की खाड़ी को सीधे अंदमान सागर से जोड़ दे। लेकिन अभी तक तय नहीं हो पाया है कि नहर बनायी जाए या इसकी जगह लैंड या रेल ब्रिज बनाया जाए। लगभग सारे विकल्प असंभव दिख रहे हैं। हाल ही में क्रा नहर जिसका नामकरण अब थाई नहर कर दिया गया है, के निर्माण की व्यवहार्यता के अध्ययन के लिए थाईलैंड में 49 सांसदों की एक सर्वदलीय समिति बनाई गई है। समिति जिन प्रस्तावों पर विचार कर रही है, उनमें से एक अंदमान तट कर क्राबी प्रांत से थाईलैंड की खाड़ी में स्थिति सोंगखला तक एक 102 किलोमीटर लंबी नहर बनाने का प्रस्ताव है। हालांकि अंदमान तट से थाईलैंड की खाड़ी तक रेल ब्रिज और लैंड ब्रिज का प्रस्ताव भी विचाराधीन है। लेकिन ये प्रस्ताव अव्यवहार्य हैं। फिलहाल नहर के प्रस्ताव पर गंभीरता से विचार जारी है। प्रस्ताव के अनुसार 102 मीटर लंबी यह नहर 450 मीटर चौड़ी और 25 मीटर गहरी होगी ताकि बड़े टैंकर भी इससे गुजर सकें। प्रस्ताव की लागत अकल्पनीय रूप से 55 बिलियन डॉलर है। बहरहाल प्रस्तावित परियोजना थाईलैंड के मुस्लिम बहुल और अलगाववाद से ग्रस्त इलाके में है। थाई सरकार और मुस्लिम अलगाववादियों के बीच बरसों से जारी वार्ता का फिलहाल कोई नतीजा नहीं निकला है। वहां के मुख्य आतंकी समूह बारिसान रिवोल्यूसी नेशनल ने वार्ता में भाग लेने से मना कर दिया है जिससे इस परियोजना की मुश्किलें बढ़ गई हैं।
फिलहाल 55 बिलियन डॉलर की लागत से प्रस्तावित नहर अगर बन भी जाए तो सिर्फ 1200 किलोमीटर की दूरी कम होगी और सिर्फ दो-तीन दिन के समय की बचत होगी। इसके मुकाबले पनामा नहर के रास्ते हफ्तों के समय की बचत होती है। साथ ही थाइलैंड का एक बड़ा तबका इस नहर के विरोध में है। उन्हें लगता है कि इसका कब्जा चीन के पास होगा जो उनकी संप्रभुता के साथ समझौता होगा। साथ ही वे चीन के महंगे कर्ज के बोझ में फंसे जिबूती, श्रीलंका और पाकिस्तान जैसे देशों का हाल भी देख रहे हैं। ऐसे में संभावना यही है कि नहर कागजी ही रहेगी। |
ये सभी मार्ग थोड़ा-बहुत उपयोगी तो हो सकते हैं लेकिन विकल्प नहीं बन सकते। ग्वादर से गिलगित-बाल्टिस्तान के जरिए सिनकियांग तक पहुंचने वाला मार्ग कराकोरम पर्वत शृंखला से होकर गुजरता है। यह पर्वत शृंखला भूकम्पीय क्षेत्र में है। अक्सर छोटे-मोटे भूकम्पों के अलावा यहां भूस्खलन और भारी हिमपात के खतरे भी हैं। साथ ही ग्वादर और गिलगित-बाल्टिस्तान में जारी असंतोष और पाकिस्तान के आतंकी गुटों द्वारा हमले के खतरे भी हैं। यह मानना मुश्किल है कि सड़क या रेलमार्गों से तेल व गैस के टैंकरों का गुजरना आतंकी हमलों या प्राकृतिक आपदाओं से कब तक सुरक्षित रहेगा। साथ ही रेल व सड़क परिवहन के मुकाबले समुद्री रास्ते एक तिहाई सस्ते पड़ते हैं। और परिवहन यदि गिलगित-बाल्टिस्तान या आर्कटिक रास्तों से हो तो लागत कई गुना बढ़ जाती है। ऐसे में समुद्र के रास्ते जिस एक बैरल तेल के परिवहन की कीमत दो डॉलर आती है, वह बढ़कर 12 से 15 डॉलर प्रति बैरल पहुंच जाएगी।
इसके बावजूद चीन ने वैकल्पिक रास्तों की तलाश नहीं छोड़ी है तो इसके कारण समझे जा सकते हैं। एक अनुमान के अनुसार यदि मलक्का जलडमरूमध्य की एक हफ्ते तक भी नाकाबंदी कर दी गई तो चीन को वैकल्पिक मार्गों से नौवहन पर 64 मिलियन डॉलर अतिरिक्त खर्च करने होंगे। एक अन्य अनुमान के अनुसार मलक्का के बजाय अन्य समुद्री मार्गोें से परिवहन को लेकर चीन पर सालाना 84 बिलियन डॉलर से लेकर 220 बिलियन डॉलर तक का अतिरिक्त बोझ पड़ेगा।
अंदमान-निकोबार संयुक्त कमान
अंदमान-निकोबार को जमीन पर स्थित कभी न डूबने वाला विमानवाहक पोत कहा जाता है। सामरिक रूप से अत्यंत महत्वपूर्ण मार्ग पर स्थित यह द्वीप समूह भारत के पास एक तुरुप का पत्ता है। चीन उत्तरी सीमा पर अपने संरचनागत ढांचे को मजबूत कर लाभ की स्थिति में है लेकिन उसका सारा तेल-गैस अंदमान-निकोबार के रास्ते ही पहुंचता है। भारत थोड़ा देर से जागा है लेकिन वह बड़े पैमाने पर अंदमान-निकोबार में अपनी ताकत बढ़ा रहा है जो किसी टकराव की स्थिति में काम आएगी। अंदमान-निकोबार संयुक्त कमान (एएनसी) की स्थापना इस दिशा में पहला कदम है। एएनसी सभी परंपरागत और गैरपरंपरागत खतरों से निबटने और पूरब से आने वाले किसी भी खतरे की स्थिति में मुख्य भूमि के लिए सुरक्षा कवच का काम करेगी। यह जमीन, समुद्र, आकाश के अलावा साइबर खतरों और इलाके पर सतत निगरानी में सहायक है। रुक्मिणी (जीसैट 7) के सफल प्रक्षेपण के साथ ही सशस्त्र बलों को टोह व निगरानी के लिए सैटेलाइट आधारित संपर्क की सुविधा भी मिल चुकी है। भारत यहां से मलक्का ही नहीं बल्कि सुंडा और लोम्बोक जलडमरूमध्य तक सभी पोतों की निगरानी कर सकता है। साथ ही, भारत के इस क्षेत्र में स्थित सभी नौसेनाओं के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध हैं जबकि चीन का सबके साथ सीमा विवाद है। साथ ही खबरों के अनुसार पिछले साल जून में अमेरिकी विमानवाहक पोत थियोडोर भारत के प्रति समर्थन जताने के उद्देश्य से मलक्का जलडरूमध्य से होकर गुजरा। पिछले ही साल पहली बार अमेरिका का लंबी दूरी का टोही विमान पी-8 पोसाइडोन र्इधन भरने के लिए अंदमान-निकोबार में रुका। यह दोनों देशों की नौसेनाओं के बीच बढ़ते सहयोग का परिचायक है। 2020 में दोनों देशों ने सैन्य सैटेलाइटों से मिली सूचनाएं साझा करने के समझौते पर दस्तखत किए। इसके अलावा भारत ग्रेट निकोबार द्वीपसमूह में 1.3 बिलियन डॉलर की लागत से एक गहरे पानी का बंदरगाह भी बनाने जा रहा है। भारत ने पिछले साल लद्दाख गतिरोध के समय हिंद महासागर में अपनी नौसैनिक तैनातियों से चीन के सामने स्पष्ट कर दिया कि उसे उत्तरी सीमा पर की गई शरारत की कीमत समुद्र में चुकानी पड़ सकती है और यह इतनी बड़ी कीमत होगी जिसे चीन चुकाना नहीं चाहेगा।
(लेखक साक्षी श्री द्वारा स्थापित साइंस डिवाइन फाउंडेशन से जुड़े हैं।)
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