डॉ. गुलरेज शेख
भू-राजनीति पर नजर रखने वाला हर व्यक्ति लगातार या तो किसी देश पर अमेरिकी प्रतिबंध के समाचार सुनता है या प्रतिबंध की धमकी। ऐसा लगता है कि प्रतिबंध-नीति अमेरिका की विदेश कूटनीति का स्थाई अंग बन चुकी है। पर प्रश्न जागृत होता है कि क्या अमेरिकी प्रतिबंध अपने राजनैतिक गंतव्यों तक पहुंच पाते हैं या नहीं? अभी तक शायद ही कोई उदाहरण हो जहां अमेरिकी आर्थिक प्रतिबंधों ने अपने राजनैतिक लक्ष्य प्राप्त किए हों। बल्कि इसके विपरीत जिन देशों पर अमेरिका आर्थिक प्रतिबंध लगाता है, वे उसके दुश्मन देशों की गोद में जाकर बैठ जाते हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि अमेरिकी सरकार द्वारा अमेरिकी प्रतिबंधों का उपयोग अपनी कूटनीतिक विफलताओं को ढकने के लिए तथा अपनी जनता को यह दिखाने के लिए किया जाता है कि वह ‘कुछ कर रही है’।
चीन के पाले में निकारागुआ
लेकिन अब यह नीति अमेरिका के साथ-साथ उसके मित्र देशों को भी नुकसान पहुंचाने लगी है। ताजा उदहारण निकारागुआ का है। ताइवान को एक राष्ट्र के रूप में स्वीकार करने वाले तथा पूर्ण राजनयिक संबंध रखने वाले उंगलियों पर गिने जाने वाले देशों में निकारागुआ भी था, परंतु अमेरिकी प्रतिबंधों के कारण निकारागुआ ने ताइवान को त्याग चीन के साथ पूर्ण राजनयिक संबंध बना लिए। वह भी ऐसे समय हुआ जब अमेरिका लोकतांत्रिक देशों का सम्मेलन कर रहा था और उसमें ताइवान को भी आमंत्रित किया गया था। यह न केवल ताइवान अपितु लोकतांत्रिक मूल्यों पर चलने वाले अन्य देशों के लिए भी एक झटका है।
प्रश्न यह नहीं है कि निकारागुआ पर प्रतिबंध लगाना नैतिक था या नहीं, क्योंकि निकारागुआ के राष्ट्रपति वास्तव में वहां लोकतंत्र का गला घोंट रहे हैं। परंतु क्या अमेरिकी प्रतिबंधों के कारण उन्होंने अपनी कार्यशैली में बदलाव किया, क्या अमेरिकी प्रतिबंधों के कारण वहां लोकतांत्रिक मूल्यों को ताकत मिली, क्या इससे उस क्षेत्र में (मध्य अमेरिका में) लोकतंत्र मजबूत हुआ? बल्कि हुआ इसके विपरीत है। जब अमेरिका ने प्रतिबंधों का फंदा कसना शुरू किया तो निकारागुआ ने रूसी फौजियों को अपने देश में बुला लिया, उसी तरह जैसे वेनेजुएला ने अमेरिकी प्रतिबंधों के चलते बुलाया था। रूस इन देशों की सैन्य या कूटनीतिक सहायता तो कर सकता है परंतु आर्थिक सहायता नहीं, और यहां चीन का किरदार शुरू होता है। अब आप पाएंगे कि कुछ ही समय में चीन निकारागुआ में ना केवल निवेश करेगा बल्कि उसे भारी ऋण भी देगा और बदले में उसके सामरिक स्थानों को अपने कब्जे में करेगा। जैसे-जैसे अमेरिका तथा चीन के बीच शीत युद्ध बढ़ता जाएगा, वैसे-वैसे पिछले शीत युद्ध की ‘क्यूबन मिसाइल समस्या’ की तरह अन्य समस्या भी जन्म ले सकती है, चाहे वह निकारागुआ में हो या वेनेजुएला में।
चीन पर निर्भर हुआ ईरान
आप सोचते होंगे कि दूरदराज के निकारागुआ या वेनेजुएला की बात हम क्यों कर रहे हैं, तो आइए, भारत के निकटवर्ती देश ईरान पर नजर डालें। अमेरिकी प्रतिबंधों के चलते ईरान में ना तो अमेरिका के अनुरूप किसी प्रकार की राजनैतिक व्यवस्था में परिवर्तन हुआ और न ही ईरान की सैन्य महत्वाकांक्षाओं में। इसके विपरीत प्रतिबंधों का फंदा जैसे-जैसे कसता गया और ईरान की आर्थिक स्थिति खराब होती गई, वह चीन के नजदीक आने लगा। इतना ही नहीं, 400 अरब अमेरिकी डॉलर का ईरान-चीन के बीच हुआ 25 वर्षीय गोपनीय समझौता ईरान की चीन पर निर्भरता को प्रकट करता है, जिसके तहत चीन न केवल ईरान के संसाधनों का शोषण करेगा बल्कि मध्यपूर्व में उसे एक बड़ी सामरिक सीढ़ी बनाकर अपना प्रभाव विस्तार करेगा। यहां उल्लेखनीय है कि ईरानी प्रभाव में सीरिया, ईराक, लेबनान, यमन जैसे आधा दर्जन देश आते हैं।
रूस की चीन से विवशतापूर्ण निकटता
रूस की भी वैसी ही स्थिति है। रूस का लोकतंत्र चाहे बहुत सराहनीय ना हो परंतु वह सोवियत संघ वाला कम्युनिज्म तो नहीं है। इसके उपरांत भी अमेरिका द्वारा रूस पर जिस प्रकार के आर्थिक प्रतिबंध लगाए गए, उसके चलते अपनी आर्थिक स्थिति को संभालने हेतु, पुराने कटु संबंधों एवं सीमा विवादों तथा मध्य एशिया में हितों की प्रतिद्वंद्विता के उपरान्त, ना चाहते हुए भी रूस को चीन के निकट जाना पड़ रहा है। रूस और चीन का यह गठबंधन, जिसमें गोंद का काम अमेरिकी प्रतिबंध कर रहे हैं, न तो अमेरिका के हित में है और ना ही उसके मित्र देशों के। यहां यह उल्लेख करना महत्वपूर्ण है कि संवेदनशील तकनीक में आज भी रूस कई क्षेत्रों में अमेरिका से भी आगे है और चीन काफी पीछे है, परंतु चीन के पास पैसा है जो कि रूस के पास नहीं है (कारण अमेरिकी प्रतिबंध)। अमेरिका द्वारा निर्मित यह स्थिति रूस को चीन की गोद में डालने का आत्मघाती कार्य कर रही है। यदि यहीं तक यह रुक जाता तो भी ठीक था, इस मूर्खता को नए शिखर पर पहुंचाने का कार्य अमेरिकी संसद ने किया जब आर्थिक प्रतिबंध (जो कि विदेशी नीति का हिस्सा हैं और विदेश नीति के हर कर्तृत्व को विषय विशेष के अनुसार क्रियान्वित किया जाता है) को कानूनी जामा पहना दिया गया।
अमेरिका द्वारा रूस पर जिस प्रकार के आर्थिक प्रतिबंध लगाए गए, उसके चलते अपनी आर्थिक स्थिति को संभालने हेतु, पुराने कटु संबंधों एंव सीमा विवादों तथा मध्य एशिया में हितों की प्रतिद्वंद्विता के उपरान्त, ना चाहते हुए भी रूस को चीन के निकट जाना पड़ रहा है। रूस और चीन का यह गठबंधन, जिसमें गोंद का काम अमेरिकी प्रतिबंध कर रहे हैं, न तो उसके हित में है और ना ही अमेरिका के मित्र देशों के
वर्ष 2017 में अमेरिकी संसद द्वारा पारित सीएएटीएसए कानून (अमेरिकी प्रतिद्वंद्वियों का आर्थिक प्रतिबंधों के माध्यम से विरोध करने का कानून) न केवल कूटनीति व अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों का मखौल है बल्कि उसका जनाजा निकालने वाला भी है। यह कानून मित्र व शत्रु देशों में अन्तर नहीं करता और संभवत: मानव इतिहास में इसके पहले ऐसा आत्मघाती कानून नहीं बना होगा। जब अमेरिकी मित्र देश तथा नाटो के सदस्य तुर्की ने रूस से एस-400 मिसाइल सिस्टम खरीदा तो सीएएटीएसए कानून द्वारा उस पर आर्थिक प्रतिबंध लगा दिए गए।
भारत को धमकी
उसी प्रकार जब भारत ने अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा हेतु रूस से इसी एस-400 मिसाइल सिस्टम को खरीदने का सौदा किया, अमेरिका द्वारा तभी से भारत पर सीएएटीएसएकानून द्वारा आर्थिक प्रतिबंध लगाने की धमकी दी जा रही है। यद्यपि मेरा भूराजनैतिक विश्लेषण कहता है कि अमेरिका चाहकर भी भारत पर प्रतिबंध नहीं लगा सकता क्योंकि हिंद-प्रशांत क्षेत्र में यदि उसे चीन से निपटना है तो यह काम वह भारत के बिना नहीं कर सकता।
यहां मोदी सरकार की प्रशंसा भी होनी चाहिए क्योंकि वैश्विक पटल पर उसने यह सिद्ध कर दिया कि भारत अपने राष्ट्रीय हित से कभी समझौता नहीं करेगा और दुनिया का कोई भी देश भारत की विदेश व रक्षा नीति की स्वतंत्रता को निर्देशित नहीं कर सकता। परंतु यदि गलती से भी अमेरिका ने भारत पर एस-400 के नाम पर सीएएटीएसए कानून द्वारा आर्थिक प्रतिबंध लगाने की गलती की तो भारत-अमेरिकी संबंध कम से कम 2-3 दशक पीछे चले जाएंगे क्योंकि हमारी पीढ़ी मूल्यत: अमेरिकी विरोध की मानसिकता में पली-बढ़ी है, और उसका कारण उस कालखंड में अमेरिका द्वारा पाकिस्तान को हर गलत बात पर भी समर्थन प्रदान करना था।
अमेरिका में विरोध
फिर भी मेरा अध्ययन कहता है कि अमेरिका, भारत पर सीएएटीएसए कानून द्वारा आर्थिक प्रतिबंध नहीं लगाएगा क्योंकि वहीं के कई सांसद इस चीज का पुरजोर विरोध कर रहे हैं, और भारत पर प्रतिबंध नहीं लगाने को अमेरिकी हित में बता रहे हैं तथा इस हेतु उन्होंने अपनी संसद में एक बिल भी प्रस्तुत किया है। वर्तमान में चल रहे रूस-यूक्रेन विवाद पर भी, अमेरिकी प्रतिक्रिया आर्थिक प्रतिबंधों की धमकी तक सीमित है। यदि ऐसी स्थिति में नियोजित रूप से रूस, यूक्रेन पर और चीन, ताइवान पर हमला कर दे, तो क्या अमेरिका कुछ भी करने की स्थिति में रहेगा?आवश्यकता है रूस को चीन से दूर करने की, पर आर्थिक प्रतिबंधों की फूहड़नीति के चलते हो इसके विपरीत रहा है।
बांग्लादेश-म्यांमार पर प्रतिबंध से चीन को मौका
बांग्लादेश पर जिस प्रकार अमेरिकी प्रतिबंधों की कार्रवाई हुई है, वह वास्तव में कई सवाल उत्पन्न करती है। पहले बांग्लादेश जैसे लोकतांत्रिक देश को अमेरिका द्वारा आयोजित डेमोक्रेसी समिट से दूर रखना और अब बांग्लादेश में आतंक विरोधी सरकारी दस्ते, जो एक दशक के अधिक समय से सक्रिय हैं, पर अब मानवाधिकारों के नाम पर प्रतिबंध लगाना दिखाता है कि मानवाधिकार के नाम पर बांग्लादेश की भू-राजनैतिक बांह मरोड़ी जा रही है। कारण, अमेरिका चाहता है कि चीन के साथ शीत युद्ध में बांग्लादेश, अमेरिकी खेमे में रहे, जबकि बांग्लादेश निर्गुट रहकर अपने आर्थिक विकास में दोनों खेमों के साथ व्यापारिक सम्बन्ध चाहता है। लेकिन बांह मरोड़ने से बांग्लादेश के चीन की तरफ जाने की संभावना और गहरी होती है, जैसा कि दूसरे देशों के साथ हुआ है। हिंद-प्रशांत की लड़ाई में बांग्लादेश की सामरिक-भौगोलिक स्थिति अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि यह समूची बंगाल की खाड़ी को प्रभावित करती है। |
इतने सारे उदाहरणों को देखते हुए भी यदि अमेरिकी सरकार अपनी विदेश नीति से प्रतिबंधों का खेल खत्म नहीं करती है, तो कई देशों, जो सामरिक दृष्टि से अति महत्वपूर्ण हैं, को वह ना केवल चीन की गोद में डाल देगी बल्कि अपने सबसे प्रबल शस्त्र, अमेरिकी डॉलर के विकल्प को भी प्रोत्साहित करेगी। आज भी दुनिया का अधिकांश व्यापार तथा दुनिया भर के देशों का विदेशी मुद्रा भंडार अमेरिकी डॉलर में है। पर अमेरिकी प्रतिबंधों में फंसे देश इसका विकल्प तलाश रहे हैं, और यदि चीनी डिजिटल युआन (जो कि इस दिशा में काफी कार्य कर चुका है) अमेरिका विरोधी देशों में व्यापार तथा विदेशी मुद्रा भंडार बनने में सफल हुआ तो यह हमारे युग की सबसे बड़ी चुनौती होगी। यहां यह उल्लेखनीय है कि रूस जैसा बड़ा देश आज अपने विदेशी मुद्रा भंडार के गैर डॉलरीकरण पर तेजी से कार्य कर रहा है। अत: यदि अब भी अमेरिका अपनी आर्थिक प्रतिबंधों की नीति में परिवर्तन नहीं लाता, तो इसका सबसे ज्यादा फायदा चीन को ही होगा।
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