केंद्र के कृषि सुधारों के खिलाफ एक साल तक किसान संगठनों ने धरना-प्रदर्शन किया। लेकिन इस कथित किसान आंदोलन के पीछे जो राजनीतिक मंशा थी, वह अब सामने आ गई है। दरअसल, कथित किसान आंदोलन में शामिल 37 में से 25 किसान संगठनों ने संयुक्त समाज मोर्चा बना कर पंजाब में विधानसभा चुनाव लड़ने की घोषणा की है। मोर्चा ने किसान नेता बलबीर सिंह राजोवाल को मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित किया है। शेष संगठनों ने इसका विरोध किया है। इससे सबसे बड़ा झटका उन राजनीतिक दलों को लगा है, जो किसानों के नाम पर राजनीति कर रहे थे। किसान संगठनों के इस फैसले से वे दंग हैं।
पंजाब के राजनीतिक रण में अब तक कांग्रेस और शिरोमणि अकाली दल-भाजपा गठजोड़ आमने-सामने की लड़ाई लड़ते रहे थे। लेकिन पिछले विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी ने इसे त्रिकोणीय बना दिया। इस बार शिअद और भाजपा के रिश्ते में दरार के बीच कैप्टन अमरिंदर सिंह द्वारा पार्टी बनाकर चुनाव मैदान में भाजपा के साथ उतरने की घोषणा के बाद लड़ाई चतुष्कोणीय होती दिख रही थी, लेकिन किसान संगठनों ने शनिवार को चुनाव मैदान में उतरने की घोषणा कर इसमें पांचवां कोण बनने की कोशिश की है।
निश्चित रूप से तीन कृषि कानूनों को लेकर चले कथित आंदोलन में सभी किसान संगठन एक मंच पर आए और कुछ हद तक सहानुभूति भी उनके साथ रही है, लेकिन राजनीतिक रूप से विभिन्न विचारधाराओं में बंटे किसान संगठन क्या चुनावी राजनीति में भी लोगों की वही सहानुभूति प्राप्त कर पाएंगे या उनका हाल भी पंजाब के वर्तमान वित्त मंत्री सरदार मनप्रीत बादल की पंजाब पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) जैसा होगा। इस सवाल का उत्तर अभी भविष्य के गर्भ में है, लेकिन एक बात तो निश्चित है कि किसानों के चुनावी मैदान में आने से कई समीकरण बदलेंगे।
किसानों के मैदान में उतरने से उनके हितैषी कहे जाने वाले अकाली दल (बादल), कांग्रेस व आम आदमी पार्टी की राजनीतिक उम्मीदों को झटका लगा है। शिरोमिण अकाली दल-बसपा गठजोड़, आम आदमी पार्टी और कांग्रेस तीनों को ही ग्रामीण सीटों पर नुकसान होगा। भाजपा का तो पहले से ही ग्रामीण वर्ग में कोई आधार नहीं है, इसलिए उसका ज्यादा नुकसान नहीं होगा। उसका मुख्य वोट बैंक शहरों में ही माना जाता है। अकाली दल (बादल) के साथ गठबंधन कर वह अपने हिस्से की 23 शहरी सीटों पर ही चुनाव लड़ती आई है। जाहिर है कि किसानों नेताओं के मैदान में उतरने से भाजपा को कोई नुकसान नहीं होने वाला है, बल्कि भाजपा विरोधी मतों की बंदरबांट बढ़ने उसे लाभ हो सकता है।
किसान संगठनों के चुनाव में उतरने से शिअद के वोट बैंक में बड़ी सेंध लग सकती है। जट्ट सिख किसान वोट बैंक में सबसे बड़ा आधार शिअद का है, लेकिन उनके मतदाता पंथक तौर पर भी पार्टी से जुड़े हैं। जट्ट सिखों के सामने सबसे बड़ा सवाल यह खड़ा होने वाला है कि वे पंथक पार्टी के पास जाएं या किसान मोर्चे की ओर। लेकिन देखने में आ रहा है कि अकाली नेता किसान संगठनों के चुनाव लड़ने के इरादों को पहले ही भांप कर अपनी लड़ाई पंथक बना रहा है। यदि वह इस वोट बैंक को अपनी ओर लाने में कामयाब नहीं हुए तो सबसे बड़ा नुकसान उन्हीं को होने वाला है।
पंजाब में कांग्रेस का भी ग्रामीण क्षेत्र में अच्छा आधार है। गांवों की धड़ेबंदी के चलते उन्हें अच्छा खासा वोट बैंक यहां से मिलता है। पांच एकड़ तक की जोत वाले किसानों का दो लाख रुपये तक कर्ज माफ करके वह इस वोट बैंक को हासिल करने की आस लगाए बैठी है। पिछले चुनाव में आदमी पार्टी को किसानों का अच्छा खासा वोट मिला था, लेकिन पार्टी अपने वायदों पर पूरी नहीं उतर सकी और 20 में से 11 विधायक या तो पार्टी को छोड़ गए या राजनीति से ही बाहर हो गए। पार्टी के पास ग्रामीण क्षेत्र में वैचारिक काडर भी नहीं है। किसानों का मोर्चा आआपा को भी सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचा सकता है।
एक बात तो साफ है कि किसानों का मोर्चा बनने से पंजाब में राजनीतिक समीकरण अब एक बार फिर से बदलेंगे। किसानों के मैदान में उतरने के बाद पंजाब का चुनावी रण दिलचस्प होता दिख रहा है।
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