डॉ. अरविंद कुमार शुक्ल
राजत अखण्ड तेज छाजत सुजस बड़ो,
गाजत गयंद दिग्गजन हिय साल को।
जाहि के प्रताप से मलीन आफताब होत,
ताप तजि दुजन करत बहु ख्याल को।।
साज सजि गज तुरी पैदरि कतार दीन्हें,
भूषन भनत ऐसो दीन प्रतिपाल को?
और राव राजा एक चिन्त में न ल्याऊँ अब,
साहू को सराहौं कि सराहौं छत्रसाल को।।
अखण्ड तेज से विभूषित, जिनकी कीर्ति चारों ओर फैली है, जिनकी सेना और उसके हाथियों की चित्कार से दिशा-दिशा के राजाओं के हृदय में भय भर जाता है। जिसके प्रताप को सुनकर विधर्मियों के चेहरों की रौनक गायब हो जाती है। ऐसा राजा जो ब्राह्मणों अर्थात सज्जनों के ताप यानी कष्ट को हर कर उनकी पूरी चिन्ता करता है। जो सदैव अपनी सुसज्जित सेना, पैदल सिपाहियों के साथ राज्य की रक्षा के लिए सन्नद्ध रहता है। ऐसे छत्रसाल को छोड़कर भला भूषण अपने मन में किस राजा के लिए सम्मान देख सकता है। भूषण कहते हैं, मेरा मन तो कभी-कभी भ्रम में पड़ जाता है कि साहू (शिवाजी के पौत्र) को सराहूं या छत्रसाल को। दोनों में तुलना नहीं की जा सकती। अर्थात दोनों अपने-अपने क्षेत्र में अप्रतिम हैं।
शिवाजी की अखंड कीर्ति के कथाकार महाकवि भूषण के उपास्य के रूप में छत्रसाल के स्थापित होने की कहानी इतिहास का वह अध्याय है जो हिंदू पादशाही को विंध्य के पहाड़ों और गंगा के मैदान के मध्य स्थित दुर्गम भूमि में जीवंत करती है। संवत 1706 के जेष्ठ शुक्ल तृतीया को जन्मे छत्रसाल उस वीर चंपत राय के पुत्र थे जो जीवन भर युद्ध के मैदान में तलवार चमकाता रहा और मुगल सम्राट के प्रिय अबू फजल के सीने में अपनी तलवार यूं आर-पार करते हुए बलिदान हुआ। माता लाल कुंवरी हर एक युद्ध में चंपत राय की संगिनी रहीं किन्तु पुत्र छत्रसाल को मात्र बारह वर्ष तक ही छत्रछाया प्रदान कर सकीं।
मामा के संरक्षण में कुछ वर्षों तक प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद छत्रसाल की पराक्रम यात्रा का प्रारंभ होता है और यह बालक राजगढ़ जाकर शिवाजी महाराज से आग्रह करता है कि उन्हें अपने सेना में सम्मिलित कर लें। किंतु हिंदवी स्वराज के संस्थापक उस वीर बालक के प्रतिभा को पहचान लेते हैं और उसे सेना में भर्ती करने का अवसर ना देकर उसे स्वराज्य का मंत्र देते हैं और अपनी भवानी तलवार उसे सौंप देते हैं जो 52 युद्धों का साक्षी बनती है। शिवाजी से हिंदवी स्वराज्य का मंत्र लेकर छत्रसाल बुंदेलखंड की धरती को एक नए संकल्प के साथ शीश नवाते हैं और 1671 में मात्र 22 वर्ष की अवस्था में 5 घुड़सवार और 25 तलवारबाजों को लेकर एक अभियान शुरू करते हैं जिसके परिणामस्वरूप अगले एक दशक के अंदर ही चित्रकूट, छतरपुर, पन्ना से पश्चिम में ग्वालियर तक शासन स्थापित कर देते हैं। उत्तर में कालपी से लेकर दक्षिण में सागर घर, कोटा शाहगढ़ और दमोह तक का क्षेत्र छत्रसाल के छत्र के नीचे आ जाता है। 1673 में मुगल सम्राट, रोहिल्ला खान को धामोनी का फौजदार बना कर भेजता है। 22 सरदारों की सम्मिलित शक्ति और ओरछा, दतिया और चंदेरी की संयुक्त सेना छत्रसाल की भवानी तलवार के मुकाबले में पराजय का स्वाद चखती है। राजा छत्रसाल ने नैना को जीतकर अपनी राजधानी बनाया। महोबा और मऊ को उन्होंने अपनी तलवार के पराक्रम से सैनिक छावनी के रूप में स्थापित कर दिया। अब छत्रसाल के पराक्रम को स्वीकार करते हुए बुंदेलखंड के 70 जमींदारों ने उन्हें अपना राजा स्वीकार कर लिया। प्रेरणा पुरुष शिवाजी के स्वराज मंत्र और गुरु प्राणनाथ के आशीर्वाद से सरदार तहवर खां, अनवर खां, सहरूद्दीन, हमीद पराजित हो दिल्ली लौट गए। वहीं बहलोद खां मारा गया। मुराद खां, दलेह खान, सैयद अफगान, सब के सब छत्रसाल के पराक्रम के आगे रणछोड़ साबित हुए। छत्रसाल के अश्वमेध का घोड़ा निष्कंटक घूम रहा था, कहीं कोई प्रतिरोध नहीं रहा।
छत्ता तेरे राज में, धक-धक धरती होय।
जित-जित घोड़ा मुस्करा, तित-तित फत्ते होय।
साम्राज्य का निरन्तर विस्तार होता गया। मध्यदेश पर छत्रसाल की अजेयता को औरंगजेब को स्वीकार करना पड़ा। मुगल सरदार ने चौथ प्रस्तुत कर सजदा करना स्वीकार कर लिया।
इत यमुना, उत नर्मदा, इत चंबल उत टोंस। छत्रसाल लरन की, रही ना काहू हौंस।।
1720 के दशक तक इस प्रभुत्व को चुनौती देने की शक्ति मुगलिया सल्तनत में नहीं थी।
70 पार कर चुके छत्रसाल को मोहम्मद शाह के काल में प्रयागराज के सूबेदार बंगस खान ने घेरेबंदी का दुस्साहस किया तो छत्रसाल ने हिंदू पद पादशाही के ध्वजवाहक बाजीराव प्रथम से आग्रह किया कि
जो गति गज और ग्राह की सो गती भई है आज,
बाजी जात बुंदेल की राखो बाजी लाज।
इस संदेश को प्राप्त करते ही बाजीराव प्रथम ने दुनिया के युद्ध इतिहास के एक तीव्रतम आक्रमण को यथार्थ में बदलते हुए बंगस खान को चारों तरफ से घेरकर मालवा के मैदान में विजय का इतिहास रचा। बंगस खान की इच्छा एरच, कौच, सेहुड़ा, सोपरी, जालोन पर अधिकार कर लेने की थी। छत्रसाल को मुग़लों से लड़ने में दतिया, सेहुड़ा के राजाओं ने सहयोग नहीं दिया। उनका पुत्र हृदयशाह भी उदासीन होकर अपनी जागीर में बैठा रहा। तब छत्रसाल ने बाजीराव पेशवा को संदेश भेजा। बाजीराव राव ने बंगस खान को 30 मार्च 1729 को पराजित कर दिया। बंगस हार कर वापस लौट गया। 4 अप्रैल 1729 को महाराजा छत्रसाल ने विजय उत्सव मनाया। इस विजयोत्सव में बाजीराव का अभिनन्दन किया गया और बाजीराव को अपना तीसरा पुत्र स्वीकार कर मदद के बदले अपने राज्य का तीसरा भाग बाजीराव पेशवा को सौंप दिया, जिस पर पेशवा ने अपनी ब्राह्मण जाति के लोगों को सामन्त नियुक्त किया।
प्रथम पुत्र हृदयशाह पन्ना, मऊ, गढ़कोटा, कालिंजर, एरिछ, धामोनी इलाका के जमींदार हो गए, जिसकी आमदनी 42 लाख रुपये थी। दूसरे पुत्र जगतराय को जैतपुर, अजयगढ़, चरखारी, नांदा, सरिला, इलाका सौंपा गया जिसकी आय 36 लाख रुपये थी। बाजीराव पेशवा को कालपी, जालौन, गुरसराय, गुना, हटा, सागर, हृदय नगर मिलाकर 33 लाख आय की जागीर सौंपी गई। छत्रसाल ने अपने दोनों पुत्रों ज्येष्ठ जगतराज और कनिष्ठ हिरदेशाह को बराबरी का हिस्सा, जनता को समृद्धि और शांति से राज्य-संचालन हेतु बांटकर अपनी विदा वेला का दायित्व निभाया। इस वीर बहादुर छत्रसाल की 83 वर्ष की अवस्था में 1731 ईस्वी को मृत्यु हो गई।
मध्यकालीन भारत में विदेशी आतताइयों से सतत संघर्ष करने वालों में छत्रपति शिवाजी, महाराणा प्रताप और बुंदेल केसरी छत्रसाल के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। परंतु जिन्हें उत्तराधिकार में सत्ता नहीं, वरन ‘शत्रु और संघर्ष’ ही विरासत में मिले हों, ऐसे बुंदेल केसरी छत्रसाल ने वस्तुतः अपने पूरे जीवनभर स्वतंत्रता और सृजन के लिए ही सतत संघर्ष किया। शून्य से अपनी यात्रा प्रारंभ कर आकाश-सी ऊंचाई का स्पर्श किया। उन्होंने विस्तृत बुंदेलखंड राज्य की गरिमामय स्थापना ही नहीं की थी, वरन साहित्य सृजन कर जीवंत काव्य भी रचे। छत्रसाल ने अपने 82 वर्ष के जीवन और 44 वर्षीय राज्यकाल में 52 युद्ध किए। महाकवि भूषण और लाल कवि ने छत्रसाल के पराक्रम को काव्यात्मक प्रस्तुति के माध्यम से हर एक बुंदेले के जुबान पर पहुंचा दिया। छत्रसाल भारतीय इतिहास के वह महान व्यक्तित्व है जो शिवाजी और गुरु गोविंद सिंह के संकल्पों की पूर्ति के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर देते हैं।
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