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गो-केंद्रित खेती में जुटे उत्तर प्रदेश के किसान

by पूनम नेगी
Dec 14, 2021, 01:43 pm IST
in भारत, दिल्ली
कृषि कानूनों की वापसी

कृषि कानूनों की वापसी

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केंद्र सरकार गोवंश आधारित खेती को बढ़ावा दे रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कई बार बयान दे चुके हैं तो वित्त मंत्री निर्मला सीतारामन भी बजट में इसकी घोषणा कर चुकी हैं। वहीं रासायनिक खेती के दुष्प्रभावों और बढ़ती लागत के कारण कई किसानों ने गोवंश आधारित खेती को अपनाया। इससे प्रति एकड़ उत्पादन में तो वृद्धि हुई ही, वे कई फसलें भी एकसाथ लेने लगे। यह न सिर्फ किसानों के लिए लाभप्रद रहा बल्कि उपभोक्ताओं के लिए भी स्वास्थ्यवर्धक है

बीते माह 19 तारीख को तीनों कृषि कानूनों की वापसी की घोषणा के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के राष्ट्र के नाम संबोधन में जो दूसरी महत्वपूर्ण बात रही, वह थी पद्मश्री डॉ. सुभाष पालेकर द्वारा विकसित  गोवंश आधारित विषमुक्त प्राकृतिक कृषि पद्धति को बढ़ावा देने के लिए एक उच्चस्तरीय समिति के गठन की घोषणा। दरअसल स्वाधीनता के बाद पंडित जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में  हरित क्रांति के सूत्रपात के नाम पर देश में जिस कृषि मॉडल को अंगीकार किया गया था, उससे कुछ शुरुआती दशकों में खाद्यान्न उत्पादन बढ़ाने में सफलता जरूर मिली, लेकिन अब उसमें गिरावट की स्थिति देखने को मिल रही है। अधिसंख्य किसानों के लिए रासायनिक खेती आज घाटे का सौदा साबित हो रही है।

लगातार बढ़ती कृषि लागत ने किसानों को कर्ज के दुष्चक्र में फंसाने का काम किया है। किसानों के साथ-साथ उपभोक्ताओं के लिए भी इस कृषि मॉडल ने खतरनाक स्थिति उत्पन्न कर दी है। अनाज हो, सब्जी या फल, रसायनों का प्रयोग करके उगाए गए इन उत्पादों ने मानव शरीर को पोषण और आरोग्य देने के स्थान पर अनेक गंभीर बीमारियों का शिकार बना दिया है। खेती के इस तरीके ने मिट्टी, जल और हवा को भी प्रदूषित बना दिया है। सिंचाई के लिए जल की जरूरत पूरी करने के प्रयास में भूजल स्तर पाताल तक पहुंच गया है।

वहीं कोरोना संकट ने भी इस बाबत गंभीर रूप से पुनरावलोकन को प्रेरित किया है। अब यह अपरिहार्य हो गया है कि हम प्रकृति के साथ अपने संबंधों को पुन: परिभाषित करें एवं अपने खानपान, खाद्य शृंखला और कृषि के प्रचलित तौर-तरीकों पर भी व्यापक रूप से पुनर्विचार करें। मानव सभ्यता को कोरोना जैसे आगामी संकटों से बचाने के लिए जरूरी है कि हमारी जीवनशैली, खाद्य-शैली और प्राकृतिक परिवेश ऐसा हो जो देश की आर्थिकी एवं मानव शरीर को इतना सक्षम बनाए रखे कि हम ऐसे संकटों का सामना करने के लिए सदैव तैयार रह सकें। रासायनिक खेती के दुष्प्रभावसे कैंसर जैसी भयावह बीमारी आज जिस तरह पांव पसारती जा रही है, उसके निराकरण का एक कारगर उपाय है विषमुक्त आहार और इस विषमुक्त आहार का एक प्रमुख स्रोत है गोवंश आधारित कृषि पद्धति से उत्पादित खाद्यान।

बीते एक दशक से पर्यावरण संरक्षण और गो-केन्द्रित विषमुक्त खेती के प्रचार-प्रसार के लिए समाज में जन-जागरूकता फैला रही ‘लोकभारती’ संस्था के पदाधिकारी व कार्यकर्ता प्रधानमंत्री की इस घोषणा से काफी उत्साहित हैं। संस्था के अखिल भारतीय संगठन मंत्री बृजेंद्र पाल सिंह कहते हैं कि प्रधानमंत्री की इस उद्घोषणा ने हमारे कृषि आन्दोलन में नई जान फूंक दी है। हमारे संगठन की प्रेरणा से देशभर में गो केन्द्रित विषमुक्त खेती करने वाले सैकड़ों किसानों के लिए प्रधानमंत्री का कथन अत्यंत उत्साहवर्धक है। इससे निश्चित रूप से रसायन खाद मुक्त खेती के विस्तार को व्यापक गति मिलेगी।

बजट में भी गोवंश कृषि को बढ़ावा देने की हुई थी घोषणा
उल्लेखनीय है कि प्रधानमंत्री ने इससे पहले भी अनेक अवसरों पर खेती में रसायनों के उपयोग से उत्पन्न समस्याओं को रेखांकित करते हुए किसानों को कृषि पद्धति में समयानुकूल बदलाव लाने को प्रेरित किया है। 2019 के केंद्रीय बजट में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने किसानों की आय को दुगुनी करने के लिए गोवंश कृषि को बढ़ावा देने की घोषणा की थी। तदोपरांत नीति आयोग द्वारा कई ऐसे प्रयास किए गए, जिनके परिणामस्वरूप देश में विष मुक्त खेती का रकबा और इस पद्धति से खेती करने वाले किसानों की संख्या में वृद्धि हुई है। वर्तमान में 11 राज्यों में बड़ी संख्या में किसान इस पर्यावरण हितैषी विधि से समुचित उत्पादन और आय अर्जित कर रहे हैं। ऐसे में प्रधानमंत्री द्वारा उच्चस्तरीय समिति के गठन का निर्णय देश में गो-केंद्रित खेती को बढ़ावा देने की दिशा में एक और महत्वपूर्ण कदम है।

कार्यशाला में करेंगे 2000 किसान सहभागिता
लोकभारती के राष्ट्रीय संपर्क प्रमुख श्रीकृष्ण चौधरी ने इस बाबत एक अहम जानकारी देते हुए बताया कि इसी माह प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र  वाराणसी में लोकभारती के सहयोग से कृषि मंत्रालय, उत्तर प्रदेश एवं जिला प्रशासन के संयुक्त तत्वावधान में प्राकृतिक कृषि पर एक राष्ट्रीय कार्यशाला का आयोजन किया गया है जिसमें देशभर के लगभग दो हजार प्राकृतिक किसान सहभागिता करेंगे। उक्त कार्यक्रम में प्रधानमंत्री के साथ उत्तर प्रदेश की राज्यपाल आनंदीबेन पटेल व मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के साथ राज्यपाल के रूप में पहले हिमाचल प्रदेश और अब गुजरात को प्राकृतिक कृषि का केंद्र बनाने हेतु प्रयासरत आचार्य देवव्रत भी उपस्थित रह कर इन किसानों के अनुभवों, समस्याओं व मांगों से अवगत होने के साथ उन्हें मार्गदर्शन भी देंगे। इस आयोजन को लेकर लोकभारती की प्रेरणा से गो केन्द्रित विषमुक्त खेती करने वाले किसान काफी खुश हैं। इसी संदर्भ में प्रस्तुत हैं उत्तर प्रदेश के कुछ कामयाब

प्रगतिशील कृषकों की कहानी उन्हीं की जुबानी:
सत्य प्रकाश मिश्र : ग्राम राजामऊ-महराजगंज (रायबरेली)

उत्तर प्रदेश के रायबरेली जिले की महराजगंज तहसील के ग्राम राजामऊ में बीते पांच साल से 30 एकड़ में गोवंश आधारित प्राकृतिक खेती करने वाले सत्य प्रकाश मिश्र बताते हैं कि यदि गोवंश आधारित प्राकृतिक और रासायनिक खेती की तुलना करें तो एक एकड़ खेत में गेहूं की रासायनिक खेती में लगभग 8 हजार रुपये की उत्पादन लागत से 13 कुंतल उपज प्राप्त होती है और  इस उपज को 2400 रुपये प्रति कुंतल की दर से बेचने पर लगभग 31,000 रुपये प्राप्त होते हैं जिसमें लागत घटाने पर कुल लाभ लगभग 23,000 रुपये होता है। जबकि इसी एक एकड़ खेत में गोवंश आधारित विषमुक्त खेती में मेरी कुल लागत लगभग 5 हजार रुपये प्रति एकड़ आती है। मुख्य फसल गेहूं के साथ सहफसली के रूप में चना और सरसों लगाने पर मुझे 12 कुंतल गेहूं, डेढ़ कुंतल चना व एक कुंतल सरसों की उपज मिलती है जिसकी बिक्री लगभग 42,000 रुपये में होती है और लागत घटाने पर 34,000 रुपये का लाभ होता है। चूंकि मैं अपनी उपज सीधे उपभोक्ता को बेचता हूं तो मुझे बाजार भाव से 25 प्रतिशत अधिक लाभ होता है।

वीरेंद्र शुक्ल : ग्राम टांडपुर-सूरतगंज (बाराबंकी)
बाराबंकी जिले के सूरतगंज के टांडपुर गांव के किसान वीरेंद्र शुक्ल बताते हैं कि ‘‘खेती हमारा परंपरागत पेशा है। वर्ष 2011से पहले हम रासायनिक खेती करते थे; लेकिन बढ़ती लागत (उर्वरक, डीजल, मजदूरी) के अनुपात में मुनाफा न होने के कारण हमने बदलाव का मन बनाया और सुभाष पालेकर द्वारा विकसित गोवंश कृषि की विधि से 2 एकड़ में खेती शुरू की। डीएपी यूरिया की जगह हम गाय के गोबर की खाद, जीवामृत, नीम की खाद आदि तथा नीम, हल्दी, तंबाकू मिर्च, छाछ आदि से घर में बनाए कीटनाशक का प्रयोग कर गेहूं के साथ सहजन, मसूर, मक्का व मौसमी सब्जियों की खेती करते हैं। हमारे पास चार गाय-बछड़े हैं। रासायनिक खेती से हमें एक एकड़ में सात-आठ कुंतल गेहूं मिलता था जिसका बाजार भाव 1500 से 1600 रुपये मिलता था लेकिन प्राकृतिक खेती को अपनाने से तीसरे साल से एक एकड़ में 9 से 10 कुंतल गेहूं की उपज होने लगी। आज हमारा जैविक गेहूं बाजार में लगभग 2800 से 3500 रुपये कुंतल की दर से बिक जाता है। हमारे जैविक गेहूं की मांग लगातार बढ़रही है।’’ वीरेंद्रजी बताते हैं कि उन्हें देखकर आस-पड़ोस के कई अन्य किसान भी गोवंश आधारित खेती में रुचि ले रहे हैं।

संजीव कुमार : गांव निसुर्खा (बुलन्दशहर)
बुलन्दशहर जिले के गांव निसुर्खा के रहने वाले संजीव कुमार बताते हैं कि 15 साल पहले वे अपने गांव में फेब्रिकेटर का काम करते थे लेकिन 2010 में लोहे का रेट अचानक 28 से 48 रु. प्रति किलो हो जाने से उन पर साढ़े चार लाख का कर्ज हो गया और कम भी ठप हो गया। पिता जी ने 2 एकड़ जमीन देकर अलग कर दिया। शुरू में  रासायनिक खेती की दर महंगी होने के साथ मनमाफिक नतीजे न मिलने पर साल 2013 में वे गोवंश आधारित प्राकृतिक कृषि की तरफ मुड़े। पालेकर जी के शिविर से गोवंश कृषि का प्रशिक्षण लेकर आज वे साढ़े तीन एकड़ खेत मेंगेहूं के साथ चना, सरसों, धनिया, मेथी, मूली, शलजम आदि लगाकर प्रति एकड़ 1.27 लाख रुपये मूल्य की पैदावार ले रहे हैं। उन्होंने खेती के कई उपकरण भी विकसित किए हैं। उपज को प्रसंस्करण कर सीधा उपभोक्ता को देने से उन्हें अच्छा लाभ होता है। भारत सरकार के नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार भी उनके खेत का निरीक्षण कर चुके हैं। संजीव कहते हैं- वे ईश्वर के आभारी हैं जिसने उन्हें गोमाता की असली अहमियत बताई।

गोविंद सिंह : ग्राम अरैला -पट्टी (प्रतापगढ़)
जनपद प्रतापगढ़ की पट्टी तहसील क्षेत्र के अरैला ग्राम निवासी गोविंद सिंह भी इस पुनीत अभियान में जुटे हैं और गोपालक के साथ पिछले चार वर्ष से 6 एकड़ भूमि  में रसायनमुक्त कृषि कर रहे हैं। गोविंद अपने खेत में गेहूं, धान, सरसों, चना, आलू, प्याज, लहसुन, धनिया, उड़द, मूंग तथा हरी सब्जियों के साथ ढैंचा भी उगाते हैं। मृदा स्वास्थ्य को अति महत्वपूर्ण मानने वाले गोविंद अपने खेतों में देशी गाय के गोबर, गोमूत्र से निर्मित जीवामृत और घन जीवामृत का प्रयोग करते हैं। इसके साथ ही सरसों खली, नीम खली तथा आवश्यकता पड़ने पर वर्मीकम्पोस्ट का भी प्रयोग करते हैं। वे देशी गाय के दुग्ध विपणन के कार्य से भी जुड़े हैं तथा इस कार्य में उनके साथ क्षेत्र के 150 कृषक भी हैं। वे रासायनिक कृषि से जुड़े किसान मित्रों को अपने संदेश में कहते हैं कि स्वयंऔर भावी पीढ़ियों को स्वस्थ रखने के लिए विषमुक्त कृषि से जुड़ें। उनका कहना है कि यदि सरकार की ओर से कृषि मंडियों में जैविक प्रमाणपत्र प्राप्त कृषकों को स्थान आवंटित किए जाएं तो उत्पाद बिक्री में आसानी हो जाएगी।

सत्यदेव आर्य : गांव दादरी (मेरठ)
खेती में जहरीले रसायनों के अत्यधिक उपयोग से भारत के प्रत्येक राज्य में कैंसर जैसी घातक बीमारियों ने पैर फैला दिए हैं। इनसे मुक्ति का एकमेव रास्ता है गोवंश आधारित विषमुक्त खेती। यह कहना है मेरठ जिले के उच्च शिक्षित व प्रगतिशील किसान सत्यदेव आर्य का। अपने खेत में गोवंश कृषि का आदर्श मॉडल खड़ा करने वाले राज्यपाल आचार्य देवव्रत की प्रेरणा तथा पालेकर जी कृषि विधि का प्रशिक्षण लेकर सत्यदेव वर्ष 2019 से 5 एकड़ भूमि में जैविक एवं प्राकृतिक विधि से गेहूं, बासमती धान, गन्ना व सरसों आदि उत्पादन कर रहे हैं। उन्हें अपने उत्पाद सीधे ग्राहकों तक पहुंचाने के लिए सोशल मीडिया से उनको काफी सहायता मिली है। वे उपभोक्ताओं को प्रसंस्कृत अनाज के साथ जैविक गुड़, देशी खांड तथा शुद्ध सरसों का तेल भी सीधे उपलब्ध कराकर अच्छी आय अर्जित कर रहे हैं। सत्यदेव का कहना है कि भले ही आज प्राकृतिक कृषि से प्राप्त उत्पादन रसायनिक कृषि की अपेक्षाकृत कम है परंतु  प्राकृतिक विधि से उगाया गया उत्पाद गुणवत्ता व शुद्धता के कारण लाभ का सौदा है। गोमाता विषमुक्त कृषि की रीढ़ हैं। इसलिए किसान भाइयों को इसे  अपनाना ही चाहिए।

अशोक कुमार गुप्ता :ग्राम कमुआ-बिसवां (सीतापुर)
देशभर में ऐसे किसानों की संख्या निरंतर बढ़ रही है जो रासायनिक खेती के दुश्चक्र को तोड़कर कम लागत वाली पर्यावरण हितैषी गोवंश आधारित विषमुक्त खेती की तरफ बढ़ रहे हैं। यह कहना है सीतापुर जिले की तहसील बिसवां के ग्राम कमुआ के किसान अशोक कुमार गुप्ता का। बीते 5 वर्ष से 8 एकड़ में विषमुक्त खेती करने वाले अशोक बताते हैं कि वे अश्वगंधा, शतावर कैमोगिल (ग्रीन टी) एवं कालमेघ आदि औषधीय फसलों के साथ-साथ लहसुन, प्याज, चना, धनिया की खेती करते हैं। उनका कहना है कि उनकी यह औषधीय उपज लखनऊ के सीमैप ( केन्द्रीय औषधीय व सगंध पौधा संस्थान) और कुछ अन्य आयुर्वेदिक संस्थानों पर हाथों-हाथ बिक जाती है और वह भी मनमाफिक दाम पर। जब क्रेताओं को पता चलता है कि मेरी औषधीय फसलें प्राकृतिक खेती द्वारा बिना किसी रासायनिक उर्वरक और कीटनाशक के उत्पादित हैं तो वे हमारा माल दूसरों से पहले खरीद लेते हैं। वे कहते हैं कि रासायनिक खेती ने मिट्टी की गुणवत्ता को बहुत क्षति पहुंचाई है। इसका निदान केवल प्राकृतिक खेती में निहित है जिससे किसान व उपभोक्ता ही नहीं, प्रकृति व पर्यावरण भी संरक्षित होता है।

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