डॉ. अजय खेमरिया
अगर एक राष्ट्र—एक राशन कार्ड, एक राष्ट्र—एक ग्रिड, एक राष्ट्र – एक परीक्षा संभव है तो स्वतंत्रता के 75 साल बाद एक राष्ट्र – एक पाठ्यक्रम क्यों नहीं हो सकता! सभी नागरिकों को शिक्षा की संवैधानिक गारंटी देने वाले देश में स्कूल, बोर्ड, परीक्षा और पाठ्यक्रम के स्तर पर भेदभाव क्यों है? क्यों देश के 5 प्रतिशत बच्चे तुलनात्मक रूप से श्रेष्ठ केंद्रीय शिक्षा बोर्ड से शिक्षा हासिल करते हैं और 95 प्रतिशत अलग-अलग राज्यों के बोर्डों पर निर्भर हैं! नई शिक्षा नीति के मंतव्य के अनुसार देश के हर बच्चे को एकरूप पाठ्यक्रम और परीक्षा प्रणाली उपलब्ध कराने का यह सबसे उपयुक्त समय है। संयोग से हाल ही में शिक्षा और बाल मामलों से जुड़ी एक संयुक्त संसदीय समिति ने सरकार का ध्यान विविध शिक्षा बोर्डों एवं परीक्षा प्रणालियों से निर्मित होने वाली व्यावहारिक परेशानियों की ओर आकृष्ट किया है। भाजपा सांसद विनय पी. सहस्त्रबुद्धे की अध्यक्षता वाली इस समिति ने यूं तो 25 सिफारिशें की हैं परंतु एक समान बोर्ड/प्रणाली संबंधी सुझाव अत्यन्त महत्वपूर्ण है।
कई शिक्षा बोर्ड होने से भेदभाव
अभी देश में केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड यानी सीबीएसई और इंडियन सर्टिफिकेट आॅफ सेकेंडरी एजुकेशन यानी आईसीएसई के रूप में केंद्र सरकार के शिक्षा बोर्ड कार्यरत हैं। सरकार ने बाबा रामदेव को भी एक निजी बोर्ड की अनुमति दे रखी है। देश में इस समय सीबीएसई मान्यता वाले 26,189 स्कूल चल रहे हैं। सीबीएसई में एनसीईआरटी का पाठ्यक्रम एवं आईसीएसई में केवल अंग्रेजी माध्यम का अलग पाठ्यक्रम पढ़ाया जाता है। यह देश के महज पांच प्रतिशत स्कूली बच्चों को उपलब्ध होता है। राज्यों के अपने अलग माध्यमिक शिक्षा बोर्ड हैं। कुछ राज्यों में ‘ओपन’ एवं संस्कृत बोर्ड भी हैं जिनमें पढ़ने वाले बच्चों के मध्य यह स्थापित धारणा है कि सीबीएसई उनके बोर्ड से श्रेष्ठ है।
वैसे इस तथ्य से कोई भी इनकार नहीं कर सकता कि देश की शालेय शिक्षा का ढांचा सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर एक विभेदकारी समाज का निर्माण करता रहा है। खुद सरकारों ने इसे अपनी नीतियों से बढ़ाया ही है। केंद्र सरकार अगर अपने कार्मिकों के लिए केंद्रीय विद्यालय संगठन के जरिए सीबीएसई नियंत्रित पाठ्यक्रम और परीक्षा प्रणाली का संचालन कर सकती है एवं अन्य सक्षम लोगों के लिए निजी स्कूलों के जरिए ऐसी सुविधा उपलब्ध कराती है, तब सवाल यह उठता है कि देश के शेष बच्चों को सीबीएसई या आइसीएससी जैसी प्रतिस्पर्धी शिक्षा व्यवस्था से वंचित क्यों रखा जाए!
केंद्रीय विद्यालय संगठन
केंद्रीय विद्यालय संगठन आज देश भर में 25 क्षेत्रीय कार्यालयों के जरिए 1200 से अधिक स्कूलों का संचालन करता है। इनके अलावा देश में करीब 25 हजार ऐसे निजी स्कूल हैं जो सीबीएसई बोर्ड से मान्यता प्राप्त हैं। ये स्कूल अब केवल बड़े शहरों में नही हैं बल्कि तालुका, गांव के स्तर पर भी चल रहे हैं। केंद्रीय जनजातीय मंत्रालय द्वारा जिन एकलव्य आवासीय विद्यालय एवं कन्या आश्रमशालाओं को संचालित किया जा रहा है, वे भी केंद्रीय विद्यालय की प्रतिकृति ही हैं। जाहिर है, देश के हर कोने में आज सीबीएसई पाठ्यक्रम वाले स्कूल मौजूद हैं। ऐसे में कोई कारण नहीं कि एक देश-एक पाठ्यक्रम के विचार को अमल में नहीं लाया जा सकता।
मध्य प्रदेश में चरणबद्ध तरीके से 2000 सरकारी स्कूलों को ‘सीएम राइज योजना’ के तहत केंद्रीय विद्यालय स्वरूप में बदला जा रहा है। महाराष्ट्र सरकार ने हाल ही में अपने सभी सरकारी स्कूलों को सीबीएसई प्रणाली के तहत लाने की घोषणा की है। यानी राज्य सरकारें भी मानती हैं कि केंद्रीय बोर्ड तुलनात्मक रूप से बेहतर हैं। इसलिए बुनियादी सवाल यही है कि इस बेहतर व्यवस्था का हकदार देश का हर बच्चा क्यों नहीं होना चाहिए?
बोर्डों के स्तर पर सवाल
‘असर’ नामक संस्था की हर साल आने वाली रिपोर्ट यही बताती है कि माध्यमिक स्तर के बच्चों को प्राइमरी स्तर का ज्ञान नहीं होता। इस मामले में बिहार, मध्य प्रदेश, हरियाणा, गुजरात, उत्तर प्रदेश, झारखंड, छत्तीसगढ़, बंगाल, असम, उत्तराखंड जैसे राज्यों की स्थिति दक्षिण के राज्यों की तुलना में बहुत ही खराब है। देश के नामी तकनीकी, प्रौद्योगिकी, प्रबंधन, विज्ञान, पत्रकारिता, संचार से जुड़े उच्च शिक्षण संस्थानों, विश्वविद्यालयों में भी उन बच्चों का प्रतिशत अधिक है जो सीबीएसई पाठ्यक्रम से निकलकर आते हैं।
दिल्ली के आसपास के राज्यों के बच्चे भी दिल्ली के स्कूलों में पढ़ना चाहते हैं क्योंकि वहां अभी सभी सीबीएसई स्कूल हैं। दिल्ली सरकार तो आधिकारिक रूप से कहती आई है कि जो बच्चे सीबीएसई बोर्ड में पढ़ते हैं, उनका मुकाबला दूसरे सरकारी स्कूलों के बच्चे नहीं कर पाते। असल में कहना तो सभी राज्य ऐसा ही चाहते हैं लेकिन अपने नाकारापन को छिपाने के लिए वे राजनीतिक कारणों से सीबीएसई को श्रेष्ठ नहीं मानते। वस्तुत: राज्यों के बोर्ड 75 साल में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा को सर्वव्यापी और समावेशी बनाने में बुरी तरह विफल रहे हैं। यह क्षेत्र एक समानांतर उद्योग की तरह फला-फूला है जिसका खामियाजा करोड़ों लोग पीढ़ी दर पीढ़ी भोगने के लिए विवश हैं।
शिक्षा, पाठ्यक्रम एवं परीक्षा में हो एकरूपता
नई शिक्षा नीति बुनियादी रूप से सभी स्कूलों में शिक्षा, पाठ्यक्रम और परीक्षा प्रणाली में एकरूपता की वकालत करती है। सहस्त्रबुद्धे समिति भी कमोबेश इसी बात को आगे बढ़ाती है। हालांकि इस सुझाव का यह कहकर विरोध किया जाता है कि इससे राज्यों की आधिकारिता एवं संघीय ढांचे पर चोट पहुंचती है। साथ ही, उनके स्थानीय सांस्कृतिक सरोकारों के लिए भी इस केंद्रीयकृत विचार का विरोध किया जाता है। सवाल यह भी है कि क्या राज्यों के बोर्ड गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और सांस्कृतिक संस्कारों के पैमाने पर सफल साबित हुए हैं? स्वतंत्र अध्ययनों से जुड़ी बीसियों रपट यही कहती हैं कि देश में एक ऐसा स्थाई वातावरण बन चुका है जो सीबीएसई के आगे 95 प्रतिशत बच्चों को एक हीनभाव का बोध कराता है।
एक समावेशी पाठ्यक्रम की जरूरत
लेकिन इस स्थिति को बदला जा सकता है। सरकार को चाहिए कि वह व्यापक राष्ट्रीय हित में राजनीतिक आधार पर एक सर्वानुमति निर्मित करे जिसके तहत सीबीएसई प्रणाली को समावेशी बनाकर देश के हर राज्य में लागू किया जाए। जहां तक राज्यों की स्वायत्तता और स्थानीय सरोकारों का विषय है, उसे पाठ्यक्रम के साथ हर राज्य में अलग से डिजाइन किया जा सकता है। सहस्त्रबुद्धे समिति ने अपनी सिफारिशों में स्थानीयता के इस तत्व को प्रमुखता से रेखांकित किया है। एक अन्य पक्ष यह भी है कि हर राज्य के गांव-कस्बों तक भी सीबीएसई के स्कूल अभी चल ही रहे हैं। ऐसे में इन स्कूलों के विरुद्ध अभिभावकों की तरफ से किसी केंद्रीयकरण या स्थानीयता की अवहेलना की शिकायत नहीं आई है।
बेहतर होगा एक समावेशी पाठ्यक्रम इन सिफारिशों के आधार पर बनाया जाए जो भारतबोध, स्वत्व और स्थानीयता के सभी मानबिन्दुओं को समाविष्ट करता हो। नीट, नेट या एनटीए के अलावा आईबीपीएस जैसी परीक्षाएं अभी अखिल भारतीय स्तर पर सफलतापूर्वक आयोजित हो ही रही हैं। एक देश-एक बोर्ड तकनीकी रूप से भले कठिन हो, लेकिन एक देश-एक पाठ्यक्रम तो बहुत आसान है। यह अपेक्षित कार्य स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव पर आने वाली पीढ़ियों के लिए न केवल उत्कर्ष में सहायक होगा बल्कि सामाजिक न्याय के नजरिए से भी सशक्त और श्रेष्ठ भारत की आधारशिला का काम कर सकता है।
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