पंकज झा
भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी की सुरक्षा में हुई कथित चूक निस्संदेह आज़ादी के बाद हुई ऐसी पहली घटना है। ऐसी घटना इस मायने में पहली है जब देश के प्रधानसेवक को इस तरह ट्रैफिक में फंसाया गया, जहां कुछ भी हो सकता था। ऐसी घटना भले पहली हो लेकिन सत्ता में नहीं रहते हुए भी कांग्रेस, या पीएम नहीं रहते हुए भी नेहरू परिवार अन्य दल के शासक या अपने ही दल के लेकिन परिवार से अलग के प्रधानमंत्री को साधने की सफल-विफल कोशिश करता रहा है। ऐसी कोशिशों में उसके शासित राज्यों के मुख्यमंत्री भी हमेशा साझीदार होते आये हैं। ऐसे उदाहरण अनेक हैं लेकिन सबसे सटीक उदाहरण इस मामले में तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व. चंद्रशेखर का है। उस समय भी प्रयासपूर्वक प्रधानमंत्री को साधने की बेजा कोशिशें हुई थीं।
कहानी तब के पीएम चंद्रशेखर जी की है। कांग्रेस के समर्थन से उनकी सरकार चल रही थी। मात्र चार महीने चली थी सरकार और उतने में ही कांग्रेसी कृत्यों से हांफ गए थे चंद्रशेखर। चंद्रशेखर क़द्दावर नेता थे। भले अल्पमत में थी उनकी पार्टी लेकिन उनके स्वाभिमान ने इन्हें कठपुतली बनने नहीं दिया अन्यथा वे भी पीएम बने रहते जैसा आगे सरदार मनमोहन सिंह बने रह गए दस वर्ष तक। राजीव गांधी के निधन के बाद भी कार्यवाहक प्रधानमंत्री रहते हुए वे सोनिया गांधी से उलझे, लेकिन समझौता नहीं किया। एक किताब के अनुसार सोनिया तब राजीव जी की समाधि के लिए दिल्ली में अलग से ज़मीन चाहती थी लेकिन चंद्रशेखर ने उनका विरोध किया था। इससे पहले जासूसी जैसे वाहियात आरोप लगा कर राजीव गांधी ने नकेल कसने की कोशिश की थी लेकिन जब तक राजीव अपना समर्थन वापस लेते, उससे पहले ही चंद्रशेखर ने इस्तीफा दे दिया था। ऐसी अनेक कहानियां है, ज़ाहिर है बिना ज़िम्मेदारी के अधिकार एंजॉय करना नेहरू परिवार का शगल रहा है जैसा आनंद सोनिया गांधी ने भी दस साल लिया था और अपने कठपुतली मुख्यमंत्रियों के बदौलत आज भी ले रही हैं।
चंद्रशेखर जी ने तब अपमान सहने के बजाय इस्तीफ़ा देना बेहतर समझा था, फिर उनके इस्तीफे के बाद का इतिहास तो सब जानते ही हैं। कथित जासूसी प्रकरण के कारण इस्तीफा हुआ पीएम का, देश को चुनाव झेलना पड़ा। राजीव चुनाव प्रचार में निकले। उनकी हत्या हो गयी। एक क़द्दावर हो चुका नेता देश ने खोया। लेकिन वह दुखद घटनाक्रम होता ही नहीं अगर प्रधानमंत्री पर नाहक दबाव बनाने की चाल नहीं चला होता परिवार तो, जैसा कि आज भी चल रहा है। हर भारीय शोक में था उस ह्त्या से।
नियति बड़ी ही निष्ठुर होती है। लेकिन कांग्रेस और गांधी ख़ानदान ने सबक आज भी नहीं सीखा है, यह दुःखद है। आज भी चन्नी-बघेल जैसे मुट्ठी भर भी नहीं बच गए मुख्यमंत्रियों की बदौलत कांग्रेस की दाल-रोटी चल रही है। देश भर के चुनावों का खर्च छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों से जा रहा है, ऐसा विपक्ष आरोप भी लगाता है हमेशा। ऐसे ‘एटीएम’ की बदौलत राजनीति करना तो फिर भी समझ में आता है लेकिन ऐसे एक-दो चन्नी की बदौलत वह भारत के शेर प्रधानमंत्री को नापने की दुस्साहस कर रहा है, यह अचंभित करने वाला है। जब चंद्रशेखर जैसे अत्यल्प समर्थन वाले, कांग्रेस के समर्थन से चलने वाली सरकार का स्वाभिमानी पीएम उससे नहीं सध पाया तो अथाह समर्थन और बहुमत प्राप्त नरेंद्र मोदी को क्या साध पायेंगे वे! इस असाध को साधने की दुस्साहस तो बिल्कुल वैसी ही हुई जैसी उसी हस्तिनापुर (दिल्ली में ही) में कभी दुर्योधन ने शांति प्रस्ताव लेकर गए श्रीकृष्ण को बांधने- साधने की कोशिश की थी। जो था असाध साधने चला….. आगे उसी हरियाणा-पंजाब (यानी कुरुक्षेत्र) की लाल हुई पड़ी माटी आज भी कौरवों के पराजित इतिहास की गाथा कहती दिख रही है। आप इतिहास से सबक नहीं लेंगे, तो ज़ाहिर है उसे दुहरायेंगे। बार-बार ठोकरें खाने के बाद भी क्यों आग से खेल रही है कांग्रेस, यह समझना मुश्किल है।
आप इस चूक करार दिए गए घटनाक्रम के बाद सोशल मीडिया पर आयी टिप्पणियों पर गौर करें। कांग्रेस के अधिकृत पेजों तक पर आपको इस घटना का जश्न मनाते नेता दिख जायेंगे। मध्यप्रदेश कांग्रेस ने तो इस घटना के लिए अपने अधिकृत पेज से ‘पंजाब’ को शाबासी दी। इसी तरह कांग्रेस के एक नेता ने ‘हाउज द जोश’ कहते हुए अपना उत्साह दिखाया मानो फिरोजपुर रैली रद्द करा कर उसने कोई किला फतह कर लिया हो। यह महज़ संयोग नहीं हो सकता कि इस शर्मनाक घटनाक्रम के बाद ठीक कांग्रेसी की तरह की भाषा भी खालिस्तानी भी बोल रहे हैं। एक वीडियो में किसी खालिस्तानी ने बाकायदा इस घटना का जश्न मानते हुए गुरूवार के इस दिन को फिर से खालिस्तान आन्दोलन की शुरुआत कहा है। दुखद आश्चर्य है कि जिन खालिस्तानियों के कारण प्रधानमन्त्री और कांग्रेस नेत्री इन्दिरा गांधी की नृशंस ह्त्या हुई, आज कांग्रेस उसी खालिस्तानी की भाषा बोल रहे, विगत से ज़रा भी सबक नहीं सीखना, वैसे ही आगत का न्योता देना होता है, इतनी भी समझ अगर आपकी नहीं हो, तो क्या कहा जा सकता है भला?
बातें अनेक हैं। पंजाब कांग्रेस अध्यक्ष सिद्धू द्वारा राहुल गांधी की ‘गुप्त मीटिंग’ का इशारा और फिर यह ‘परिणाम’ निकलना। घटना के तुरंत बाद कथित तौर पर मात्र 700 लोग फिरोजपुर के मोदी जी की सभा में होने का कांग्रेसी बयान… ये सारे तथ्य पूर्व नियोजित साज़िश की तरफ ही इशारा करते हैं। कठिन से कठिन हालात में भी निजी तौर पर किसी हमले पर प्रतिक्रया नहीं देने वाले प्रधानमंत्री मोदी ने यूं ही तो नहीं ही कह दिया होगा पंजाब के अधिकारियों से कि ‘अपने सीएम को धन्यवाद देना कि मैं जीवित बठिंडा एयरपोर्ट पहुंच गया।’ गुरूवार के एक वीडियो में एक पत्रकार ने अपनी गाड़ी पर हमले की बात की है, ऐसा लग रहा है मानो किसी विस्फोटक से हमला किया गया उसकी गाड़ी पर। अर्थात यह संदेह पुख्ता है कि प्रदर्शनकारियों के रूप में कुछ छिपे उपद्रवियों के पास उपद्रव के सारे साजो-सामन रहे होंगे। बहरहाल!
जीवन भर कांग्रेस के निष्ठावान नेता और हाल तक पंजाब के सीएम रहे कैप्टन अमरिंदर सिंह ने कांग्रेस छोड़ते हुए सोनिया गांधी को लिखे पत्र में साफ़ तौर पर ‘इस बात को लेकर चिंता जताई थी कि इन राज्य में अस्थिरता आ सकती है।’ कैप्टन की आशंका सच साबित हो रही है और पंजाब समेत देश को आतंक की आग में झोंकने के लिए बड़ी साज़िश हो रही है, इसमें अब रत्ती भर संदेह नहीं है। कांग्रेस को अपने विवेक का परिचय देते हुए स्वयं को इस उपद्रव का टूल्स बनाने से बचना चाहिए। उसे इतिहास से सबक लेकर यह समझना चाहिए कि किसी भी तरह के आतंक को समर्थन देने का खामियाजा देश को तो भुगतना ही पड़ता है लेकिन उससे सबसे अधिक पीड़ित ऐसी आग को हवा देने वाले ही होते हैं।
आज श्री नरेंद्र मोदी जैसे नेता को इस तरह से साधने की कांग्रेस की हास्यास्पद कोशिश बिलकुल वैसी ही लग रही है है जैसा शान्ति प्रस्ताव लेकर गए योगिराज श्रीकृष्ण को बांधने की दुर्योधन की बचकानी कोशिश के बारे में दिनकर लिखते हैं :-
जो था असाध्य, साधने चला।
जब नाश मनुज पर छाता है,
पहले विवेक मर जाता है।
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