''किसानेां के एक साल के आंदोलन से खास कर दिल्ली और उसके पास के राज्यों में लगभग 60 हजार करोड़ के व्यापार का नुकसान हुआ है। जो निश्चित रूप से देश की अर्थव्यवस्था और व्यापार के लिए बड़ा प्रश्न है। अब जबकि केन्द्र सरकार ने किसानों की मांगे मानकर तीनों कृषि कानूनों को वापस ले लिया है, तो किसानों का कोई औचित्य नहीं बनता कि वे सड़क पर अब भी बैठें। उन्हें सड़क खाली कर देनी चाहिए, ऐसा हमारा मानना है।'' द कन्फेडरेशन आफ आल इंडिया ट्रेडर्स के महासचिव प्रवीण खंडेलवाल का यह बयान जहां एक तरफ 60 हजार करोड़ के उस व्यावसायी नुकसान की तरफ संकेत कर रहा है, जिसके दम पर सैकड़ों निम्न मध्यम वर्गीय परिवार का चुल्हा जलता। यदि दिल्ली और उसके आस-पास लोगों का रोजगार छीना और बेरोजगारी बढ़ी तो उसमें किसान आंदोलन चलाने वालों को समझना चाहिए कि उनकी भूमिका भी इसमें शामिल है। यही वजह रही कि पंजाब और हरियाणा से आने वाले किसानों को दिल्ली वालों का समर्थन नहीं मिल पाया। क्योंकि कथित किसान नेताओं को लेकर यह बात बहुत पहले ही स्पष्ट हो गई थी कि भोले—भाले किसान चाहे इनके बहकावे में सिंघु बोर्डर तक आ गए हों, लेकिन इनके नेताओं का उद्देश्य खेती से जुड़ा नहीं है, बल्कि वे राजनीतिक उद्देश्य से यहां आए हुए हैं। उन्हें तीन कृषि कानूनों से कभी कोई मतलब नहीं था। इस बात को केन्द्र सरकार ने साबित कर दिया। अब किसानों के बीच ही उनके नेता एक्सपोज हो गए। कल तक जो नेता तीन कानूनों को रद्द करने की रट लगाए हुए थे। आज उनके बयानों में तीन कानून का कोई जिक्र ही नहीं है। खंडेलवाल आगे कहते हैं कि इसमें कोई दो राय नहीं है कि आजादी के 75 वर्ष के बाद भी किसान देश में नुकसान की खेती कर रहा है। उसकी खेती को कैसे लाभ की खेती में बदला जाए, उसके लिए जितने भी सेक्टर खेती से संबंधित हैं, सब सरकार के साथ बैठें तो हम सब मिलकर उसका हल निकालेंगे कि खेती को कैसे लाभ की खेती में बदला जाए। किसानों की खेती को लाभ की खेती में परिवर्तित करेंगे। और जो किसान प्रतिदिन नई—नई मांग उठा रहे हैं, उनसे हमारा आग्रह है कि किसान एक बार अपना आंदोलन समाप्त करें और सरकार के साथ बैठकर बातचीत करें। बातचीत से हर समस्या का हल निकाला जा सकता है। श्री खंडेलवाल ठीक कहते हैं कि बातचीत से हर समस्या का हल निकलेगा। लेकिन सवाल यह है कि समाधान की बात तो वहां होती, जहां समाधान किसी को चाहिए हो। जिन्हें 2022 और 2024 में इस्तेमाल करने के लिए बैठाया, उनसे किसी प्रकार के समझौते की उम्मीद भी कैसे की जा सकती है? अब इनकी वापसी का एक ही रास्ता है कि उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ की बहुमत के पुराने रिकॉर्ड को तोड़ती हुई वापसी हो जाए।
रेलवे की ओर से यह बताया गया है कि इस साल अक्टूबर तक के महीने में करोड़ों का नुकसान रेलवे को उठाना पड़ा। सबसे अधिक नुकसान नार्दन रेलवे (22 करोड़ 58 लाख रुपये) के क्षेत्र में हुआ। जहां 1212 धरना-प्रदर्शन हुए। इस वजह से रेलवे को 37 करोड़ रुपये का नुकसान उठाना पड़ा।। इस आंदोलन ने कितने लोगों की नौकरी छीन ली और देश को कितने करोड़ रुपए का नुकसान पहुंचाया। इसका कोई ठीक—ठीक आंकड़ा अब तक सामने नहीं आया।
राज्यसभा में एक लिखित प्रश्न का उत्तर देते हुए एक दिसम्बर को सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी ने कहा कि इस विरोध प्रदर्शन ने अक्टूबर 2020 से पथकर वसूली को प्रभावित करना प्रारंभ कर दिया था। सिलसिला पंजाब से प्रारंभ हुआ, जहां किसानों द्वारा टोल प्लाजा के परिचालन को ठप्प कर दिया गया था। गडकरी के अनुसार, पंजाब से प्रारंभ होकर यह पूरे हरियाणा के पड़ोसी राज्यों और राजस्थान के कुछ हिस्सों में फैल गया। किसान आंदोलन के कारण 60-65 एनएच टोल प्लाजा के संचालन प्रभावित हुए, जिसके परिणामस्वरूप 2,731 करोड़ रुपये के टोल संग्रह का सीधा—सीधा नुकसान हुआ।
एक अनुमान के अनुसार इस आंदोलन की वजह से 7000 के आस-पास उद्योग प्रभावित हुए। वास्तव में किसानों का कथित आंदोलन गरीब विरोधी ही साबित हुआ, क्योंकि इस आंदोलन ने सबसे अधिक निम्न मध्यम वर्गीय लोगों को प्रभावित किया। एसोचैम के अनुमान पर विश्वास करें तो कुछ महीने पहले उसने पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर जैसे राज्यों में चल रहे किसान आंदोलन की वजह से हर दिन करीब 3,500 करोड़ रुपये के नुकसान की बात कही गई थी। पंजाब हरियाणा दिल्ली से लगे जितने भी राज्य हैं, उन्होंने आंदोलन की सबसे अधिक कीमत दी है। एक साल में इस आंदोलन ने देश की इकोनॉमी को अरबों रुपये का नुकसान पहुंचाया है।
इस बात में कोई दो राय नहीं है कि किसानों का छोटा सा वर्ग तीन कृषि कानून से असंतुष्ट था। सबका साथ—सबका विकास पर विश्वास करने वाली सरकार के मुखिया ने उस छोटे से वर्ग को भी साथ लेने के उद्देश्य से तीन कानून को हटाए जाने की मांग मान ली लेकिन उस समूह का उद्देश्य कानून वापसी था ही नहीं। अब वे प्रतिदिन नई-नई मांगों के साथ सामने आ रहे हैं। मतलब साफ है कि 2022 और 2024 के लिए कोई इन किसानों का इस्तेमाल कर रहा है।
इन कथित किसान नेताओं को एक दिसम्बर को अलीगढ़ में जाकर एक बार देख आना चाहिए था कि वह जिस समूह का नेतृत्व कर रहे हैं, वह वास्तव में एक छोटा समूह है। सिर्फ एक जिले के किसान भाजपा किसान मोर्चा के आहृवान पर नुमाइश मैदान से निकले थे। जब वह सड़क पर निकले तो काफिला खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था। यात्रा में शामिल किसानों का मानना था कि किसान हमेशा देश के लिए मर मिटने वाला रहा है। वह राष्ट्रभावी विचारधारा को समर्पित रहा है। ऐसे में वह कोई ऐसा काम कर ही नहीं सकता जिससे देशहित प्रभावित हो। वह हमेशा देश के साथ ही खड़ा रहा है। और आगे भी हमेशा देश के साथ ही खड़ा मिलेगा।
अलीगढ़ की किसान ट्रैक्टर रैली एक संदेश है, उन भारतीयों के लिए जिन्हें लगता है कि सिंघु बॉर्डर पर जमीन कब्जा करके, आम आदमी का रास्ता रोक कर बैठे लोग ही किसान हैं। इस कथित किसान आंदोलन ने तो देश को अरबों रुपए का नुकसान पहुंचाया है। हजारों लोगों की नौकरी जाने की वजह बना है। क्या ये किसान नेता अपने किए के लिए भारत से माफी मांगेंगे?
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