15 अगस्त के बाद पहली बार मुसलमानाने हिंद लखनऊ में हजारों की संख्या में दिसंबर 27-28 को एकत्रित हुए। पाकिस्तान की स्थापना के बाद भी देश में शांति और सुख होने की बजाय अशांति और संकट के तूफान उठ रहे थे। नेताओं ने सोचा था कि पाकिस्तान दे देने से सब लड़ाई-झगड़ा समाप्त हो जाएगा और बचे-खुचे हिंदुस्थान में चैन की वंशी बजायी जा सकेगी। किंतु उनकी आशाएं झूठ साबित हुईं। शांति के लिए देश का विभाजन किया गया किंतु विभाजन से अशांति की आग और भड़क उठी। …हिंदुओं की लाशों के अंबारों पर पाकिस्तान का भवन खड़ा किया गया। पश्चिमी पंजाब के भीषण नरमेध सीमाप्रांत के वीभत्स हत्याकांड तथा सिंध के लज्जाजनक काले कारनामे इतिहास की वस्तु हो गए हैं। अगणित पैशाचिक अत्याचार हृदय पर अमिट छाप छोड़ गए हैं। दिल के फफोलों को न छूना ही अच्छा है।
कलकत्ते के कत्लेआम और नोवाखोली के बर्बर शर्मनाक नजारों से जो आग लगी उसने हरे-भरे, फले-फूले, प्यारे पंजाब को बर्बाद कर दिया। जब बचे-खुचे हिंदुस्थान में नयी-नवेली आजादी की अगवानी धूम-धाम से हो रही थी तब पश्चिमी पंजाब और सीमाप्रांत के हिंदू दानवी परवशता के पाश में पड़े परकटे पंछी की भांति छटपटा रहे थे। जब सदा सुहागिन देहली पर स्वतंत्रता के असंख्य दीपक बाले जा रहे थे तब लाहौर के हिंदू असहाय होकर अपनी इज्जत, धन-दौलत और मां-बहिनों की अस्मत समेत अत्याचार की आग में धू धू कर जल रहे थे।
इतिहास ने एक बार फिर अपने को दुहराया। अंतर केवल इतना ही था कि रोम नहीं, लाहौर जल रहा था। नीरो नहीं, नेता चैन की वंशियां बजा रहे थे। देश के बंटवारे तथा बाद की घटनाओं ने यह सिद्ध कर दिया कि सारी खून-खराबी का उत्तरदायित्व मुसलमानों को खुश करने की डरपोक नीति पर है। साथ ही साथ बंटवारे से यह भी साफ हो गया कि बहुसंख्य मुसलमानों पर विश्वास करना अपने को धोखा देना है।
दो सवाल
पाकिस्तान के बन जाने के बाद हिंदुस्थान के मुसलमानों के सामने दो सवाल हैं।
1. मुसलमान अपनी परंपरागत इस्लामपरस्ती और हिंदू विरोधी नीति छोड़कर बहुसंख्यों के अनुरूप अपना जीवन बनाकर अपनी जान देते हुए भारत और भारतीयता की आन बचाने के लिए खुले हृदय से तैयार हों। अथवा पाकिस्तान के पंचमांगी बनकर ऊपर से वफादारी की कसमें खाते हुए भीतर ही भीतर… षड़यंत्र करते रहें और देश के प्रति नमक हराम साबित हों। मुस्लिम सम्मेलन के सामने भी यही दो रास्ते थे… । गला फाड़-फाड़कर भारत के प्रति वफादार रहने की कसम खाकर और तिरंगे के सामने सर झुकाते हुए अपना बिस्तर-बोरिया बांधकर चुपके से पाकिस्तान खिसक जाने वाले मुस्लिम नेताओं को सब जानते हैं। उनके अनुयायियों को यह साबित करना था कि वे अपने नेता के कदम बकदम नहीं चलेंगे। देश को आशा थी कि लखनऊ का मुस्लिम सम्मेलन मुसलमानों की सांप्रदायिकता को सदा सर्वदा के लिए खोद कर गाड़ देगा। किंतु ऐसा हुआ क्या?
सरकारी सम्मेलन
2. लखनऊ का सम्मेलन मुसलमानाने हिंद का था, किंतु वहां जाकर मुझे ऐसा लगा कि यह कांग्रेस सरकार की कोई मुस्लिम कान्फ्रेंस है। सम्मेलन सरकारी बाग में हुआ था। प्रतिनिधियों और दर्शकों की सुविधा के लिए सरकार ने रात दिन स्पेशल गाड़ियां चलाईं। प्रतिनिधि सरकारी भवनों में टिकाए गए। उनके लिए राशन की व्यवस्था सरकार ने की। सम्मेलन का विराट पंडाल भी सरकारी कृपा की गवाही देता हुआ खड़ा था। कहते हैं कि सरकार ने सम्मेलन के लिए पांच हजार गैलन पैट्रोल भी दिया था। …….
(पौष शुक्ल 3, बुधवार 2004 (सन् 1948 ) में प्रकाशित)
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