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होम भारत

राष्ट्रीयता व हिंदुत्व की प्रतिमूर्ति पंडित मदन मोहन मालवीय

Punam Negi by Punam Negi
Dec 25, 2021, 12:48 pm IST
in भारत, दिल्ली
पंडित मदन मोहन मालवीय

पंडित मदन मोहन मालवीय

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मालवीय जी के हृदय में देशवासियों के प्रति अपार स्नेह व दीन-दुखियों के लिए करुणा कूट-कूट कर भरी थी। एक बार वे शाम के समय प्रयाग में घूम रहे थे। रास्ते में उन्हें पीड़ा से कराहती एक वृद्ध भिखारिन दिखी। उसके पास जाकर उन्होंने पूछा, "आपको क्या कष्ट है माताजी?" इन अपनत्व भरे शब्दों को सुन भिखारिन रोने लगी। उसने बताया कि शरीर में जगह -जगह घाव  हो जाने के कारण परिवार वालों ने उसे त्याग दिया है।"

  पूनम नेगी 

देश की भावी पीढ़ी को आधुनिक शिक्षा के साथ सनातन जीवन मूल्यों की आध्यात्मिक विद्या देने के पक्षधर महामना पंडित मदन मोहन मालवीय राष्ट्रीयता व हिन्दुत्व की साक्षात प्रतिमूर्ति थे। 25 दिसम्बर 1861 को प्रयाग के प्रख्यात भागवत कथाकार पंडित ब्रजनाथ जी के घर जन्मी भारत की इस महान विभूति का समूचा जीवन देशवासियों के हितचिंतन एवं देश की उन्नति में बीता। उनकी स्पष्ट मान्यता थी कि देश के सुशिक्षित व संस्कारी युवा ही उज्ज्वल राष्ट्र का निर्माण कर सकते हैं। दैनिक "लीडर" के प्रधान संपादक सी.वाई. चिंतामणि ने एक बार लिखा था, "महात्मा गांधी के मुकाबले में अगर कोई व्यक्ति खड़ा किया जा सकता है तो वह हैं मालवीय जी। उनके व्यक्तित्व में एक अनोखा आकर्षण था और उनकी वाणी में इतनी मिठास, लेकिन इतनी शक्ति थी कि असंख्य लोग स्वतः ही उनकी ओर खिंचे चले आते थे। उनकी वाणी का लोगों के मन पर स्थायी प्रभाव पड़ता था। उन्होंने अपने लंबे कर्तव्य परायण जीवन के द्वारा यह उदाहरण प्रस्तुत किया कि समाज और देश की सेवा में कभी भी विश्राम करने की गुंजाइश नहीं है।"  

उस समय भारत पर अंग्रेजों का शासन था और अंग्रेजी विद्यालयों में हिन्दू धर्म और भारतीय संस्कृति के विरोध में बहुत दुष्प्रचार होता था। देश की दुर्दशा और अंग्रेजों के अत्याचार देख बालक मदन मोहन का मन पीड़ा से भर जाता था। अंग्रेजों के इन अत्याचारों का विरोध करने के लिए उन्होंने किशोरवय में ही अपने कुछ साथियों के मदद से 'वाग्वर्धिनी सभा' की स्थापना कर जगह-जगह भाषण देकर हिन्दू धर्म और भारतीय संस्कृति के विरुद्ध किये जाने वाले अंग्रेजों के षड्यंत्रों का मुखर विरोध शुरू कर दिया था। प्रारंभिक शिक्षा के बाद प्रयाग के म्योर सेंट्रल कॉलेज में उन्होंने पंडित आदित्यराम भट्टाचार्य से संस्कृत की शिक्षा लेकर वैदिक साहित्य का अध्ययन किया। उसी दौरान मालवीय जी द्वारा लिखित व मंचित 'जेंटलमैन' नामक  नाटक कॉलेज में खासा लोकप्रिय हुआ जिसमें अंग्रेजी सभ्यता की थोथी मान्यताओं की खूब खिल्ली उड़ायी गयी थी।  शिक्षा पूरी कर वे अध्यापन करने लगे। उनकी शिक्षण शैली इतनी सुरुचिपूर्ण थी कि छात्रों को उनका पढ़ाया पाठ एक ही बार में पूरी तरह समझ आ जाता था। अध्यापन काल में ही उनकी सामाजिक रुचियों का दायरा प्रयाग से निकलकर देश के विभिन्न नगरों तक फैलने लगा। उसी दौरान सन 1886 में कलकत्ता में होने कांग्रेस के दूसरे अधिवेशन में मालवीय जी अपने गुरु पं. आदित्यराम भट्टाचार्य के साथ शामिल हुए। यह अधिवेशन मालवीय जी के वास्तविक राजनीतिक जीवन का शुभारम्भ था। उस अधिवेशन में उनके ओजस्वी भाषण को सुनकर वहां उपस्थित सभी लोग मालवीय जी से बहुत प्रभावित हुए। 

मालवीय जी के विचारों से कालाकांकर राजा रामपाल सिंह इतने प्रभावित हुए की उन्होंने मालवीय जी को 'हिंदुस्तान' पत्र का संपादक बना दिया। जहां उनके व्यक्तित्व का एक विराट पक्ष उभरकर सामने आया। मालवीय जी के संपादन में 'हिंदुस्तान' ने बड़ी ख्याति अर्जित की। मालवीय जी ने ढाई वर्ष तक 'हिंदुस्तान' का संपादन किया और पत्र को एक सामाजिक दर्जा दिलवाने में सफलता प्राप्त की। सन 1889 में उन्होंने अंग्रेजी पत्र 'इंडियन ओपेनियन' के संपादन का कार्य किया। संपादन के साथ-साथ मालवीय जी देश की सामाजिक समस्याओं को दूर करने के बारे में भी सोचते थे। मित्रों के आग्रह पर मालवीय जी ने देशसेवा के लिए प्रयाग उच्च न्यायालय में वकालत भी की और कुछ दिनों में ही कई पेचीदे मुकदमे जीतकर सभी को हतप्रभ कर दिया। अत्यंत कुशाग्र होने के साथ-साथ परम विवेकी भी थे। वे अपने तर्कों को इतने प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करते कि विरोधी पक्ष के वकील को उसके खंडन की कोई युक्ति नहीं मिलती थी। देखते देखते वे देश के उच्चकोटि के वकीलों में गिने जाने लगे। वकालत के साथ ही अपने विचारों को जनमानस तक पहुंचाने के लिए उन्होंने 'अभ्युदय' का प्रकाशन भी किया। इस पत्र के माध्यम से वे जनमानस को अवगत कराते थे कि शिक्षा और सुधार कार्यों के नाम पर अंग्रेज अधिकारी हिन्दू धर्म के मूल सिद्धांतों पर प्रहार कर ज्यादा से ज्यादा हिन्दुओं को धर्म परिवर्तन का प्रलोभन देते हैं। अपने धर्म का यह अपमान करना उन्हें सहन नहीं था। कालांतर में अपने इन्हीं विचारों के कार्यरूप में परिणत करते हुए जनसहयोग से काशी हिन्दू विश्वविधालय की आधारशिला 4 फरवरी, 1916 को वसंत पंचमी के दिन रखी।      

शिक्षा के अलावा मालवीय जी का सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान 'शर्तबंद कुली प्रथा' के निवारण का था। इस प्रणाली को समाप्त करने के लिए दिए गए अपने भाषण में उन्होंने कहा था -"इस प्रणाली ने पिछले कई सालों से समाज का शोषण किया है। हमारे कितने ही भाई-बहन इस विनाशकारी प्रणाली के शिकार बने और कितने शारीरिक व मानसिक यातना भुगत रहे हैं। अब समय आ गया है कि इस प्रणाली को समाप्त कर देना चाहिए।" मालवीय जी का प्रयास सफल रहा और वायसरॉय लोर्ड हार्डिंग ने इस प्रणाली को समाप्त करने घोषणा कर दी। इसी तरह सन 1919 में अंग्रेजी सरकार द्वारा पारित रोलट एक्ट जिसमें भारतीयों की मानवीय अस्मिता का मखौल उड़ाया गया था, का मुखर विरोध करते हुए गांधीजी के आलावा साथ मालवीय जी ने भी विधान परिषद् में अत्यंत उत्तेजित भाषण दिया था , जिसके कारण ब्रिटिश सरकार को यह काला कानून भी वापस लेना पड़ा था।     

मालवीयजी के हृदय में देशवासियों के प्रति अपार स्नेह व दीन-दुखियों के लिए करुणा कूट-कूट कर भरी थी। एक बार वे शाम के समय प्रयाग में घूम रहे थे। रास्ते में उन्हें पीड़ा से कराहती एक वृद्ध भिखारिन दिखी। उसके पास जाकर उन्होंने पूछा, "आपको क्या कष्ट है माताजी?" इन अपनत्व भरे शब्दों को सुन भिखारिन रोने लगी। उसने बताया कि शरीर में जगह -जगह घाव  हो जाने के कारण परिवार वालों ने उसे त्याग दिया है।" मालवीय जी को भिखारिन के पास खड़े देख वहां भीड़ जुटने लगी और कई लोग भिखारिन के कटोरे में सिक्के डालने लगे। इस पर मालवीय जी ने कहा, "मित्रों! इन्हें धन की नहीं, चिकित्सा की आवश्यकता है। यह हमारे देश का दुर्भाग्य है कि हमारे बुजुर्ग इस तरह त्याग दिए जाते हैं।" मालवीय जी ने उस वृद्धा को तांगे पर बिठाया और अस्पताल ले जाकर उसका इलाज करवाया। जीवन भर देशसेवा में जुटा रहने वाला मानवता का यह पुजारी 12 नवम्बर 1946 में परम तत्व में विलीन हो गया। 

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