#न्यायपालिका : न्याय को चाहिए नया नजरिया

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अनूप भटनागर

इस संविधान दिवस पर राष्ट्रपति द्वारा न्यायपालिका की स्वतंत्रता और सम्मान के लिए दिए गए परामर्श पर गंभीरता से विचार की आवश्यकता, न्यायाधीशों को टिप्पणियों में नीयत अच्छी होने पर भी अत्यधिक विवेक का प्रयोग करने की सलाह, अनावश्यक टिप्पणियों से संदिग्ध व्याख्या का होता है जन्म, न्यायाधीशों के चयन के लिए श्रेष्ठतर विधि तलाशना जरूरी

ऐसा प्रतीत होता है कि देश की कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच रिश्ते सहज नहीं हैं। इसका संकेत संविधान दिवस के अवसर पर राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद द्वारा दिए गए संबोधन से मिलता है। राष्ट्रपति कोविंद ने बगैर किसी ‘किंतु-परंतु’ के स्पष्ट शब्दों में कहा कि न्यायपालिका को मुकदमों की सुनवाई के दौरान अविवेकपूर्ण टिप्पणियों से बचना चाहिए, भले ही इनके पीछे अच्छी मंशा ही क्यों न हो।

देश में न्यायिक सक्रियता भी लंबे समय से चर्चा का केन्द्र बनी है। इसे लेकर तरह-तरह की टीका-टिप्पणियां सुनने को मिलती हैं। कई बार तो न्यायपालिका और न्यायाधीशों पर भी आपत्तिजनक टिप्पणियां सोशल मीडिया पर नजर आती हैं।

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न्यायाधीशों की नियुक्तियों की मौजूदा विवादित व्यवस्था के स्थान पर नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली राजग सरकार ने 2015 में संविधान में संशोधन कर राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग कानून बनाया था। लेकिन शीर्ष अदालत की संविधान पीठ ने 16 अक्टूबर, 2015 को बहुमत के निर्णय से इसे असंवैधानिक करार देते हुए निरस्त कर दिया था।
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संभवत: इसी परिप्रेक्ष्य में राष्ट्रपति ने यह कहने में संकोच नहीं किया बल्कि यह स्मरण कराया कि ‘भारतीय परंपरा में न्यायाधीशों की कल्पना स्थितप्रज्ञ के समान शुद्ध और तटस्थ आदर्श के रूप में की जाती है।’

यही नहीं, राष्ट्रपति ने उच्च न्यायपालिका में न्यायाधीशों द्वारा ही न्यायाधीशों की नियुक्ति की व्यवस्था पर भी अप्रत्यक्ष रूप से सवाल उठाने में संकोच नहीं किया।

राष्ट्रपति का दृढ़ विचार है कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता के साथ कोई समझौता नहीं किया जा सकता, लेकिन कुछ क्षण बाद ही उन्होंने कहा कि इसे थोड़ा कम किए बिना ही क्या उच्च न्यायपालिका के लिए न्यायाधीशों का चयन करने का एक बेहतर तरीका खोजा जा सकता है?'
कोविंद ने कहा, ‘‘उदाहरण के लिए एक अखिल भारतीय न्यायिक सेवा हो सकती है, जो निचले स्तर से उच्च स्तर तक सही प्रतिभा का चयन कर सकती है और इसे आगे बढ़ा सकती है।’’

विषय से इतर तल्ख अदालती टिप्पणियां
मुकदमों की सुनवाई के दौरान विषय से इतर न्यायाधीशों की आहत करने वाली टिप्पणियां और न्यायाधीशों की नियुक्ति पर न्यायपालिका का एकाधिकार लंबे समय से विवाद का केन्द्र है। इस तरह के विवादों के परिप्रेक्ष्य में अक्सर कहा जाता है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था के स्तंभों को अपनी लक्ष्मण रेखा का ध्यान रखना चाहिए और इसे लांघना नहीं चाहिए।

संविधान दिवस के अवसर पर कार्यक्रम में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के साथ मुख्य न्यायाधीश एनवी रमण । (फाइल फोटो)

उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की विषय से इतर तल्ख टिप्पणियों से विचलित मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार ने 2010 में न्यायिक मानक और जवाबदेही कानून बनाने का प्रयास किया था। इस संबंध में लोकसभा ने 29 मार्च, 2012 को एक विधेयक पारित किया था। लेकिन लोकसभा भंग हो जाने की वजह से इसे राज्यसभा में पेश नहीं किया जा सका था।

संसद में पारित, अदालत में निरस्त
इसी तरह, न्यायाधीशों की नियुक्तियों की मौजूदा विवादित व्यवस्था के स्थान पर नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली राजग सरकार ने 2015 में संविधान में संशोधन कर राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग कानून बनाया था। लेकिन शीर्ष अदालत की संविधान पीठ ने 16 अक्तूबर, 2015 को बहुमत के निर्णय से इसे असंवैधानिक करार देते हुए निरस्त कर दिया था। जबकि अल्पमत के फैसले में न्यायमूर्ति जे. चेलमेश्वर ने इस कानून को सही ठहराया था। उन्होंने अपने फैसले में कॉलेजियम प्रणाली और इसकी कार्यशैली पर सवाल उठाते हुए संकेत दिया था कि यह दोषरहित नहीं है। दिलचस्प तथ्य यह है कि न्यायमूर्ति चेलमेश्वर भी कॉलेजियम के सदस्य रह चुके हैं।

पूर्व राष्ट्रपति ने भी किया था सचेत
यह पहला अवसर नहीं था जब किसी राष्ट्रपति ने हाल के वर्षों में सार्वजनिक रूप से न्यायपालिका को उसकी जिम्मेदारियों और इस तरह की टिप्पणियों के प्रति आगाह किया। करीब पांच साल पहले तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भी न्यायपालिका को कुछ इसी तरह की हिदायतें दी थीं।

न्यायाधीशों की चयन प्रक्रिया पर खींचतान

न्यायाधीशों के चयन और नियुक्ति तथा स्थानांतरण का मुद्दा लंबे समय से चर्चा का केन्द्र बना हुआ है। वर्तमान व्यवस्था के अंतर्गत यह जिम्मेदारी न्यायपालिका निभा रही है और उच्चतम न्यायालय की कॉलेजियम से न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए मिलने वाली सिफारिशों पर कार्यपालिका औपचारिकताएं पूरी करने के बाद नियुक्तियों को अधिसूचित करती है।
देश की आजादी के बाद न्यायाधीश पद के लिए नामों के चयन, नियुक्ति और पदोन्नति की कमान कार्यपालिका के हाथ में थी लेकिन वह भी निर्विवाद नहीं थी। उस दौरान भी इन नियुक्तियों और तबादलों के मामले में राजनीतिक हस्तक्षेप के आरोप लगते थे। इन्हीं आरोपों के कारण यह मामला उच्चतम न्यायालय पहुंचा था।
पहले न्यायाधीशों की नियुक्तियों में पारदर्शिता के अभाव और भाई-भतीजावाद के आरोप दबी जुबान में लगते थे लेकिन मौजूदा दौर में यह सार्वजनिक चर्चा का विषय है। बार-बार कहा जाता है कि भारत वर्ष ऐसा देश है जहां न्यायाधीश ही न्यायाधीशों का चयन करते हैं।
हालांकि, उम्मीद थी कि 1982 और 1993 की न्यायिक व्यवस्थाओं और इसके बाद संविधान पीठ द्वारा अक्तूबर, 1998 में राष्ट्रपति को दी गई सलाह के बाद पारदर्शिता के अभाव और भाई-भतीजावाद जैसे आरोपों पर अंकुश लग सकेगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले को पूरी तरह से न्यायपालिका के हाथ में जाने के बावजूद भी वह भाई-भतीजावाद और पारदर्शिता के अभाव के आरोपों से खुद को बचा नहीं सकी। इस तरह की स्थिति के परिप्रेक्ष्य में विधि आयोग ने नवंबर,  2008 में अपनी 214वीं रिपोर्ट में उच्चतर न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया में बदलाव की सिफारिश की थी।
विधि आयोग की सिफारिश के बाद केन्द्र सरकार ने कई बार इस संबंध में संविधान संशोधन करके कानून बनाने का प्रयास किया लेकिन उसे कभी सफलता नहीं मिल सकी थी।
अंतत: 2015 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली राजग सरकार ने न्यायाधीशों के चयन और नियुक्ति की प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने के इरादे से संविधान संशोधन करके राष्ट्रीय न्यायिक आयोग कानून बनाया जिसे संविधान पीठ ने बहुमत के फैसले से निरस्त कर दिया।
उच्चतर न्यायपालिका में हाल के वर्षों में महिला न्यायाधीशों की संख्या बढ़ी है। इस समय शीर्ष अदालत में चार महिला न्यायाधीश हैं जिनमें से एक न्यायाधीश के भविष्य में देश का मुख्य न्यायाधीश बनने की संभावना है।
लेकिन यह भी सच है कि न्यायाधीश पद पर चयन और पदोन्नति के मामले में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़े वर्ग, अल्पसंख्यकों और महिलाओं के लिए आरक्षण की व्यवस्था नहीं है। मगर कार्यपालिका यही अपेक्षा करती है कि कॉलेजियम इन वर्गों को प्रतिनिधित्व देने पर विचार करेगी लेकिन ऐसा लगता है कि इन वर्गों को समुचित प्रतिनिधित्व देने की मांग को नजरअंदाज किया जाता रहा है। हालांकि, केन्द्र सरकार ने हाल ही में एक बार फिर कॉलेजियम का ध्यान इस ओर आकर्षित किया है।

राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने अप्रैल 2016 में भोपाल में राष्ट्रीय न्यायिक अकादमी के कार्यक्रम में ‘न्यायिक सक्रियता’ के जोखिमों के प्रति न्यायपालिका को सचेत किया था। तत्कालीन राष्ट्रपति ने कहा था कि अपने अधिकारों का इस्तेमाल करते समय सामंजस्य कायम करना चाहिए और समय आने पर आत्मसंयम का परिचय देना चाहिए।

यही नहीं, श्री मुखर्जी ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि लोकतंत्र के प्रत्येक अंग को अपने दायरे में रहकर काम करना चाहिए।
कमोबेश, इस साल संविधान दिवस के अवसर पर राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने भी उच्चतम न्यायालय के एक समारोह में इसी तरह के विचार व्यक्त किये।

तल्ख टिप्पणियों से संदिग्ध व्याख्याओं का जन्म
राष्ट्रपति कोविंद का यह कहना कि अच्छे इरादे से की गई न्यायाधीशों की तल्ख टिप्पणियां कई बार न्यायपालिका का महत्व कम करने वाली संदिग्ध व्याख्याओं को जन्म देती है, अत: न्यायाधीशों को अदालत के कक्षों में अपनी बात कहते समय अत्यधिक विवेक का प्रयोग करना चाहिए। न्यायपालिका के लिए यह राष्ट्रपति का कम शब्दों में एक बड़ा संदेश है। उम्मीद की जानी चाहिए कि उनकी इस राय पर ध्यान दिया जाएगा।

 


राष्ट्रपति का कहना था कि इसके बाद भी बहस जारी है और लंबित मामलों की संख्या भी बढ़ती जा रही है। अंतत: शिकायत करने वाले नागरिकों और संगठनों को ही इसका खामियाजा भुगतना पड़ता है। इसलिए न्याय की गति तेज करने के लिए इसमें सुधार की आवश्यकता है। एक अनुमान के अनुसार इस समय न्यायपालिका में चार करोड़ 60 लाख से ज्यादा मुकदमे लंबित हैं। इनमें अकेले निचली अदालतों में ही चार करोड़ से ज्यादा मुकदमे लटके हैं।


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ऐसा नहीं है कि राष्ट्रपति न्यायपालिका के सदस्यों की गरिमा के प्रति अनभिज्ञ थे। न्यायपालिका के सदस्यों की गरिमा की रक्षा को ध्यान में रखते हुए ही उन्होंने सोशल मीडिया पर न्यायाधीशों के बारे में होने वाली टिप्पणियों पर अप्रसन्नता भी व्यक्त की और उम्मीद जताई कि यह भटकाव अल्पकालिक रहेगा।
वर्तमान सूचना क्रांति के दौरान अक्सर देखा जा रहा है कि अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर सोशल मीडिया पर न्यायपालिका और न्यायाधीशों के बारे में अनर्गल टिप्पणियां की जाती हैं। कुछ मामलों में न्यायपालिका ने इनका संज्ञान लेकर कार्रवाई भी शुरू की है जो निश्चित ही एक सराहनीय कदम है।

लंबित मुकदमों का अंबार
अदालतों में बड़ी संख्या में मुकदमे लंबित होने की वजह से जनता को मिलने वाले न्याय पर भी राष्ट्रपति ने अपनी राय व्यक्त की। उन्होंने कहा कि अब वक्त आ गया है कि सभी हितधारक राष्ट्रीय हित को सबसे ऊपर रखकर कोई समाधान निकालें। उन्होंने कहा कि वे जानते हैं कि इस बारे में उचित सुझाव दिए गए हैं।

राष्ट्रपति का कहना था कि इसके बाद भी बहस जारी है और लंबित मामलों की संख्या भी बढ़ती जा रही है। अंतत: शिकायत करने वाले नागरिकों और संगठनों को ही इसका खामियाजा भुगतना पड़ता है। इसलिए न्याय की गति तेज करने के लिए इसमें सुधार की आवश्यकता है। एक अनुमान के अनुसार इस समय न्यायपालिका में चार करोड़ 60 लाख से ज्यादा मुकदमे लंबित हैं। इनमें अकेले निचली अदालतों में ही चार करोड़ से ज्यादा मुकदमे लटके हैं।

न्यायपालिका की समस्याएं
इस अवसर पर मुख्य न्यायाधीश एन.वी. रमण ने भी न्यायपालिका की समस्याओं को उजागर किया। न्यायमूर्ति रमण ने कहा कि विधायिका कानून बनाते समय इसके प्रभाव का आकलन नहीं करती जो कभी-कभी बड़े मुद्दे की ओर ले जाते हैं और परिणामस्वरूप न्यायपालिका पर मामलों का बोझ बढ़ जाता है। इस संबंध में उन्होंने चेक बाउंस से संबंधित परक्राम्य लिखत कानून की धारा 138 का विशेष रूप से उल्लेख किया। इस कानून के कारण मजिस्ट्रेटों की अदालतों में मुकदमों का बोझ बढ़ गया।

नीयत लक्ष्मण रेखा लांघने की नहीं
यही नहीं, मुख्य न्यायाधीश ने संविधान दिवस के अवसर पर स्पष्ट किया कि न्यायपालिका की मंशा कभी भी लोकतंत्र के स्तंभों के लिए निर्धारित लक्ष्मण रेखा लांघने की नहीं रही है।

न्यायमूर्ति रमण दृढ़ता के साथ कहते हैं कि न्यायपालिका की मंशा कभी भी कार्यपालिका की भूमिका हथियाने की नहीं रही। अगर ऐसी किसी धारणा को बल दिया जा रहा है तो यह पूरी तरह गलत है और अगर इसे प्रोत्साहित किया गया तो यह लोकतंत्र के लिए हानिकारक साबित होगी।

न्यायमूर्ति रमण ने कहा कि कई बार कार्यपालिका की उदासीनता की वजह से न्यायपालिका कुछ मामलों में अपने दायरे से बाहर निकलने के लिए बाध्य हो जाती है और ऐसा करने के पीछे उसका मकसद कार्यपालिका को उसकी जिम्मेदारियों के प्रति आगाह करना होता है, न कि उसकी भूमिका को हथियाना। उसका इरादा कार्यपालिका को चेताने के लिए होता है, न कि उसकी भूमिका को हथियाने के लिए। देश की सर्वोच्च अदालत पहले भी कह चुकी है कि उसे अपनी लक्ष्मण रेखा की जानकारी है और वह विधायिका के अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं कर सकती। किसी भी मामले में न्यायिक हस्तक्षेप को इस तरह पेश करना उचित नहीं है कि न्यायपालिका दूसरी संस्था को निशाना बना रही है। 
 

न्यायपालिका के विरुद्ध सोशल मीडिया का दुरुपयोग

संविधान दिवस के अवसर पर राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता बनाए रखने पर जोर देने के साथ ही सोशल मीडिया पर न्यायाधीशों के बारे में होने वाली अनर्गल और अपमानजनक टिप्पणियों पर भी अप्रसन्नता व्यक्त की थी। चिंताजनक बात यह है कि न्यायपालिका और न्यायाधीशों के बारे में कथित आपत्तिजनक या अपमानजनक टिप्पणियां पोस्ट करने वालों में आम नागरिक ही नहीं, बल्कि न्यायपालिका से संबंधित लोग भी शामिल हैं।
राष्ट्रपति ने कहा था, ‘‘सोशल मीडिया के मंचों ने सूचनाओं को लोकतांत्रिक बनाने के लिए अद्भुत काम किया है, फिर भी उनका एक स्याह पक्ष भी है, इनके द्वारा दी गई नाम उजागर नहीं करने की सुविधा का कुछ शरारती तत्व फायदा उठाते हैं। यह पथ से एक भटकाव है और मुझे उम्मीद है कि यह अल्पकालिक होगा।
इस संदर्भ में सोशल मीडिया और न्यायपालिका से संबंधित कुछ घटनाओं का जिक्र अनुचित नहीं होगा, क्योंकि ऐसा लगता है कि संविधान में प्रदत्त अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार के नाम पर उच्चतर न्यायपालिका के सदस्यों पर अनर्गल आरोप लगाना अब फैशन बनता जा रहा है।
सोशल मीडिया पर न्यायपालिका के संदर्भ में चलने वाले कुत्सित अभियान को अब स्वतंत्र और निर्भीक न्यायपालिका की रक्षा करने के बजाय उसे डराने-धमकाने की कवायद के रूप में भी देखा जाने लगा है। न्यायालय ने अपने कई फैसलों में इस प्रवृत्ति का जिक्र किया है। सोशल मीडिया के इस युग में देखा जा रहा है कि कदाचार और भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच के लिए निर्धारित विधिसम्मत प्रक्रिया का पालन करने की बजाय न्यायपालिका की निष्पक्षता पर सवाल उठाते हुए किसी न्यायाधीश का नाम लिए बगैर सोशल मीडिया पर अनर्गल आरोप लगाए जा रहे हैं।
न्यायपालिका और इसके सदस्यों के बारे में अक्सर ही सोशल मीडिया पर तरह-तरह की टिप्पणियां होती रहती हैं लेकिन न्यायालय ने पहले कभी इसे महत्व नहीं दिया। इस संदर्भ में उच्चतम न्यायालय के चार वरिष्ठ न्यायाधीशों की 12 जनवरी, 2018 की प्रेस कॉन्फ्रेंस के बाद तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्र की कार्यशैली और मुकदमों के आवंटन को लेकर सोशल मीडिया में की गई टिप्पणियां किसी से भी छिपी नहीं हैं।
हमेशा ही राजनीति से दूरी बनाकर रखने वाले न्यायाधीशों की इस प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान न्यायाधीश के आवास पर कम्युनिस्ट पार्टी के वरिष्ठ नेता डी. राजा और कुछ एक्टिविस्ट भी नजर आए थे। लेकिन अब ऐसा लगता है कि इन अनर्गल टिप्पणियों पर अंकुश लगाने के लिए न्यायपालिका ने भी सख्त रुख अपनाना शुरू कर दिया है। आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों से संबंधित घटनाक्रम इसी ओर संकेत देता है।
ऐसे ही एक मामले में आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने वाईएसआर कांग्रेस के एक सांसद और कई नेताओं के खिलाफ अवमानना की कार्रवाई भी शुरू की गई थी।
मामले की गंभीरता को देखते हुए उच्च न्यायालय ने यह मामला सीबीआई को सौंपा था। जांच एजेंसी ने अक्तूबर 2020 में इसे अपने हाथ में लिया और पहली प्राथमिकी 11 नवंबर, 2020 को 16 आरोपियों के खिलाफ दर्ज की थी।

आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने न्यायाधीशों के खिलाफ अपमानजनक टिप्पणियां कथित रूप से सोशल मीडिया पर पोस्ट करने से संबंधित मामले में पांच दिसंबर को पांच आरोपियों को जमानत देने से इनकार कर दिया।

इस मामले में न्यायमूर्ति डी. रमेश ने अपने फैसले में कहा कि उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के खिलाफ सोशल मीडिया पर पोस्ट एक साजिश नजर आती है। अप्रैल 2020 से ही इस तरह की गतिविधियों पर कोई विराम नहीं है।

न्यायाधीश ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि न्यायाधीशों के खिलाफ इस तरह की टिप्पणियां और कुछ नहीं बल्कि जनता की नजरों में अदालतों की प्रतिष्ठा कम करना है।

इससे पहले, सोशल मीडिया पर शीर्ष अदालत के एक फैसले पर असहमति में तीखी टिप्पणियां करने वाले उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश मार्कण्डेय काटजू को भी न्यायपालिका की नाराजगी का सामना करना पड़ा था। हालांकि शीर्ष अदालत ने जनवरी, 2017 में न्यायमूर्ति काटजू की क्षमा याचना स्वीकार करते हुए उनसे संबंधित मामले को बंद कर दिया था।

सेवानिवृत्त न्यायाधीश सीएस कर्णन को शायद कोई भूला नहीं होगा। सेवानिवृत्ति के बाद उन्होंने न्यायिक अधिकारियों और उनके परिवार के सदस्यों के खिलाफ यौन हिंसा की धमकी देने के साथ ही सोशल मीडिया पर आपत्तिजनक वीडियो और पोस्ट जारी किये थे। इस मामले में न्यायालय ने कर्णन को दोषी पाया।

न्यायमूर्ति कर्णन वही न्यायाधीश हैं जिन्हें उच्चतम न्यायालय ने मई, 2017 में अवमानना का दोषी ठहराते हुए छह महीने की सजा सुनाई थी। उन्हें सेवानिवृत्त होने के बाद पिछले साल 21 जून को कोयंबतूर से गिरफ्तार करके जेल भेजा गया था।

अधिवक्ता और एक्टिविस्ट प्रशांत भूषण भी इसी श्रेणी में आते हैं। शीर्ष अदालत ने भूषण को फरवरी, 2019 में किए गए ट्वीट को लेकर उनके खिलाफ कार्रवाई की थी। हालांकि, प्रशांत भूषण ने इस मामले में बिना शर्त माफी मांगने से इनकार करते हुए स्वीकार किया था कि वास्तव में गलती हो गई थी। इसके बाद भी न्यायालय ने उन्हें अवमानना का दोषी ठहराते हुए एक रुपया जुर्माने की सजा सुनाई थी।

ये कुछ घटनाएं इस बात का संकेत हैं कि न्यायपालिका और न्यायाधीशों सहित किसी भी प्रतिष्ठित संस्था और व्यक्तियों की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचाने के लिए सोशल मीडिया जैसे मंच का दुरुपयोग हो रहा है। इस तरह के दुरुपयोग के प्रति जताई गई राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की चिंता उचित है और उम्मीद है कि इस प्रवृत्ति पर अंकुश पा लिया जाएगा।

 

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