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होम भारत

बाघों का घर, ‘लोमड़ियों’ का कब्जा

by दिनेश मानसेरा
Dec 29, 2021, 08:30 am IST
in भारत, उत्तराखंड
उद्यान के भीतर ऐसे सैकड़ों अवैध होटल खड़े हो गए हैं

उद्यान के भीतर ऐसे सैकड़ों अवैध होटल खड़े हो गए हैं

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उत्तराखंड स्थित जिम कॉर्बेट राष्ट्रीय प्राणी उद्यान अतिक्रमण का शिकार। उद्यान के जिस हिस्से को बाघों के लिए सुरक्षित रखा गया है, अतिक्रमणकारियों ने उस हिस्से को भी नहीं छोड़ा। लोग वहां होटल बनाकर लाखों रुपये कमा रहे

इन दिनों जिम कॉर्बेट राष्ट्रीय प्राणी उद्यान चर्चा में है। इसका मुख्य कारण है यहां की जमीन पर हो रहा कब्जा। भू-माफिया ने इस उद्यान के उस हिस्से तक को नहीं छोड़ा, जिसे बाघों के लिए सुरक्षित रखा गया है। यहां से आए दिन ऐसी खबरें आ रही हैं कि अवैध निर्माण हो रहा है और असरदार लोगों को पट्टे पर भूमि दी जा रही है। राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए) ने इनका संज्ञान लेते हुए उत्तराखंड वन विभाग और कॉर्बेट प्रशासन से जवाब तलब किया है।

जानकारी के अनुसार उत्तराखंड के वन विभाग के वर्तमान मुखिया राजीव भरतरी ने पिछले कांग्रेस शासन काल में ‘ईको टूरिज्म’ के निदेशक और कॉर्बेट टाइगर रिजर्व के निदेशक पद पर रहते हुए कॉर्बेट टाइगर रिजर्व की भूमि का निजी क्षेत्र को उपयोग करने की अनुमति दी थी। इसके बाद से प्रभावशाली लोग कॉर्बेट टाइगर रिजर्व की सड़कों का इस्तेमाल कर रहे हैं और वहां आने-जाने के लिए हाथी और जिप्सियां भी इस्तेमाल में लाई जा रही हैं। वहां जो निजी हाथी रखे गए हैं, वे वहीं का चारा खा रहे हैं, जो गलत है। नियमानुसार बाहरी हाथी वहां का एक पत्ता भी नहीं खा सकता। वहां के चारे पर केवल जंगली हाथियों का अधिकार है। निजी रूप से हाथी रखने वालों को उनके लिए बाहर से खाना लाना होता है। पर यहां हर नियम की अनदेखी की जा रही है।

एनटीसीए- उच्च न्यायालय के निर्देश से
हटाए गए आरोपी अफसर

 

उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने उच्च न्यायालय और राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण के निर्देश पर उत्तराखंड वन विभाग के प्रमुख राजीव भरतरी, मुख्य वन्यजीव पालक जे.एस. सुहाग और कॉर्बेट टाइगर रिजर्व के कालागढ़ डीएफओ सहित एक दर्जन आईएफएस अधिकारियों को हटा दिया। इन सभी पर उत्तराखंड के टाइगर रिजर्व में नियमों की अनदेखी करने, खास लोगों को फायदा  पहुंचाने के आरोप हैं। मुख्यमंत्री धामी ने खुद इस बारे में बयान देकर कहा कि वन अधिकारी अपनी ही जांच अपने ही अधीनस्थ अधिकारियों से करवा कर बचना चाहते थे, इसलिए हमने विजलेंस जांच के आदेश देते हुए अधिकारियों को स्थानांतरित कर दिया है।

जानकारी के मुताबिक एनटीसीए ने कॉर्बेट पार्क के फाटो रेंज में अवैध निर्माण और रिजर्व फॉरेस्ट में अवैध रूप से पेड़ काटने की शिकायत को सही पाया था।

वन विभाग के सर्वोच्च अधिकारी रहे राजीव भरतरी पर एनटीसीए  ने साफ-साफ प्रशासनिक नियंत्रण में खामी बरतने का आरोप लगाया। उनके संरक्षण में होटल व्यवसायियों एवं प्रभावशाली लोगों को फायदा पहुंचाने का काम चलता रहा।

अभी महाशीर कंजर्वेशन मामले में राजीव भरतरी की भूमिका को लेकर भी विजिलेंस जांच की जा रही है। मुख्यमंत्री स्पष्ट कर चुके हैं कि कॉर्बेट, राजाजी व अन्य रिजर्व फॉरेस्ट में जिन अधिकारियों पर आरोप लग रहे हैं, उन्हें जांच में दोषी पाए जाने पर बख्शा नहीं जाएगा और उनसे बाकायदा वसूली भी की जाएगी।

इस मामले में नैनीताल उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर हुई थी जिस पर अदालत ने सरकार से टाइगर रिजर्व में हुए घपलों पर जवाब दाखिल करने को कहा था। राज्य सरकार ने इस बारे में अपनी कार्रवाई को न्यायालय में प्रस्तुत किया था।

कॉर्बेट टाइगर रिजर्व का प्रवेश द्वार

जानकारी के अनुसार, राजीव भरतरी ने 2004 में टाइगर रिजर्व में बहने वाली रामगंगा नदी में महाशीर मछली के संरक्षण के लिए एक योजना तैयार की थी। कहा जाता है कि यह योजना कांग्रेस से जुड़े कुछ प्रभावशाली लोगों को वन भूमि पट्टे पर देने और उन्हें वहां ‘कैम्प रिजॉर्ट’ बनाने के उद्देश्य से तैयार की गई थी। ऐसा इसलिए कहा जाता है कि महाशीर मछली न तो संरक्षण की श्रेणी में आती है और न ही यह लुप्त प्रजातियों में है।

जमून रिसॉर्ट में लगे स्विस टेंट

खास बात यह है कि कॉर्बेट टाइगर रिजर्व में इस योजना को लागू करने के लिए राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण से कोई अनुमति नहीं ली गई। इसके बावजूद प्रभावशाली लोगों को भूमि पट्टे पर दी गई और उन्हें हाथी रखने की भी छूट मिली। यह वन भूमि कॉर्बेट टाइगर रिजर्व के दुर्गा देवी गेट से अंदर ‘बफर जोन’ में है। कहा जा रहा है कि वन विभाग और कॉर्बेट प्रशासन ने प्रभावशाली लोगों के साथ मिलीभगत करके पहले ‘फिश एंगलिंग एसोसिएशन’ का ताना-बाना बुना। तर्क दिया गया कि इससे स्थानीय युवक  महाशीर मछली का अनधिकृत शिकार रोकेंगे और मछली पकड़ कर रोजी-रोटी कमाएंगे। लेकिन वास्तव में ऐसा कुछ नहीं हुआ। खेल तो कॉर्बेट पार्क के भीतर बेशकीमती जमीन को हथियाने का था। राजीव भरतरी ने ‘ईको-टूरिज्म’ का निदेशक रहते जमून, बलूली, जमेरिया, साकार और बन्द्रण सारुड की वन भूमि चार होटल स्वामियों को पट्टे पर दे दी।

वन निगम ने भी किया पट्टा नियमों का उल्लंघन?
 

कॉर्बेट टाइगर रिजर्व के बिजरानी गेट के सामने वन विभाग की जमीन थी। पहले यह जमीन कॉर्बेट पार्क के हिस्से में थी। जब उत्तराखंड उत्तर प्रदेश का हिस्सा था, तब वन विभाग ने वन निगम को व्यवसाय करने के लिए जमीन लीज पर दे दी। इस जमीन के रास्ते से ही कॉर्बेट टाइगर रिजर्व के जानवर पानी पीने कोसी नदी तक जाते थे। उत्तराखंड बनने के बाद वन निगम ने वन विभाग से लीज पर ली हुई भूमि दो निजी होटल व्यवसायियों को सब लीज पर दे दी जबकि कोई भी सरकारी संस्था अपने को मिली लीज की भूमि, जिसकी वह मालिक नहीं है, आगे सब लीज पर नहीं दे सकती। वन विभाग से जब भी इस बारे में पूछा जाता है तो अधिकारी बगलें झांकने लगते हैं क्योंकि इसमें उच्च अधिकारियों की मिलीभगत सामने आती दिखाई देती है।

जमून रिसॉर्र्ट पर दौड़ते निजी वाहन

खास बात यह कि कॉर्बेट टाइगर रिजर्व में पर्यटकों के जाने और वहां रुकने की संख्या, नियम-कानून सब कुछ कॉर्बेट प्रशासन और एनटीसीए के दिशानिर्देशों से तय होता है। परंतु ‘फिश एंगलिंग’ या महाशीर संरक्षण की गतिविधियों के लिए एनटीसीए से कोई अनुमति नहीं ली गई। जो भूमि जमेरिया, बजून, मरचूला, झड़नगु में असरदार लोगों को दी गई, वहां ‘जंगल कैम्प रिसोर्ट’ बन गए और जंगल के भीतर रुकने के लिए एक-एक कमरे का किराया हजारों रु. वसूला जाने लगा। आमतौर पर कॉर्बेट टाइगर रिजर्व को बरसात में बंद कर दिया जाता है, लेकिन ये कारोबारी बारहों महीने काम करते हैं। जिन रास्तों में बरसात में पानी भर जाता है, वहां पर्यटक हाथी से आने-जाने लगते हैं। दिलचस्प बात यह है कि ‘महाशीर संरक्षण’ के लिए जमा कराया जाने वाला शुल्क भी अनेक वर्षों से जमा नहीं करवाया गया। इस संबंध में तत्कालीन वन्यजीव प्रतिपालक एस. चंदोला ने कॉर्बेट टाइगर रिजर्व के निदेशक को 25 मार्च, 2007 को पत्र भी लिखा था। पर उत्तराखंड सरकार को इस घालमेल का पता ही नहीं चला, क्योंकि उस समय वन मंत्रालय में ही सब कुछ निबटा दिया गया।

जब सूचना का अधिकार (आरटीआई) के तहत जानकारी  मांगी गई तो इस खेल का भेद खुला। जानकारी के अनुसार 27 अप्रैल, 2007 को अनुसचिव श्याम सिंह ने जब प्रमुख वन संरक्षक को पत्र लिख कर मत्स्य आखेट से संबंधित जानकारी मांगी तब जाकर मामला खुला। लेकिन कहा जाता है कि उसी वक्त प्रभावशाली कांग्रेसी नेताओं और उनके समर्थकों ने अपनी सरकार में इस फाइल को दबवा दिया और कई सालों तक यह दबी ही रही जबकि दूसरी तरफ कॉर्बेट टाइगर रिजर्व में बाघ संरक्षण कानूनों की धज्जियां उड़ाई जाती रहीं। अब यह फाइल खुली तो पट्टे पर जमीन लेने वाले अदालत चले गए हैं। इन लोगों का कहना है कि वहां हमारी पूंजी लगी हुई है, हमें नुकसान होगा। यह भी कहा जा रहा है कि राजीव भरतरी ने अपने कार्यकाल में कॉर्बेट टाइगर रिजर्व के भीतर गिरे हुए पेड़ों की लकड़ी को वहां की इमारतों में लगाने के लिए भी एनटीसीए से अनुमति नहीं ली। संरक्षण नियम यह कहता है कि आरक्षित वन में गिरे हुए पेड़ों को भी उठाया नहीं जा सकता, उन पर पहला हक जंगल के जीव-जंतुओं का है।

माफिया के शिकंजे में अरावली

नई खोरी गांव में बनी थी अवैध बिलाल मस्जिद। अब न्यायालय के आदेश पर यह मस्जिद गिराई जा चुकी है

 
फरीदाबाद और दिल्ली की सीमा पर बसा अरावली वन क्षेत्र भी भू-माफिया की निगाहों से नहीं बचा। इन लोगों ने वन क्षेत्र की लगभग 80 एकड़ जमीन पर कब्जा कर नई खोरी के नाम से एक गांव ही बसा दिया था। हालांकि कुछ दिन पहले ही सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर खोरी गांव को तोड़ दिया गया है। यह गांव जिहादियों का अड्डा बन गया था। 15 साल पहले बसे नई खोरी गांव में लगभग 10,000 घर थे। इसके अलावा 16 मस्जिदें, आठ मदरसे और चार चर्च और कुछ मंदिर भी थे।

मस्जिदें बड़ी-बड़ी थीं। अकबरी मस्जिद का क्षेत्रफल तो लगभग एक बीघा था। गांव में एक हिस्से का नाम बंगाली कॉलोनी था। यहां लगभग 5,000 बांग्लादेशी मुस्लिम घुसपैठिए रहते थे। अब जब प्रशासन ने इनके घरों को तोड़ दिया है, पर इन घुसपैठियों को भारत से बाहर नहीं भेजा गया है। इसलिए आशंका है कि ये लोग और कहीं इसी तरह की जमीन पर बस जाएंगे। हो सकता है, इन लोगों को कुछ संगठनों के जरिए कहीं बसा भी दिया गया होगा।

नई खोरी गांव के साथ ही पुरानी खोरी गांव को भी तोड़ दिया गया है। इससे उन लोगों के लिए भारी मुसीबत खड़ी हो गई है, जिन्होंने यहां जमीन खरीदकर घर बनवाए थे। बता दें कि ’60 के दशक में कुछ भू-माफिया ने वन क्षेत्र की जमीन पर कब्जा करके उसे छोटे-छोटे भूखंडों में बांट दिया था। लोगों को लगा कि ये भूखंड वास्तव में इन्हीं के हैं। इसलिए उन लोगों ने यहां जमीन खरीदकर घर बनवा लिए। अब वे बेघर हो गए हैं। सरकार इन लोगों को दूसरी जगह बसाने का प्रयास कर रही है, लेकिन बात बन नहीं रही। अगर वन क्षेत्र पर कब्जा नहीं होता तो आज हजारों लोग बेघर नहीं होते। इसके साथ ही बांग्लादेशी घुसपैठियों को भी शरण नहीं मिलती। इसलिए इस तरह की जमीन पर कभी कब्जा नहीं होने देना चाहिए।

स्थानीय लोगों की पीड़ा

कॉर्बेट टाइगर रिजर्व बनने से पहले रामगंगा नदी पार काला खान और अन्य गांवों में स्थानीय लोगों की जमीन थी। असरदार लोगों ने इस जमीन को ओने-पौने दामों पर खरीद कर उन्हें भगा दिया। काला खान निवासी अजय भडोला बताते हैं कि कॉर्बेट प्रशासन के लोग हमें तंग करते हैं। हम लोग आज भी नौ किमी. पैदल चलकर अपने गांव पहुंचते हैं, लेकिन कैम्प वालों को जिप्सी या हाथी से आने-जाने की इजाजत है। भडोला ने यह भी बताया कि अकबर अहमद डंपी के कैम्प में हेलिकॉप्टर उतर जाता है, जबकि नियमानुसार कॉर्बेट टाइगर रिजर्व की दो किमी. परिधि में हेलिकॉप्टर नहीं उड़ाया जा सकता। प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति भी यहां हेलिकॉप्टर से नहीं आते।  

हाल ही में दिल्ली उच्च न्यायालय में अधिवक्ता गौरव कुमार द्वारा दायर एक जनहित याचिका पर अदालत ने कॉर्बेट टाइगर रिजर्व में हुए अवैध निर्माण पर एनटीसीए और उत्तराखंड के मुख्य वन्यजीव वॉर्डन को नोटिस जारी किया है और पूछा है कि बाघ संरक्षित क्षेत्रों में अवैध निर्माण कैसे हुआ? इस मामले की सुनवाई न्यायमूर्ति ज्योति सिंह और न्यायमूर्ति डीएन पटेल की खंडपीठ में चल रही है।

पचमढ़ी अभयारण्य में अरुंधति के पति ने किया था कब्जा

अरुंधति राय

जल, जमीन, जंगल और मानवाधिकारों पर आंदोलन करने  वाली ‘अर्बन नक्सल’ लेखिका अरुंधति राय वन अभयारण्य की जमीन पर कब्जा करने में पीछे नहीं हैं। उनके पति फिल्म निर्माता प्रदीप किशन सूद ने 24 मार्च, 1992 को सतपुड़ा नेशनल पार्क के पचमढ़ी वन्य जीव अभयारण्य क्षेत्र में 4000 वर्ग फुट जमीन खरीदी। यह जमीन भोपाल से पचमढ़ी के रास्ते में पचमढ़ी से ठीक पहले एक खूबसूरत कुदरती झील के किनारे ठेठ जनजातीय गांव बारीआम से सटी हुई है। इस गांव से सटे सघन जंगल में अरुंधति राय के पति तथा तीन अन्य लोगों पचमढ़ी के पूर्व डीएफओ निशिकांत जाधव, लेखक विक्रम सेठ की बहन आराधना सेठ और पचमढ़ी के पुलिस ट्रेनिंग सेंटर के डॉक्टर जगदीश चंद्र शर्मा ने बंगले बनाए। यह क्षेत्र पचमढ़ी वन्यजीव अभयारण्य का हिस्सा है और केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने इसे पर्यावरण संरक्षण कानून के तहत ईको-संवेदी क्षेत्र घोषित कर रखा है। वन्यप्राणी संरक्षण कानून के तहत इन क्षेत्रों में भूमि का मालिकाना हक उत्तराधिकारियों यानी संतान को ही दिया जा सकता है और वह इसे किसी और को बेच नहीं सकता।इस मामले में पचमढ़ी स्पेशल एरिया डेवलपमेंट अथॉरिटी (साडा) का कहना है कि प्रदीप किशन ने इस जमीन का लैंड यूज (भू-उपयोग) गलत तरीके से बदलवाया था। इस बीच वन विभाग ने भी बंगले को अभयारण्य क्षेत्र में होने के कारण अवैध करार दे दिया था। नायब तहसीलदार ने 2003 में चारों बंगलों के नामांतरण को गैर कानूनी मानते हुए उसे रद्द कर दिया। इस फैसले के खिलाफ पिपरिया एसडीएम न्यायालय में हुई अपील को नवम्बर 2010 में खारिज कर दिया गया। उसके बाद अपील संभागायुक्त के न्यायालय में की गई। 2011 में संभागायुक्त की अदालत ने पिपरिया एसडीएम कोर्ट के फैसले को बरकरार रखा। नामांतरण रद्द होने के बाद कानूनी तौर पर अरुंधति के पति की रजिस्ट्री भी अवैध घोषित हो चुकी है। अरुंधति और उनके पति बंगले की जमीन को वन के बजाय राजस्व विभाग का बताकर अपने दामन को पाक-साफ दिखाने की कोशिश करते रहे हैं।

डम्पी के विवादास्पद रिसॉर्ट में उतरे
हेलीकॉप्टर की जांच को दबाया गया

डम्पी के रिसॉर्ट में हेलिकॉप्टर

उत्तराखंड में कांग्रेस सरकार जब मार्च 2016 में अल्पमत में आ गई थी, पूर्व बसपा सांसद अकबर अहमद डम्पी के टाइगर रिजर्व से संबंधित एनटीसीए के नियमों के विरुद्ध कार्बेट रिजर्व के भीतर कालाखंड गांव में बने रिसॉर्ट में विधायकों को हेलिकॉप्टर से लाकर यहां रखा गया और ले जाया गया। यह सब तत्कालीन वन मंत्री दिनेश अग्रवाल, विधायक रंजीत रावत की आईएफएस अधिकारियों की मिली-भगत से हुआ। उस समय भी राजीव भरतरी की भूमिका पर सवाल उठे थे।
यह प्रकरण सरकार बदलने के बाद ठंडे बस्ते में क्यों पड़ा रहा? इस पर सवाल उठते रहे हैं।

एनटीसीए के संज्ञान में एक घटना और आई है। वह यह कि जब हरीश रावत की सरकार संकट में थी तो हेलिकॉप्टर के जरिए विधायकों को अकबर अहमद डंपी के ‘कैम्प रिसोर्ट’ में लाकर रखा गया और कॉर्बेट प्रशासन मौन रहा। एक तरफ उत्तराखंड में गढ़वाल से कुमाऊं को जोड़ने वाली कंडी सड़क को एनटीसीए और वन विभाग मंजूरी नहीं देता, क्योंकि यह सड़क कॉर्बेट की सीमा से होकर गुजरती है। दूसरी तरफ यहां कॉर्बेट प्रशासन और वन विभाग अपनी मनमानी करता रहा है। कंडी सड़क बन जाने से कुमाऊं से देहरादून की दूरी 100 किमी कम हो जाएगी और उत्तर प्रदेश की सड़क का इस्तेमाल भी नहीं करना पड़ेगा। खैर, जब बात निकली है तो दूर तक जाएगी, इसमें कोई संदेह नहीं है। 

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