झारखंड सरकार द्वारा बनाई गई जनजातीय सलाहकार परिषद (टीएसी) अब एक बार फिर से चर्चा में है। गोड्डा से भाजपा सांसद निशिकांत दुबे ने छह दिसंबर को लोकसभा में इस मुद्दे को उठाया। उन्होंने कहा, ‘‘झारखंड सरकार ने टीएसी के गठन में अवैधानिक निर्णय लिया है। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने राज्यपाल को समिति के अध्यक्ष पद से हटाकर इसकी जिम्मेदारी स्वयं ले ली है। टीएसी में राज्यपाल की भूमिका को समाप्त किए जाने पर सदन का क्या मत है?’’ उनके प्रश्न के उत्तर में केंद्रीय जनजातीय मामलों के मंत्री अर्जुन मुंडा ने कहा, ‘‘राज्यपाल ने टीएसी के गठन में उनकी भूमिका में कटौती को लेकर केंद्रीय कानून मंत्रालय एवं जनजातीय कार्य मंत्रालय को जानकारी दी थी। कानून मंत्रालय ने इस पर कहा है कि झारखंड सरकार ने टीएसी के गठन में राज्यपाल के अधिकारों को नजरअंदाज किया है। राज्य सरकार को राज्यपाल के माध्यम से सही तरीके से इसका गठन करना चाहिए। कानून मंत्रालय के अनुसार राज्यपाल की स्वीकृति के बिना टीएसी के सदस्यों की नियुक्ति नहीं की जा सकती। इस मामले में राज्य सरकार को सूचित किया जा रहा है कि राज्यपाल के माध्यम से सही तरीके से टीएसी का गठन किया जाए।’’
वहीं झारखंड सरकार कह रही है कि टीएसी का गठन पूरी तरह सही है। मतलब यह कि आने वाले समय में झारखंड सरकार द्वारा बनाई गई टीएसी के निर्णयों को लेकर राज्यपाल और राज्य सरकार के बीच तनाव और गहरा होने वाला है।
उल्लेखनीय है कि भारतीय संविधान की पांचवीं अनुसूची के अंतर्गत राष्ट्रपति द्वारा जारी आदेश के अनुसार झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, ओडिशा सहित देश के 10 राज्यों को अनुसूचित क्षेत्र घोषित किया गया है। इन राज्यों में टीएसी का गठन किया जाता है, जो अनुसूचित जनजातियों के कल्याण और उन्नति से संबंधित मामलों पर सरकार को सलाह देती है। इस परिषद का अध्यक्ष राज्यपाल ही होता है। इसके बावजूद झारखंड सरकार ने टीएसी से राज्यपाल को बाहर कर दिया है।
बता दें कि झारखंड सरकार ने 4 जून, 2021 को टीएसी की नई नियमावली बनाई थी। इसके अनुसार टीएसी के अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी मुख्यमंत्री को दी गई है। संविधान के जानकार और जनजाति समाज के प्रबुद्ध लोग इसे गलत मानते हैं। जनजाति शोध संस्थान, रांची के पूर्व निदेशक प्रकाश उरांव कहते हैं, ‘‘राज्यपाल संवैधानिक रूप से टीएसी का अभिभावक होता है। क्या किसी घर के अभिभावक को हटाकर कोई निर्णय लिया जा सकता है? और यदि कोई इस तरह करता है, तो समाज उसे मान्यता नहीं देता। यही टीएसी के साथ हुआ है। इसलिए इसका विरोध हो रहा है।’’ उन्होंने यह भी बताया कि संविधान की पांचवीं अनुसूची के अनुच्छेद 244 में साफ-साफ कहा गया है कि टीएसी के सदस्य राज्यपाल द्वारा निर्देशित कार्यों पर सलाह देंगे। इसलिए राज्यपाल को टीएसी के अध्यक्ष पद से हटाना ठीक नहीं है।
जनजाति समाज के लिए टीएसी एक महत्वपूर्ण संस्था है। इसका इतना महत्व है कि इसे जनजातियों के लिए ‘छोटी संसद’ कहा जाता है। इसके बावजूद झारखंड सरकार टीएसी को लेकर मनमाने फैसले ले रही है। यही नहीं, विरोध के बाद भी वह टीएसी के सदस्यों की नियुक्ति भी कर चुकी है। यही कारण है कि भाजपा सहित सभी विपक्षी दल संसद से लेकर सड़क तक इसके गठन का विरोध कर रहे हैं। वहीं सत्तारूढ़ झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) का कहना है कि टीएसी का गठन पूरी तरह उचित और संवैधानिक प्रक्रियाओं के अनुरूप है। लेकिन जनजाति समाज के अनेक प्रबुद्ध लोग झामुमो पर आरोप लगा रहे हैं कि चर्च के दबाव में टीएसी से राज्यपाल को बाहर किया गया है। जनजाति सुरक्षा मंच के राष्ट्रीय सह-संयोजक डॉ. राजकिशोर हांसदा कहते हैं, ‘‘मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन जो भी निर्णय लेते हैं, उसमें चर्च का दखल होता है। टीएसी के मामले में भी यही हुआ है। चर्च के कहने पर राज्यपाल से टीएसी के बारे में कोई चर्चा तक नहीं की जाती है।’’
वहीं कुछ लोगों का मानना है कि हेमंत सोरेन टीएसी कोराष्ट्रय सलाहकार परिषद की तरह चलाना चाहते हैं। बता दें कि डॉ. मनमोहन सिंह के समय सोनिया गांधी की अध्यक्षता में राष्ट्रय सलाहकार परिषद का गठन हुआ था। उस परिषद के अधिकतर सदस्य सेकुलर सोच के देश-विरोधी तत्व थे और तत्कालीन केंद्र सरकार के ज्यादातर कार्यों में उनका दखल था। सामाजिक कार्यकर्ता डॉ. सुनील प्रमाणिक कहते हैं, ‘‘टीएसी के निर्णयों पर चर्च का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिख रहा है। यही कारण है कि पूर्व राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू ने इसके कुछ निर्णयों का विरोध किया था। इसके बाद उन्हें टीएसी के अध्यक्ष पद से हटा कर हेमंत सोरेन खुद अध्यक्ष बन गए।’’
उल्लेखनीय है कि 27 सितंबर, 2021 को टीएसी की एक बैठक हुई थी। बैठक में ऐसे कई निर्णय लिए गए जिस पर चर्च का प्रभाव साफ दिखाई देता है। एक निर्णय यह था कि जनजातीय समाज के लोगों का जन्म प्रमाणपत्र एक ही बार बनाया जाएगा और वह आजीवन वैध रहेगा। लोगों का मानना है कि यह निर्णय ईसाई मिशनरियों के कन्वर्जन को आसान बनाने के लिए लिया गया है। सामाजिक कार्यकर्ता तपेश्वर महतो कहते हैं, ‘‘जनजातीय समाज के लोगों का जन्म प्रमाणपत्र एक बार बनाने का निर्णय इसलिए लिया गया है कि जो लोग ईसाई बन गए हैं, उन्हें आरक्षण की सुविधा लेने में दिक्कत न हो। एक ही राज्य में दो तरह के विधान का कोई मतलब नहीं है।’’
टीएसी की उसी बैठक में यह निर्णय भी लिया गया था कि आगामी जनगणना में सरना धर्म कोड का कॉलम रखने का प्रस्ताव केंद्र सरकार को भेजा जाएगा। इसके बाद वह प्रस्ताव भेज भी दिया गया है। उल्लेखनीय है कि सरना धर्म कोड की मांग के पीछे भी चर्च के लोग हैं। जनजाति समाज के जो लोग ईसाई बन चुके हैं, वे कागज में जनजाति ही रहें, इसलिए उनके लिए अलग धर्म कोड की मांग की जा रही है।
कुल मिलाकर यही निष्कर्ष निकलता है कि अपने को सेकुलर कहने वाली झारखंड सरकार पूरी तरह से चर्च के कब्जे में है और उसी के इशारे पर उसने जनजातीय सलाहकार परिषद के अध्यक्ष पद से केंद्र के प्रतिनिधि यानी राज्यपाल को हटा दिया है। ल्ल
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