बौद्धिक दासता की वजह से अपने समय में चेतनाहीन हुई वैदिक संस्कृति को पुनः प्राणवान बनाने वाले स्वामी श्रद्धानंद की गणना मां भारती के महान सपूतों में होती है। वह देश को अंग्रेजी दासता के चंगुल से छुटकारा दिलाने, भय व प्रलोभन के वशीभूत होकर विधर्मी हुए सैकड़ों हिंदुओं की पुनः घर वापसी करवाने, वंचितों को उनके अधिकार दिलाने, पश्चिमी शिक्षा की जगह वैदिकयुगीन गुरुकुल शिक्षा प्रणाली की आधारशिला रखने और स्त्री शिक्षा जैसे कार्यों के लिए हमेशा याद किए जाएंगे।
स्वामी दयानंद के तर्कों, तथ्यों और विचार संजीवनी ने एक प्रतिष्ठित परिवार के मेधावी नवयुवा मुंशीराम को स्वामी श्रद्धानंद के रूप में रूपांतरित कर दिया। एक ऐसा व्यक्तित्व जिनके शौर्य, त्याग, बलिदान और समाज सेवा के कार्यों को देश के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में अंकित होना चाहिए था, लेकिन आजाद भारत की गुलाम मानसिकता वाली सरकार द्वारा सिर्फ एक “हिन्दू पुनरुत्थानवादी” के रूप में सीमित कर दिया गया। यथार्थ यह है कि स्वामी श्रद्धानंद की जीवन गाथा आज भी राष्ट्रवादियों के अंतस को एक अगाध श्रद्धा से भर देती है।
स्वामी श्रद्धानंद अपने समय के हिंदू और मुसलमानों दोनों समुदायों के सर्वमान्य नेता थे। 4 अप्रैल 1919 को मुसलमानों ने स्वामी जी को अपना नेता मानकर भारत की सबसे बड़ी जामा मस्जिद के बिम्बर पर बैठाकर स्वामी जी का सम्मान किया था। उन्होंने दिल्ली की जामा मस्जिद में पहले वेद मंत्र पढ़े और फिर प्रेरणादायक भाषण दिया। मस्जिद में वेद मंत्रों का उच्चारण करने वाले भाषण देने वाले स्वामी श्रद्धानंद एकमात्र व्यक्ति थे। दुनिया के इतिहास में यह एक असाधारण क्षण था। एक गैर मुसलिम का मस्जिद की बिम्बर पर से उपदेश और वह भी देववाणी संस्कृत के श्लोकों के साथ; संभवतः यह दुनिया के इतिहास की अपनी तरह की इकलौती ऐसी घटना होगी। स्वामी जी ने अपना उपदेश वेद मंत्र से शुरू किया था और समापन शांति पाठ के साथ।
राष्ट्र सेवा ही स्वामी श्रद्धानंद के जीवन का मूलाधार था। स्वयं की बेटी अमृत कला को जब उन्होंने ‘ईसा-ईसा बोल, तेरा क्या लगेगा मोल’ सुना तो कंधे पर झोला टांग कर गुरुकुल कांगडी विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए चंदा इकट्ठा करने घर से निकल पड़े। अटूट संकल्प के धनी स्वामी श्रद्धानंद ने यह घोषणा की थी कि जब तक गुरुकुल के लिए 30 हजार रुपए इकट्ठे नहीं हो जाते तब तक वह घर में पैर नहीं रखेंगे। उन्होंने घर-घर घूमकर न सिर्फ 40 हजार रुपये इकट्ठे किए बल्कि अपना पूरा पुस्तकालय, प्रिंटिंग प्रेस और जालंधर स्थित कोठी भी गुरुकुल पर न्योछावर कर दी। अनेक वित्तीय संकट, संघर्ष के थपेड़ों से जूझने के बाद, 1902 में हरिद्वार के पास ग्राम कांगड़ी में उन्होंने गुरुकुल की स्थापना की और अपने बेटे हरीश्चंद्र और इंद्र को उसमें सबसे पहले भर्ती करवाया ताकि देशवासियों में वैदिक ज्ञान संपदा का बीजारोपण पुनः किया जा सके। यह भारत का सर्वप्रथम एक ऐसा गुरुकुल बना जिसमें जाति, पंथ, भेदभाव, छुआछूत से दूर कर छात्रों को अलग-अलग कक्षाओं में एक साथ मिलकर पढ़ने के लिए प्रेरित किया जाता था और स्वामी श्रद्धानन्द जी व्यक्तिगत रूप से एक पिता की तरह छात्रों की आवश्यकताओं को पूरा करते थे।
स्वामी श्रद्धानंद ने महिलाओं की शिक्षा के लिए भी अग्रणी भूमिका निभायी थी। जालंधर में पहले कन्या महाविद्यालय की स्थापना का श्रेय स्वामी श्रद्धानन्द को जाता है। वे आर्य समाज द्वारा संचालित अखबार ‘सदधर्म प्रचारक’ में लेखों के माध्यम से गार्गी और अपाला जैसी वैदिक विदुषियों के उदाहरणों का हवाला देते हुए महिलाओं को शिक्षा के लिए प्रेरित किया करते थे। इससे समाज में खासा सकारात्मक बदलाव आया। स्वामी जी हिन्दी को राष्ट्र भाषा और देवनागरी को राष्ट्रलिपि के रूप में अपनाने के भी प्रबल पक्षधर थे। ‘सतधर्म प्रचारक’ नामक पत्र उन दिनों उर्दू में छपता था। एक दिन अचानक ग्राहकों के पास जब यह पत्र हिंदी में पहुंचा तो सभी दंग रह गए क्योंकि उन दिनों उर्दू का ही चलन था। स्वामी जी का मानना था कि जिस समाज और देश में शिक्षक स्वयं चरित्रवान नहीं होते उसकी दशा अच्छी हो ही नहीं सकती। उनका कहना था कि हमारे यहां टीचर हैं, प्रोफ़ेसर हैं, प्रिसिंपल हैं, उस्ताद हैं, मौलवी हैं पर आचार्य नहीं हैं। आचार्य अर्थात् आचारवान व्यक्ति की महती आवश्यकता है। चरित्रवान व्यक्तियों के अभाव में महान से महान व धनवान से धनवान राष्ट्र भी समाप्त हो जाते हैं।
समाज सुधारक के रूप में उनके जीवन का अवलोकन करें तो पाते हैं कि उन्होंने प्रबल विरोध के बावजूद समाज के कल्याण के लिए अनेक कार्य किए। प्रबल सामाजिक विरोधों के बावजूद अपनी बेटी अमृत कला, बेटे हरिश्चद्र व इंद्र का विवाह जात-पात के समस्त बंधनों को तोड़कर कराया। उनका विचार था कि छुआछूत को लेकर इस देश में अनेक जटिलताओं ने जन्म लिया है तथा वैदिक वर्ण व्यवस्था के द्वारा ही इसका अंत संभव है। राष्ट्र धर्म को बढ़ाने के लिए स्वामी श्रद्धानंद चाहते थे कि “प्रत्येक नगर में एक ‘ हिंदू-राष्ट्र मंदिर” होना चाहिए जिसमें 25 हजार व्यक्ति एक साथ बैठ सकें और वहां वेद, उपनिषद, गीता, रामायण, महाभारत आदि की कथा हुआ करे। मंदिर में अखाड़े भी हों जहां व्यायाम के द्वारा शारीरिक शक्ति भी बढ़ाई जाए। प्रत्येक हिन्दू राष्ट्र मंदिर पर गायत्री मंत्र भी अंकित हो।”
स्वामी श्रद्धानंद का महानतम कार्य था- शुद्धि सभाओं का गठन। उनका विचार था कि अज्ञान, स्वार्थ व प्रलोभन के कारण धर्मांतरण कर बिछुड़े स्वजनों की शुद्धि करना देश को मजबूत करने के लिए परम आवश्यक है। स्वामी जी ने पश्चिम उत्तर प्रदेश के 89 गांवों के हिन्दू से हुए मुसलमानों को पुनः हिन्दू धर्म में शामिल कर आदि गुरु शंकराचार्य के द्वारा शुरू की परंपरा को पुनर्जीवित किया। उन्होंने समाज में यह विश्वास उत्पन्न किया कि जो विधर्मी हो गये थे , वे सभी वापस अपने मूलधर्म में वापस आ सकते हैं। |
स्वामी श्रद्धानंद ने देश के स्वाधीनता आंदोलन में 1919 से लेकर 1922 तक का बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। वह निराले वीर थे। लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल ने कहा था, ‘’स्वामी श्रद्धानंद की याद आते ही 1919 का दृश्य आंखों के आगे आ जाता है। सिपाही फ़ायर करने की तैयारी में हैं। स्वामी जी छाती खोल कर आगे आते हैं और कहते हैं- ‘ लो, चलाओ गोलियां। इस वीरता पर कौन मुग्ध नहीं होगा?’’ 1919 में अमृतसर कांग्रेस अधिवेशन के अध्यक्ष के रूप में देशवासियों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था, “सामाजिक भेदभाव के कारण आज हमारे करोड़ भाइयों के दिल टूटे हुए हैं, जातिवाद के कारण इन्हें काट कर फेंक दिया हैं, भारत मां के ये लाखों बच्चे विदेशी सरकार के जहाज का लंगर बन सकते हैं लेकिन हमारे भाई नहीं! क्यों?
मैं आप सभी भाइयों और बहनों से यह अपील करता हूं कि इस राष्ट्रीय मंदिर में मातृभूमि के प्रेम के पानी के साथ अपने दिलों को शुद्ध करें और वादा करें कि ये लाखों करोड़ों अब हमारे लिए अछूत नहीं रहेंगे, बल्कि भाई-बहन बनेंगे, अब उनके बेटे और बेटियाँ हमारे स्कूलों में पढ़ेंगे, उनके पुरुष और महिलाएं हमारे समाजों में भाग लेंगे, आजादी की हमारी लड़ाई में वे हमारे साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े होंगे और हम सभी अपने राष्ट्र की पूर्णता का एहसास करने के लिए हाथ मिलाएंगे।” हालांकि कांगेस की तुष्टीकरण की नीति और महात्मा गांधी के विचारों से मतभेद होने की वजह से उन्होंने कांग्रेस की उप-समिति से इस्तीफा दे दिया, लेकिन देश की स्वतंत्रता तथा हिंदू-मुसलिम एकता के लिए वे लगातार कार्य करते रहे। राजनीतिज्ञों के बारे में स्वामी जी का मत था कि भारत को सेवकों की आवश्यकता है, लीडरों की नहीं। श्री राम का कार्य इसीलिए सफ़ल हुआ क्योंकि उन्हें हनुमान जैसा सेवक मिला। वह सच्चे अर्थों में स्वामी दयानंद के हनुमान थे जो राष्ट्र की सेवा के लिए तिल-तिल कर जले।
स्वामी श्रद्धानंद का महानतम कार्य था- शुद्धि सभाओं का गठन। उनका विचार था कि अज्ञान, स्वार्थ व प्रलोभन के कारण धर्मांतरण कर बिछुड़े स्वजनों की शुद्धि करना देश को मजबूत करने के लिए परम आवश्यक है। स्वामी जी ने पश्चिम उत्तर प्रदेश के 89 गांवों के हिन्दू से हुए मुसलमानों को पुनः हिन्दू धर्म में शामिल कर आदि गुरु शंकराचार्य के द्वारा शुरू की परंपरा को पुनर्जीवित किया। उन्होंने समाज में यह विश्वास उत्पन्न किया कि जो विधर्मी हो गये थे , वे सभी वापस अपने मूलधर्म में वापस आ सकते हैं। पर उनका यह महान कार्य उन्हीं के लिये घातक सिद्ध हो गया। कुछ कट्टरपंथी मुसलमान इस शुद्धिकरण आन्दोलन के खिलाफ हो गए थे और अब्दुल रशीद नामक एक धर्मांध मुस्लिम युवक ने 23 दिसम्बर 1926 को छल से चांदनी चौक दिल्ली में स्वामी जी को गोलियों से भून दिया। इस तरह धर्म, देश, संस्कृति, शिक्षा का उत्थान करने वाला यह युगधर्मी महामानव मानवता के लिए बलिदान हो गया।
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