— किशोर मकवाणा
डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर का समग्र विचार करने पर हमारे ध्यान में आता है कि इस उच्चकोटि के मनीषी के संपूर्ण जीवन का केन्द्र—बिन्दु तो सामाजिक विषमता मिटाकर, समाज में समता-ममता और समरसता के आधार पर हिन्दू समाज को शक्तिशाली बनाना था। मगर उनका अंत:करण भारत भक्ति से आकंठभरा हुआ था। उन्होंने अपने भारत समर्पण और भारत भक्ति का परिचय एक ही वाक्य में दिया था- पहले भी देश और अंत में भी देश… राष्ट्र व्यक्ति से महान है, व्यक्ति चाहे कितना भी बड़ा क्यों न हो वह राष्ट्र के समक्ष तो छोटा ही है। राष्ट्र की रक्षा के लिए मैं अपना सर्वस्व समर्पित करने को भी तैयार हूं।
मगर भारत भक्ति से ओत-प्रोत डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर के विचारों को जान-बूझकर दबा कर रखा गया है। छद्म सेकुलर, ढोंगी आंबेडकरवादी और मार्क्सवादी शक्तियां जानती हैं कि डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर के इन विचारों के नजदीक जितना अधिक जाएंगे, उतने ही भयानक बिजली के झटके लगेंगे। स्वतंत्रता के बाद देश के तथाकथित बुद्धिजीवियों ने डॉ. आंबेडकर की इन शक्तियों को जान-बूझकर अप्रचारित रखा।
आज पूरे विश्व में फैले इस्लामी कट्टरवाद का सही प्रेक्षण डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने आज से 75 वर्ष पूर्व कर लिया था। डॉ. बाबासाहेब ने जिस प्रकार अपनी निर्भीकता से हिन्दू समाज में व्याप्त कट्टर रूढ़िवादिता और छुआछूत का विरोध किया, वैसे ही मुस्लिम समुदाय की मजहबी कट्टरवाद से प्रेरित राजनीति का भी विरोध किया। जब हम उनके प्रसिद्ध ग्रंथ ‘थॉट्स आॅन पाकिस्तान’ को पढ़ते हैं, तब ध्यान में आता है कि पाकिस्तान के सृजन के पीछे कौन-सी मानसिकता जिम्मेदार थी? सोमनाथ का प्रसिद्ध मंदिर क्यों तोड़ा गया था? किन उद्देश्यों से सदियों तक मुस्लिम आक्रांताओं ने इस देश पर आक्रमण कर इसको तहस-नहस कर दिया? हिन्दू-मुस्लिम दंगे क्यों होते रहते हैं? देश का नेतृत्व क्यों मुस्लिम कट्टरवाद के आगे झुकता गया? आज भी हिन्दुस्थान और पूरे विश्व में जिहादी आतंकवाद क्यों फैला है? इन सभी सवालों के जवाब हमें डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर के विचारों से मिलते हैं। आज भी इस्लामी कट्टरवाद और मुस्लिम समस्या ज्यों की त्यों है, ऐसे में डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर के विचारों को समझना जरूरी है।
डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर का इस्लामी कट्टरवाद के बारे में दृष्टिकोण हमेशा एकदम स्पष्ट था। जब देश का राष्ट्रीय नेतृत्व हिन्दू-मुस्लिम एकता की आड़ में मुस्लिम तुष्टीकरण में लगा था, उस समय 18 जनवरी, 1929 के ‘बहिष्कृत भारत’ के संपादकीय में डॉ. बाबासाहेब ने लिखा, ‘मुस्लिम लोगों का झुकाव मुस्लिम संस्कृति के देशों की तरफ रहना स्वाभाविक है। लेकिन यह झुकाव हद से ज्यादा बढ़ गया है। मुस्लिम संस्कृति का प्रसार कर मुस्लिम राष्ट्रों का संघ बनाना और जितना हो सके काफिर देशों पर उनका अलम चलाना, यही उनका लक्ष्य बन गया है। इसी सोच के कारण उनके पैर हिन्दुस्थान में होकर भी उनकी आंखें तुर्कस्तान अथवा अफगानिस्तान की ओर लगी हैं। हिन्दुस्थान मेरा देश है, ऐसा जिनको अभिमान नहीं है और अपने निकटवर्ती हिन्दू बंधुओं के बारे में जिनकी बिलकुल भी आत्मीयता नहीं है, ऐसे मुसलमान लोग मुसलमानी आक्रमण से हिन्दुस्थान की सुरक्षा करने हेतु सिद्ध हो जाएंगे, ऐसा मानना खतरनाक है। ऐसा हमें लगता है।’
मुस्लिम कट्टरवाद असहिष्णुता, आक्रामकता और हठधर्मिता के कारण ही अखंड भारत खंडित हुआ और भारतभूमि पर पाकिस्तान नामक एक देश का सृजन हुआ, यही धारणा डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर की थी, जिसे उन्होंने अपनी पुस्तक ‘थॉटस आॅन पाकिस्तान’ (1941) में प्रस्तुत किया। उन दिनों अपने विषय की यह पहली पुस्तक थी, जिसने बाबासाहेब के दूरगामी राजनीतिक दृष्टिकोण का सच और लोहा मनवा लिया था। यह पुस्तक बाद में दूसरे संस्करण में ‘पाकिस्तान एंड पार्टिशन आॅफ इंडिया’ नाम से 1945 में प्रकाशित हुई।
जब मुस्लिम लीग ने मुहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में 1940 में अलग पाकिस्तान का प्रस्ताव अपने लाहौर अधिवेशन में प्रस्तुत किया तब देश के सभी बड़े राजनेता इसे कोरी कल्पना बता रहे थे, बकवास कहते थे। मगर बाबासाहेब की दूरदृष्टि ने जान लिया था कि इसे कोई रोक नहीं सकता, क्योंकि बाबासाहेब ने मुस्लिम कट्टरवाद और इस्लाम के राजनीतिक स्वरूप का गहराई से अध्ययन किया था। डॉ. बाबासाहेब इस्लामी सोच के साथ-साथ अंग्रेज साम्राज्य की कूटनीति को भी जानते थे। डॉ. बाबासाहेब कहते हैं, ‘इस बारे में कोई सवाल नहीं उठ सकता कि पाकिस्तान के संबंध में योजना पर ध्यान देना ही पड़ेगा। मुसलमान इस योजना पर विचार करने के लिए दबाव डालेंगे़.़ राजनीतिक शक्ति के हस्तांतरण पर अपनी सहमति देने से पहले ब्रिटेन हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच किसी न किसी प्रकार समझौते का आग्रह करेगा। …बहरहाल हिन्दुओं की यह आशा व्यर्थ है कि ब्रिटेन पाकिस्तान की मांग को दबाने के लिए बलप्रयोग करेगा, जो कि असंभव है।’ मुस्लिम मानसिकता की असहिष्णुता, आक्रामकता और हठधर्मिता के कारण पाकिस्तान का सृजन हुआ। डॉ. बाबासाहेब की यही धारणा थी, जिसे उन्होंने निर्भीकता से प्रस्तुत किया। हिन्दू-मुस्लिम एकता एक भ्रम और सेकुलरवाद की बातें व्यर्थ हैं- ऐसा बाबासाहेब का मत था। उन्होंने कहा है, ‘मेरे तर्कों का बहुत बड़ा भाग हिन्दुओं को संबोधित है। इसका एक स्पष्ट कारण है, जो किसी की भी समझ में आ जाएगा। हिन्दू बहुसंख्या में हैं। इस नाते उनके दृष्टिकोण का महत्व होना ही चाहिए। उनकी आपत्तियों को, चाहे वे तर्कसम्मत हों या भावुकतापूर्ण, दूर किए बिना (हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य की) समस्या का शांतिपूर्ण हल संभव नहीं है। मैं अनुभव करता हूं कि जो हिन्दू जन अपने बांधवों के भाग्यों का पथ-प्रदर्शन कर रहे हैं, उनकी देखने में सक्षम आंख (कार्लाइल के शब्द-प्रयोगानुसार) लुप्त हो गई है और वे कुछ खोखले भ्रमजालों की चमक ओढ़े घूम रहे हैं। मुझे भय है कि इसके परिणाम हिन्दुओं के लिए घातक होंगे। हिन्दुओं को यह बोध नहीं होता, यद्यपि यह अनुभव सिद्ध है कि हिन्दू व मुसलमान न तो स्वभाव में एक हैं, न आध्यात्मिक अनुभव में और न ही राजनीतिक एकता की इच्छा में। जिन कुछ थोड़े क्षणों में वे सौहार्द संबंधों की ओर बढ़े, तब भी ये संबंध तनाव पूर्ण थे। फिर भी हिन्दू इसी भ्रम को प्रसन्नता पूर्वक अपनाए रहेंगे कि पिछले अनुभवों के बावजूद, हिन्दुओं व मुसलमानों में घनिष्ठता बनाने के लिए दोनों के बीच लक्ष्यों, भावनाओं व नीतियों की व्यापक एवं वास्तविक एकता की पर्याप्त मात्रा बची हुई है।’
उस समय का कांग्रेसी नेतृत्व पाकिस्तान के विचार को जिन्ना की सनक बता रहा था, मगर बाबासाहेब ऐसे भ्रम में नहीं थे। उनके विचार से हिन्दू इसी भ्रम को पाले हैं कि पाकिस्तान मात्र जिन्ना की ही एक सनक है और इसका समर्थन न मुस्लिम जनसाधारण में है, न ही अन्य मुस्लिम नेताओं में। वे इस भ्रम से चिपके हुए इसलिए हैं कि सर सिकंदर हयात खान और मिस्टर फजलुलहक जिन्ना का खुला समर्थन नहीं कर रहे हैं। हिन्दू यदि अपना कर्तव्य नहीं निभाते तो वे वही परिणाम भुगतेंगे जिनके लिए वे आज यूरोप पर हंस रहे हैं और यूरोप की ही भांति नष्ट भी हो जाएंगे। हिन्दू जिस भूमि को युगों-युगों से अपनी पुण्यभूमि भारत वर्ष मानते रहे हैं, उसके दो टुकड़े करके एक मुस्लिम राष्टÑ और एक गैर मुस्लिम राष्टÑ बनाने की मांग उठने पर वे भौचक रह गए। वे मुस्लिम समुदाय के इस कथन से रुष्ट थे कि भारत के मुसलमान एक अलग राष्टÑ हैं। हिन्दुओं को लगता रहा है कि भारतीय सामाजिक जीवन की कुछ विशेषताएं दोनों समुदायों के बीच एकता के तारों का काम करती हैं। पर क्या इतना ही पर्याप्त था? डॉ. आंबेडकर कहते हैं- ‘यह निर्विवाद है कि अधिकांश मुसलमान उसी जाति के हैं जिसके हिन्दू हैं। इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि सभी मुसलमान एक ही भाषा नहीं बोलते और बहुत से तो वही बोलते हैं जो हिन्दू बोलते हैं। दोनों समुदायों में कई सामाजिक रिवाज भी एक समान हैं। यह भी सत्य है कि कुछ धार्मिक सत्य व प्रथाएं दोनों समुदायों में एक से हैं। परंतु प्रश्न यह है कि क्या इन सभी तत्वों से ही हिन्दू व मुसलमान एक राष्टÑ बन जाते हैं या कि क्या इनसे उनमें एक दूसरे से जुड़ने की इच्छा पैदा हुई है?’ ‘डॉ. आंबेडकर, पाकिस्तान एंड पार्टिशन आॅफ इण्डिया’, पृष्ठ 15 में उन्होंने कहा कि पहली बात तो यह है कि दोनों समुदायों में जो समान विशेषताएं इंगित की जाती हैं, वे दोनों समुदायों में सामाजिक ऐक्य स्थापित करने हेतु एक दूसरे के तौर-तरीकों को अपनाने या उन्हें आत्मसात करने के लिए किए गए किन्हीं सचेतन प्रयासों का परिणाम नहीं हैं। सच्चाई यह है कि ये समानताएं कुछ अनसोचे कारणों का परिणाम हैं। कुछ तो ये मतान्तरण की प्रक्रिया के अधूरी रह जाने से हैं। भारत जैसे देश में, जहां अधिकांश मुसलमान सवर्ण या असवर्ण हिन्दुओं में से बनाये गए हैं, इन मतान्तरित लोगों का इस्लामीकरण न तो पूर्ण हो सका, न प्रभावी। इसका कारण, परिवर्तित व्यक्तियों द्वारा विद्रोह का भय भी हो सकता है अथवा मतान्तरण के लिए मान जाने की स्थिति तक पहुंचाने का तरीका या मौलवियों की अपर्याप्त संख्या के कारण मजहबी पाठ पढ़ाने में रह गई कमी भी हो सकती है। इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि मुस्लिम समुदाय का बहुत बड़ा हिस्सा अपने धार्मिक-सामाजिक जीवन में यहां-वहां अपने हिन्दू मूल को प्रकट कर देता है। और, कुछ, यह सैकड़ों वर्षांे तक एक ही वातावरण में साथ रहने का भी प्रभाव है। समान वातावरण से समान प्रतिक्रियाएं पैदा होना अवश्यंभावी है और उस वातावरण के प्रति एक ही प्रकार की प्रतिक्रिया देते-देते व्यक्तियों की एक ही किस्म बन ही जाती है।
क्या कोई ऐसा ऐतिहासिक घटनाक्रम है जिसे हिन्दू और मुसलमान समान रूप से गौरव या व्यथा के विषय के रूप में याद रखे हुए हैं? समस्या की जड़ में यही प्रश्न है। यदि हिन्दू स्वयं को और मुसलमानों को एक ही राष्टÑ का अंग मानना चाहते हैं, तो उन्हें इसी प्रश्न का उत्तर देना होगा। दोनों समुदायों के बीच संबंधों के इस पक्ष पर दृष्टि डालें तो यही सामने आयेगा कि वे तो बस एक-दूसरे से युद्ध में रत दो सेनाओं की भांति रहे हैं। उनके बीच किसी साझी उपलब्धि की प्राप्ति के लिए मिलेजुले प्रयासों का कोई युग नहीं रहा। …जैसा कि भाई परमानन्द ने अपनी पुस्तिका ‘हिन्दू राष्टÑवादी आन्दोलन’ में उल्लेख किया है, ‘हिन्दू अपने इतिहास में पृथ्वीराज, राणा प्रताप, शिवाजी और बन्दा बैरागी के प्रति श्रद्धा रखते हैं, जिन्होंने इस भूमि की रक्षा और सम्मान के लिए मुसलमानों से संघर्ष किया, जबकि मुसलमान मुहम्मद बिन कासिम जैसे विदेशी हमलावरों और औरंगजेब जैसे शासकों को अपना राष्टÑनायक मानते हैं। धार्मिक क्षेत्र में हिन्दू रामायण, महाभारत और गीता से प्रेरणा पाते हैं। दूसरी ओर, मुसलमान अपनी प्रेरणाएं कुरान और हदीस से प्राप्त करते हैं। अत: जो बातें उन्हें एक सूत्र में बांधती हैं, उनसे अधिक शक्तिशाली वे बातें हैं, जो उन्हें बांटती हैं। हिन्दुओं और मुसलमानों के सामाजिक जीवन की कुछ विशेषताओं- समान जाति, भाषा व देश जैसी कुछ बातों- पर निर्भर करके हिन्दू उन बातों को आधारभूत और महत्वपूर्ण मानने की गलती कर रहे हैं जो केवल संयोगजनित और ऊपरी हैं। ये समानताएं तथाकथित और ऊपरी हैं। हिन्दुओं और मुसलमानों को जितना ये तथाकथित समानताएं मिलाती हैं, राजनीतिक व साम्प्रदायिक शत्रुताएं उससे कहीं अधिक बांटती हैं। दोनों समुदाय अपना अतीत यदि भूल पाते तो शायद संभावनाएं कुछ और होतीं।’ (पृ़ 17-18) डॉ. आंबेडकर की मान्यता थी कि हिन्दू-मुस्लिम संबंधों की आज की कड़वी सचाई जिस इतिहास में से निकली है, उसे समझना बहुत आवश्यक है। उनका विश्वास था कि सन् 711 में मुहम्मद बिन कासिम द्वारा सिंध पर किए गए आक्रमण से आरंभ हुए मुस्लिम सेनाओं के निरंतर आक्रमणों और आक्रमणकारियों द्वारा अपनाए गए तौर-तरीकों ने हिंदुओं और मुसलमानों के बीच ऐसी गहरी कड़वाहट पैदा कर रखी है, जिसे लगभग एक शताब्दी की राजनीतिक कार्रवाईयों ने भी न तो शांत किया है, न ही जिसे लोग भुला पाए हैं।
डॉ. बाबासाहेब लिखते हैं, क्योंकि, हमलों के साथ-साथ मंदिरों को नष्ट-भ्रष्ट किया गया, बलपूर्वक मतान्तरण कराए गए, धन-सम्पत्ति की लूट की गई, पुरुषों, महिलाओं, बच्चों को अतिशय अपमानित किया गया या गुलाम बना दिया गया। इसलिए इसमें आश्चर्य की बात क्या है कि इन आक्रमणों की स्मृतियां सदा ही बनी रहीं और मुसलमान उन्हें गर्व से तथा हिन्दू लज्जा एवं ग्लानि के साथ याद करते रहे हैं।
नि:संदेह, मुस्लिम हमलावर हिन्दुओं के विरुद्ध नफरत के गीत गाते हुए ही भारत की ओर आए थे। किन्तु, वे केवल नफरत के ये गीत गाकर और मार्ग में पड़ने वाले मंदिर तोड़कर ही वापस नहीं चले गए। ऐसा हुआ होता, तो यह वरदान होता। वे अपने अभियानों के इतने अस्थायी परिणामों से संतुष्ट नहीं थे। उन्होंने एक स्थायी कार्य भी किया, वह था इस्लाम का बीज बोने का कार्य। इस पौधे का असाधारण फैलाव हुआ है। (पृ. 47-48) डॉ. आंबेडकर ने डॉ. टाइटस की पुस्तक ‘इंडियन इस्लाम- ए रिलीजस हिस्ट्री आॅफ इस्लाम इन इंडिया’ और लेनपूल की ‘मेडिवल इण्डिया अंडर मोहमडन रूल’ से उद्धरण लेकर निम्न विवरण प्रस्तुत किया है। (पृ़ 36-46) सन् 711 का मुहम्मद बिन कासिम का पहला मुस्लिम आक्रमण देश पर उनका स्थायी कब्जा नहीं करवा पाया, क्योंकि बगदाद का खलीफा, जिसके हुक्म से यह आक्रमण किया गया था, नौवीं सदी के मध्य में इस दूर-दराज के प्रदेश सिंध से अपना सीधा नियंत्रण हटाने को विवश हो गया। इस वापसी के कुछ ही समय बाद सन् 1001 में महमूद गजनवी के भयंकर आक्रमण प्रारंभ हो गए, जो एक के बाद एक होते रहे। महमूद गजनवी की सन् 1030 में मृत्यु हो गई। परन्तु 30 वर्ष के अल्पकाल में उसने भारत पर सत्रह बार हमले किए। महमूद के बाद आया मुहम्मद गोरी, जिसने बर्बर आक्रमणों का अपना अभियान 1173 ई़ में आरंभ किया। सन् 1206 में वह मारा गया। 30 वर्ष महमूद गजनवी ने भारत का विनाश किया और तीस वर्ष तक मुहम्मद गोरी ने भी इस देश को वैसा ही उजाड़ा। उसके बाद चंगेज खान के मुगल गिरोहों के हमले होने लगे। ये गिरोह सर्वप्रथम सन् 1221 में आए। उस समय शीतऋतु में वे भारत की सीमा पर ही रुके रहे और अन्दर प्रविष्ट नहीं हुए। उसके बीस वर्ष बाद उन्होंने लाहौर पर धावा बोला और उसे लूट लिया। उनका सबसे भयंकर हमला सन् 1368 में तैमूर की अगुआई में हुआ था। फिर, 1526 में बाबर के रूप में एक नया हमलावर सामने आया। बाबर के बाद भी भारत पर आक्रमण रुके नहीं । दो हमले और हुए। 1738 में नादिर शाह की हमलावर सेनाओं ने धावा बोला जो सागर के रौद्र रूप जैसा था। उसके बाद सन् 1761 में अहमदशाह अब्दाली का आक्रमण हुआ जिसने पानीपत के युद्ध में मराठा सेनाओं को परास्त कर हिन्दुओं द्वारा मुस्लिम हमलावरों से अपनी हारी हुई धरती को वापस छीनने के प्रयास सदा के लिए समाप्त कर दिए।
ये मुस्लिम आक्रमण केवल लूटपाट और विजय की लालसा से ही नहीं किए गए थे। इनके पीछे एक और उद्देश्य था। मुहम्मद बिन कासिम का अभियान यों तो दंडात्मक स्वरूप का था और सिंध के राजा दाहिर को दंडित करने के उद्देश्य से किया गया था क्योंकि उसने सिंध के बन्दरगाह देवल पर अरब के एक समुद्री जहाज को जब्त करने के बाद उसके लिए मुआवजा देने से इनकार कर दिया था। पर, इसमें भी कोई संदेह नहीं कि इस अभियान का एक उद्देश्य हिन्दुओं की मूर्ति-पूजा और उनके बहुदेववाद पर करारा प्रहार था। राजा दाहिर के भतीजे, उसके योद्धाओं और बड़े अधिकारियों को मार डाला गया तथा काफिरों को या तो इस्लाम कबूल करवा दिया गया या उनका वध कर दिया गया है। मूर्तियों वाले मंदिरों के स्थान पर मस्जिदें और अन्य इबादतगाह बना दिये हैं, खुत्बा पढ़ा जाता है, अजान दी जाती है ताकि नमाज सही वक्त पर हो सके। सुबह-शाम तकबीर और अल्लाह-ओ-अकबर की तारीफ अता की जाती है। (डॉ. टाइटस की पुस्तक ‘इंडियन इस्लाम- ए रिलीजस हिस्ट्री आॅफ इस्लाम इन इंडिया’ के पृष्ठ 10 से उद्धृत)
यह संदेश, जिसके साथ राजा दाहिर का कटा सिर भी था, प्राप्त होने पर अज्जाज ने अपने सेनापति को यह उत्तर भेजा-
…खुदा का हुक्म है …काफिरों को कोई पनाह न दो, सिर्फ उनकी गर्दनें काटो। यह जान लो कि यह महान खुदा का हुक्म है।
बाबासाहेब लिखते हैं- महमूद गजनवी भी भारत पर अपने अनेक हमलों को जिहाद के रूप में ही देखता था। महमूद गजनवी के इतिहासकार अल-उत्बी ने इन हमलों का वर्णन करते हुए लिखा है-
उसने मूर्तियों वाले मंदिरों को ध्वस्त कर डाला और इस्लाम को स्थापित किया। उसने नगरों पर कब्जा किया, दूषित मान्यताओं वाले नीच लोगों को मार डाला, मूर्ति-पूजकों को नष्ट किया और मुसलमानों को संतोष प्रदान किया। फिर वह घर वापस हो लिया और इस्लाम की खातिर प्राप्त की गई अपनी फतहों का ऐलान किया और यह कसम खाई कि वह हिन्द के खिलाफ हर साल जिहाद छेड़ेगा। (संदर्भ वही, पृ़ 11)
मोहम्मद गोरी भी भारत पर अपने हमलों में इसी मजहबी उत्साह से प्रेरित होता था। इतिहासकार हसन निजामी ने उसके कारनामों का वर्णन इस प्रकार किया है-
उसने अपनी तलवार के जोर पर हिन्द की जमीन से काफिरत और पापाचार की गंदगी का सफाया कर दिया और उस सारे मुल्क को बहु ईश्वरवाद के कांटे व मूर्ति-पूजा की जलालत से छुटकारा दिलाया और अपने शाही जलवे तथा बेखौफ बहादुरी से एक भी मंदिर खड़ा नहीं छोड़ा। (संदर्भ वही, पृ़ 11)
तैमूर ने अपने संस्मरणों में बताया है कि भारत पर उसके हमलों का कारण क्या था- हिन्दुस्थान पर हमलों का मेरा उद्देश्य काफिरों के खिलाफ एक अभियान चलाना और उसके द्वारा उनकी काफिरत छुड़ा कर उन से मुहम्मद के हुक्म के अनुसार सचाई मान कबूल करवाना, उस जमीन से कुविश्वास और बहुदेववाद की गंदगी साफ कर उसे पाक बनाना तथा मंदिरों और मूर्तियों को उखाड़ फेंकना है, जिससे हम खुदा के सामने ईमान का साथ देने और उसके लिए लड़ने वाले गाजी और मुजाहिद बन जाएंगे। (लेन पूल की पुस्तक मेडिवल इंडिया के पृ़ 155 पर उद्धृत)
महमूद गजनवी ने प्रारंभ से ही ऐसे तरीके अपनाए जो हिन्दुओं के हृदयों में आतंक पैदा करें। सन् 1001 में राजा जयपाल की पराजय के बाद महमूद ने आदेश दिया कि राजा जयपाल को गलियों में घुमाया जाए ताकि उसके पुत्र और अन्य सरदार उसे लज्जा, दासत्व के बंधन और अपमान की अवस्था में देखें तथा इस्लाम का खौफ काफिरों के देश से होता हुआ चारों ओर फैल जाए।
लगता है, काफिरों के कत्लेआम से महमूद गजनवी को विशेष खुशी मिलती थी। सन् 1019 में चांद राय पर एक आक्रमण में अनेक काफिरों और सूर्य एवं अग्नि के उपासकों की हत्याएं करते-करते वे तृप्त नहीं हो गए। इतिहासकार इसके आगे नादानी में लिखता है कि हिन्दू सेनाओं के हाथ खुद-बखुद मूर्तियों को त्याग कर इस्लाम की खिदमत को श्रेष्ठ मानते हुए महमूद के पास आ गए। (इंडियन इस्लाम, पृ़ 22)
डॉ. बाबसाहेब ने इस प्रकार इस्लामी आक्रांताओं की क्रूरता का वर्णन करते हुए लिखा- कुतबुद्दीन ऐबक ने भी कहा जाता है लगभग एक हजार मंदिर गिराए और उनके स्थान पर मस्जिदें बनवाई। उसने दिल्ली की जामा मस्जिद बनवाई और उस पर हाथियों द्वारा गिरवाए गए मंदिरों से प्राप्त पत्थर और सोना जड़वाया तथा उन पर (कुरान के) खुदाई फरमान खुदवाए। इस आततायी तरीके का योजनाबद्ध ढंग से प्रयोग किए जाने का सबूत दिल्ली की इसी मस्जिद के पूर्वी प्रवेश द्वार पर विद्यमान उत्कीर्णन से मिलता है, जिसमें लिखा है कि सत्ताईस मंदिरों के मलबे से इस मस्जिद को बनाया गया। (इण्डियन इस्लाम)
अमीर खुसरो बताते हैं कि अलाउद्दीन ने, कुतुबुद्दीन द्वारा बनवाई गई मीनार के समकक्ष एक दूसरी मीनार बनाने के उत्साह में, न केवल पहाड़ों से पत्थर खुदवाए, बल्कि काफिरों के मंदिर तोड़कर भी सामग्री प्राप्त की। अपनी दक्षिण विजय के दौरान, अलाउद्दीन ने मंदिर विध्वंस का अभियान उसी प्रकार चालू रखा जैसे अनेक पूर्ववर्ती हमलावरों ने उत्तर भारत में किया था।
सुल्तान फिरोजशाह ने अपनी फतुहात में बहुत सजीव चित्रण कर के बताया है कि उन हिन्दुओं का उसने क्या किया जिन्होंने अपने लिए नए मंदिर बना लेने का दुस्साहस किया था। जब हिन्दुओं ने नगर (दिल्ली) में और आसपास ऐसा किया (दुबारा मंदिर बनाये), जो कि पैगम्बर के कानून के खिलाफ था, जिसमें ऐसा सहन न करने को कहा गया है, मैंने खुदाई मार्गदर्शन में इन भवनों को तोड़ डाला और उन काफिरों के नेताओं को कत्ल कर दिया और बाकी को कोड़ों की सजा दी, जब तक कि वह बुराई पूरी तरह समाप्त नहीं हो गई और जहां पर काफिर मूर्ति पूजक मूर्तियों की पूजा करते थे, वहां अब खुदा की मेहरबानी से मुसलमान सच्चे खुदा की इबादत करते हैं।
यहां तक कि शाहजहां के शासन काल में भी उन मंदिरों के विध्वंस का वर्णन हम पढ़ते हैं, जिन्हें हिन्दुओं ने दुबारा बनाना प्रारंभ किया। हिन्दुओं के पवित्र स्थलों पर सीधे आक्रमणों का वर्णन करते हुए कहा गया है कि बादशाह (अकबर) के शासनकाल में काफिरों के गढ़ बनारस में कई मंदिर बनाने प्रारंभ किए गए थे, पर पूरे नहीं हो सके थे। उन मंदिरों को काफिर अब पूरा करना चाहते हैं। बादशाह ने हुक्म दिया कि बनारस में और उनकी सल्तनत में आने वाले सारे क्षेत्र में किसी भी स्थान पर जो भी मंदिर बनाने प्रारंभ किए गए थे, वे सब गिरा दिये जाएं। इलाहाबाद सूबे से सूचना मिली कि बनारस जिले में 76 मंदिर ध्वस्त कर दिये गए। (इण्डियन इस्लाम)
मूर्ति पूजा को उखाड़ फेंकने का अंतिम दुष्प्रयास औरंगजेब को करना था। मा अतहिर-ए-आलमगीरी के लेखक ने हिन्दुओं के धार्मिक कथा-उपदेश समाप्त करने और मंदिरों को नष्ट करने के औरंगजेब के प्रयत्नों का वर्णन दर्प से फूलते इन शब्दों में किया है।
‘अप्रैल 1669 में औरंगजेब को पता लगा कि थट्ठा, मुल्तान और बनारस सूबों में, विशेषकर बनारस में, मूर्ख ब्राह्मण अपने विद्यालयों में फिजूल की किताबें पढ़ाया करते हैं और वहां मुसलमान व हिन्दू दोनों ही दूर-दूर से अध्ययन के लिए आया करते हैं। ईमान के संचालक ने सूबों के गवर्नरों को हुक्म जारी किया कि काफिरों के सभी विद्यालयों और मंदिरों को पक्के इरादे से गिरा दिया जाए, उन्हें हुक्म हुआ कि मूर्ति पूजा की शिक्षा और प्रथा को पूर्णतया रोका जाए। बाद में बादशाह को बताया गया कि शाही अधिकारियों ने बनारस का विश्वनाथ मंदिर गिरा दिया है।’
जैसा कि डॉ. टाइटस ने लिखा है, महमूद गजनवी और तैमूर जैसे आक्रमणकारियों की रुचि बलात् मतान्तरण से भी अधिक मूर्तिभंजन, लूटपाट, हिन्दुओं को गुलाम बनाने या इस्लामी तलवार से उन्हें दोजख (नरक) में झोंकने में थी। परंतु, जब मुस्लिम राजसत्ता स्थायी रूप से स्थापित हो गई, तब अधिक से अधिक हिन्दुओं को मुसलमान बनाना पहली आवश्यकता बन गई। इस्लाम को पूरे भारत का मजहब बनाना राज्यनीति का अंग बन गया।
कुतुबुद्दीन ने, जिसकी मंदिरों के विध्वंस के लिए लगभग गजनी के महमूद जैसी ही बहुत बड़ी प्रसिद्धि थी, बारहवीं शती के अंतिम भाग और तेरहवीं शती के प्रारंभ में मतान्तरण कराने के लिए बारम्बार बल प्रयोग अवश्य किया होगा। एक उदाहरण लिया जा सकता है। सन् 1194 में वह कोइल (अलीगढ़) के निकट पहुंचा तो किले में जो बुद्धिमान एवं प्रखर लोग थे, उन्हें मुसलमान बना लिया गया और शेष सभी तलवार से काट डाले गए।’
बाबासाहेब लिखते हैं, ‘महमूद ने न केवल मंदिर तोड़े बल्कि उसने जीते गए हिन्दुओं को गुलाम बनाने की नीति ही बना रखी थी।’ डॉ. टाइटस के शब्दों में-
‘भारत में इस्लाम के प्रवेश के प्रारंभिक काल में, न केवल काफिरों के कत्लेआम और मंदिर तोड़ने का काम किया गया बल्कि जैसा कि हम देख चुके हैं, बहुत से पराजित हिन्दुओं को गुलामी में धकेला गया। इन अभियानों में हमलावर सरदारों और सामान्य सैनिकों के लिए एक विशेष आकर्षण लूट के माल को बांट लेना होता था। ऐसा प्रतीत होता है कि महमूद ने काफिरों का नरसंहार उनके मंदिरों का विध्वंस, उन्हें पकड़ कर गुलाम बनाना, लोगों की और विशेषकर मंदिरों एवं पुजारियों की संपति लूटना अपने अभियानों का मुख्य उद्देश्य बना रखा था। कहा जाता है कि अपने प्रथम आक्रमण के समय लूट का बहुत माल उसके हाथ लगा और पांच लाख सुन्दर हिन्दू पुरुषों व महिलाओं को गुलाम बनाकर गजनी ले जाया गया।
महमूद ने जब सन् 1017 में कन्नौज को लूटा तो वह इतनी संपदा और इतने लोगों को बंदी बनाकर ले गया कि गिनने वालों की अंगुलियां थक गई होंगी।
कोई भी हिन्दू सिर उठाकर नहीं चल सकता था। लगान वसूलने के लिए पिटाई, कैद और बेड़ियां, ये सब तरीके काम में लाए जाते थे।’
तो ऐसी है महमूद गजनवी के आने से लेकर अहमद शाह अब्दाली की वापसी (1763) तक के 762 वर्षों की कहानी। (पाकिस्तान एंड पार्टिशन आॅफ इण्डिया, पृ़ 36-46)
इस्लाम की मूलभूत राजनीतिक प्रेरणाओं के बारे में डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर लिखते हैं, ‘मुस्लिम कानून के अनुसार दुनिया दो पक्षों में बंटी है- दारुल इस्लाम और दारुल हरब। वह देश दारुल इस्लाम कहलाता है, जहां मुसलमानों का राज हो। दारुल हरब वे देश हैं जहां मुसलमान रहते तो हैं, पर वे वहां के शासक नहीं हैं। इस्लामी कानून के अनुसार भारत देश हिन्दुओं और मुसलमानों की साझी मातृभूमि नहीं हो सकता है। वह मुसलमानों की जमीन तो हो सकती है, पर बराबरी से रहते हिन्दुओं और मुसलमानों की भूमि नहीं हो सकती। यह मुसलमानों की जमीन भी केवल तब हो सकती है, जब इस पर मुसलमानों का राज हो। जिस क्षण इस भूमि पर किसी गैर-मुस्लिम का अधिकार हो जाता है, यह मुसलमानों की जमीन नहीं रहती। दारुल इस्लाम के स्थान पर यह दारुल हरब हो जाती है।’
यह न समझा जाए कि ऐसा विचार कोरी किताबी अभिरुचि की बात है क्योंकि इसमें मुसलमानों के व्यवहार को प्रभावित करने वाली कारगर शक्ति बनने की क्षमता है। इस विचार ने मुसलमानों के व्यवहार पर उस समय भी बड़ा प्रभाव डाला था जब अंग्रेजों ने भारत पर कब्जा किया। ब्रिटिश कब्जे से हिन्दुओं के मनों में तो कोई पाप-आशंका नहीं उत्पन्न हुई, किन्तु मुसलमानों के सामने तुरंत यह प्रश्न उठ खड़ा हुआ कि क्या अब हिन्दुस्तान मुसलमानों के निवास करने योग्य देश रह गया है? मुस्लिम समुदाय के भीतर यह चर्चा प्रारंभ की गई, जो डॉ. टाइटस कहते हैं, लगभग चार वर्ष तक चली कि भारत दारुल हरब है या दारुल इस्लाम? कुछ अधिक उत्साही तत्वों ने सैयद अहम दशाहिद के नेतृत्व में सचमुच ही जिहाद की घोषणा कर दी, उन्होंने मुसलमानों को सिखाया कि हिजरत करके मुस्लिम राज वाले देशों को चले जाओ, और हिन्दुस्थान भर में अपना आन्दोलन चलाया।
बाबासाहेब ने एएमयू के संस्थापक सर सैयद अहमद का सांप्रदायिक चेहरा भी बेनकाब किया है। बाबासाहेब लिखते हैं, ‘सर सैयद अहमद ने अपनी सारी प्रतिभा लगाकर मुसलमानों को यह समझाया कि वे हिन्दुस्थान को दारुल-हरब केवल इस कारण न मान लें कि यहां अब मुस्लिम राज नहीं रहा। उन्होंने मुसलमानों से आग्रह किया कि हिन्दुस्थान को दारुल-इस्लाम ही मानें, क्योंकि उन्हें अपने मजहब के अनुसार सभी रस्मो-रिवाज पूरे करने की आजादी है। हिजरत करने का आन्दोलन कुछ समय के लिए दब गया। परन्तु हिन्दुस्थान दारुल हरब है, यह सिद्धांत छोड़ नहीं दिया गया… यह भी उल्लेखनीय है कि दारुल हरब से अपने आपको मुक्त करने के लिए मुसलमानों के पास केवल हिजरत ही एकमात्र मार्ग नहीं है। मुस्लिम कानून का एक और आदेश है- जिहाद छेड़ने का, जिसके द्वारा मुस्लिम शासक कर्तव्यबद्ध है कि वह इस्लाम के राज को तब तक फैलाएं, जब तक कि पूरी दुनिया इस की हुकूमत में नहीं आ जाती। सारे संसार को जब दो पक्षों में बांट दिया है- एक दारुल इस्लाम और दूसरा हरब तो सभी देश दो में से किसी एक श्रेणी में आएंगे ही। दारुल हरब को दारुल इस्लाम में बदलना हर उस मुस्लिम शासक का कर्तव्य है, जिसमें ऐसा करने का सामर्थ्य हो।
1857 में मुसलमानों ने तो विद्रोह कर के भारत को फिर से दारुल इस्लाम में परिणित करने का प्रयास किया था (हिन्दुओं के लिए भले ही वह देश की स्वाधीनता का संग्राम रहा हो)।
डॉ. आंबेडकर कहते हैं, ‘वे जिहाद केवल छेड़ ही नहीं सकते, बल्कि जिहाद की सफलता के लिए विदेशी मुस्लिम शक्ति को सहायता के लिए बुला भी सकते हैं। और, इसी प्रकार यदि भारत के विरुद्ध कोई विदेशी मुस्लिम शक्ति ही जिहाद छेड़ना चाहती है, तो मुसलमान उसके प्रयास की सफलता के लिए सहायता भी कर सकते हैं।’
एक तीसरा सिद्धांत, जिसकी चर्चा करना प्रासंगिक होगा यह है कि इस्लाम भूक्षेत्रीय नातों को नहीं मानता। इसके रिश्ते-नाते सामाजिक और मजहबी होते हैं, अत: दैशिक सीमाओं को नहीं मानते। अन्तरराष्टÑीय इस्लाम का यही आधार है। इसी से प्रेरित हिन्दुस्तान का हर मुसलमान कहता है कि वह मुसलमान पहले है और हिन्दुस्थानी बाद में। यही है वह भावना जो स्पष्ट कर देती है कि क्यों भारतीय मुसलमानों ने भारत की प्रगति के कामों में इतना कम भाग लिया है, जब कि वे मुस्लिम देशों के पक्ष का समर्थन करने में अपनी सारी शक्ति लगा देते हैं और क्यों उनके ख्यालों में मुस्लिम देशों का स्थान पहला और भारत का दूसरा है।… यदि अन्तरराष्टÑीय इस्लामवाद का यह मजहबपरस्त रूप एक अन्तरराष्टÑीय इस्लामी राजनीतिक स्वरूप अपनाने की ओर बढ़ता है, तो इसे अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता। (पाकिस्तान एंड पार्टिशन आॅफ इंडिया, पृ़ 287-91)
इस प्रकार की अपनी वैचारिक प्रेरणाओं के प्रभाव में रहते हुए मुसलमान किस सीमा तक ऐसी सरकार की सत्ता को स्वीकारेंगे जिसको बनाने और चलाने वाले हिन्दू होंगे? यह प्रश्न भी डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने उठाया। इस संदर्भ में उन्होंने इस बात का वर्णन किया कि मुसलमान हिन्दुओं को किस दृष्टि से देखते हैं। …मुसलमान की दृष्टि में हिन्दू काफिर है और काफिर सम्मान के योग्य नहीं होता। वह निष्ट जन्मा और प्रतिष्ठाहीन होता है। इसीलिए काफिर द्वारा शासित देश मुसलमान के लिए दारुल हरब होता है। (संदर्भ वही, पृ़ 294)
डॉ. आंबेडकर कुछ उदाहरण भी देते हैं- खिलाफत आन्दोलन के दिनों में भी, जब हिन्दू लोग मुसलमानों की इतनी अधिक सहायता कर रहे थे, मुसलमान यह मानना नहीं भूले कि उनकी तुलना में हिंदू नीची और घटिया जाति के हैं। 1924 में श्री गांधी के कारागार से मुक्त होने पर हर्ष मनाने के लिए आयोजित एक समारोह में घटी एक अनोखी घटना का विवरण समाचार पत्रों में छपा। समारोह हकीम अजमल खां द्वारा दिल्ली में संचालित यूनानी तिब्बि
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