अभिषेक कुमार
लोकतंत्र में हठधर्मिता के लिए कोई स्थान नहीं होता और ऐसा होना भी नहीं चाहिए। जड़ता एवं टकराव लोकतंत्र की प्रकृति-प्रवृत्ति नहीं होती। संवाद से सहमति और सहमति से समाधन की दिशा में सतत रूप से लगे रहना ही लोकतंत्र की मूल भावना है। इस फैसले को किसी भी पक्ष की हार-जीत के रूप में देखा जाना लोकतांत्रिक प्रक्रिया एवं परंपराओं के विरुद्ध होता है। बड़े हितों को साधने के लिए कभी-कभी दो कदम पीछे हटना पड़ता है। यहां बड़ा हित राष्ट्रीय एकता-अखंडता और सामाजिक सौहार्द को हर हाल में बनाए रखना है। कृषि कानूनों की आड़ में जिस प्रकार देश विरोधी ताकतें राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता को चोट पहुंचाने की फिराक में थीं, उसे देखते हुए सरकार द्वारा इन कानूनों को वापस लेना एकदम सही फैसला है। केवल खुफिया सूत्र ही नहीं, अपितु टूलकिट प्रकरण, खालिस्तानियों की नए सिरे से सक्रियता और बिगडै़ल पड़ोसी मुल्कों चीन-पाकिस्तान समेत कुछ अन्य देशों के नेताआं एवं तमाम नामचीन हस्तियों की प्रतिक्रियाएं किसी बड़ी साजिश का ही संकेत कर रही थीं। सरकार ने अपने इस एक फैसले से ऐसी सभी देश-विरोधी ताकतों के मंसूबों पर पानी फेर दिया है। वैसे भी ये कानून सर्वोच्च न्यायालय में विचारधीन थे। सरकार ने भी उन्हें कुछ वर्षों के लिए स्थगित कर रखा था। यानी ये कानून वैधनिक रूप से वैसे भी प्रभावी नहीं थे। जानबूझकर राजनीति के चक्कर में अवसरवादी लोग इसको मुद्दा बनाये हुये थे और अभी भी बनाए रखना चाहते हैं।
जहां तक खेती-किसानी के हितों का प्रश्न है तो केंद्र सरकार ने फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में लगातार वृद्धि की है। सरकार ने अपने नीति-निर्णय-नीयत में पहले भी किसानों के हितों एवं सरोकारों को प्राथमिकता दी है और आगे भी सर्वोच्च प्राथमिकता देती रहेगी। आंदोलनकारियों को याद रखना चाहिए कि इस देश ने कभी अराजकता के व्याकरण को नहीं सीखा। हिंसा के पाठों को कभी नहीं दोहराया। सड़कों और सार्वजनिक स्थलों पर कब्जा करने और राष्ट्रीय राजधानी को बंधक बनाने की प्रवृत्ति अंततः लोकतंत्र को अराजक-तंत्र में तब्दील कर देगी जो कि गुंडई तथा नंगई का विकृत उदाहरण है।
जब सरकार ने अब तीनों प्रमुख मांगे मान ली हैं तो लगातार नई-नई और अव्यावहारिक मांगों को सामने रखना लोकतंत्र को कमजोर करने का ही काम करेगा। पूरी दुनिया में देश की छवि धूमिल होगी। यह निर्विवाद सत्य है कि असली अन्नदाता कभी भी राष्ट्रीय ध्वज का अपमान नहीं कर सकता। किसानों की आड़ में छिपे अराजक तत्वों को देश खूब पहचानता है। किसान नेताओं को यह समझना होगा कि उनके आंदोलन की दिशा कई बार भटकी है। उनकी मुहिम ने कई बार देशवासियों के समक्ष संकट पैदा किए, दिल्ली में लोगों की आवाजाही दूभर हो गई है। प्रभावित इलाकों में रोजगार-व्यापार पर आघात हुए हैं।
आंदोलन का विरोध कर रही कांग्रेस ईमानदारी से आकलन करे कि उसके इतने लंबे शासन के बावजूद अन्नदाता की ऐसी स्थिति क्यों बनी रही ? किसान क्यों कर्ज के जाल में फंसे रहे? क्यों आत्महत्या करते रहे? राजनीतिक बिरादरी की स्मरणशक्ति भले कमजोर हो, अवसरवादी हो, पलायनवादी हो, पर जनता सबका लेखाजोखा रखती है। वह जानती है कि कौन उसके असली हितैषी हैं और कौन नकली।
अराजकता का दौर
इस आंदोलन में शामिल लोगों ने सामूहिक दुष्कर्म किया, एक ग्रामीण मुकेश कुमार को जिंदा जलाया, दलित भाई लखबीर सिंह के हाथ पैर काटकर बेरहमी से मारा। इसके अलावा कई और अराजक घटनाओं को अंजाम देने के साथ 26 जनवरी को लालकिले पर चढ़ाई कर हिंसा का नंगा नाच भी किया गया। ऐसी ही घटना अमेरिका में भी हुई थी।
इनमें से दो दंगाइयों को यहां 41-41 महीने की सजा सुनाई गई। जब अमेरिका में दंगाइयों को सजा सुनाई जा रही थी, तब अमरिंदर के उत्तराधिकारी चरणजीत सिह चन्नी लालकिले की हिंसा में आरोपित 83 दंगाइयों को दो-दो लाख रुपये का मुआवजा देने की घोषणा कर रहे थे। यह विडंबना है विपक्षी राजनीति की। अब इस स्तर तक चले गये हैं ये लोग। अब तो कानून भी वापस हो गये। अगर कानून वापसी की घोषणा के बाद इन दंगाइयों को माफ करने की मुहिम छिड़ जाए तो किसी को भी हैरानी नहीं होनी चाहिए।
भारी पड़ा भीड़तंत्र
प्रधानमंत्री ने एक घर के मुखिया की तरह भावुक होते हुये कहा कि ‘शायद हमारी तपस्या में कोई कमी रही होगी, जिस कारण दीये के प्रकाश जैसा सत्य हम कुछ किसान भाइयों को समझा नहीं पाए।’ यह एक भावुक बयान था, लेकिन आखिर किसके सामने? भीड़तंत्र के सामने। भीडतंत्र के आगे ऐसी भावुकता के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए। प्रधनमंत्री की भावुक अपील का भी इन लोगों ने मजाक बनाया। ऐसे मानसिक रोगी हैं ये लोग।
कृषि कानूनों की वापसी ने फिर से यह साबित कर दिया कि लोकतंत्र में सही फैसले लेना और उन्हें लागू करना कठिन होता है। इस पर भी बहस होनी चाहिए कि विपक्षी और खासकर कांग्रेस ने जो किया, वह कितना सही है? क्योंकि कुछ न कर पाने की हताशा दिनों दिन इस पार्टी को कुंठित करती जा रही है। चुनाव न जीत पाने की तड़प ने कांग्रेस को खत्म सा कर दिया है। कांग्रेस यह मानने को तैयार ही नहीं है कि उसकी विश्वसनीयता खत्म सी हो गई हैं; अब उनकी फरेबी, बातों पर कोई यकीन नहीं करता। इन कानूनों की वापसी की घोषणा पर खुशी जताना एक तरह से खेती और किसानों की बर्बादी का जश्न मनाना है। अब किसानों की मुश्किलें और अधिक बढ़ना तय है। किसी को भी अपना उत्पादन अपनी मर्जी से बेचने न देना एक प्रकार से उसे गुलाम बनाए रखना ही है।
ढाई राज्यों का आंदोलन
महज ढाई राज्यों (पंजाब, हरियाणा, उ.प्र. के कुछ चुनिंदा जिले) के समर्थ किसानों की अगुआई करते हुए देश के 86 प्रतिशत किसानों के हितों की बलि लेने पर आमादा संयुक्त किसान मोर्चे की नई मांगों से यदि कुछ स्पष्ट हो रहा है तो वह यही है कि वे सड़कों पर बैठे रहने वाले हैं और उनकी मांगे सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती ही जा रही हैं। इस मोर्च को समर्थन देने वाले विपक्षी दल भी यही चाह रहे हैं कि किसान संगठन आगामी विधनसभा चुनावों तक सड़कों पर बैठे रहे और मोदी सरकार के साथ आम लोगों की नाक में दम करते रहें। वैसे भी इस आंदोलन की राजनीतिक प्रवृत्ति किसी से छुपी नहीं हैं। पंजाब और उ.प्र. में चुनाव सामने हैं। इन चुनावों तक नाटकबाजी होना तय है।
बहरहाल, जो प्रधानमंत्री नोटबंदी सरीखे ऐतिहासिक फैसले से पीछे नहीं हटा, जो प्रधानमंत्री 370 की समाप्ति सरीखे ऐतिहासिक फैसले से पीछे नहीं हटा, जो प्रधानमंत्री एक नहीं 2 बार पाकिस्तान की सीमा में घुसकर उसके जबड़े तोड़ने के फैसले से पीछे नहीं हटा, जिस प्रधानमंत्री के शौर्य का उल्लेख पाकिस्तानी संसद में इस जिक्र के साथ हुआ हो कि उसके डर से पाकिस्तानी आर्मी चीफ और विदेश मंत्री की टांगे कांप रही थीं, वह प्रधानमंत्री कुछ सौ या कुछ हजार खालिस्तानी गुंडों और उनके गुर्गों के आंदोलन से डर गया, यह सोच कुछ कायर कुटिल धूर्तों की हो सकती है, मैं ऐसा नहीं सोचता।
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