संघ में घोष की विकास यात्रा

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स्वयंसेवकों ने घोष वाद्यों को स्वदेशी नाम दिया, उन्हें अपनी संगीत परंपरा के अनुकूल बनाकर उनका भारतीयकरण किया। एशियाड के उद्घाटन समारोह में नौसेना दल ने स्वयंसेवकों द्वारा निर्मित रचना शिवराज का वादन किया था

डॉ. रामकिशोर उपाध्याय

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ स्थापना 1925 में हुई। एक रोचक तथ्य यह है कि संघ का नामकरण इसकी स्थापना के बाद सर्व सम्मति या कहें कि उस समय के स्वयंसेवकों के सामूहिक निर्णय से हुआ। संघ कार्य का विस्तार भी देश, काल व परिस्थिति के अनुरूप समाजोपयोगी व प्रासंगिकता के अनुरूप बड़ी सहजता से होता गया। केवल व्यायाम व सामान्य चर्चा से आरंभ हुई शाखा में धीरे-धीरे शारीरिक और बौद्धिक कार्यक्रम होने लगे। शारीरिक व्यायाम में धीरे-धीरे समता और संचलन का अभ्यास आरंभ हुआ।

संचलन के समय शारीरिक विभाग ने विचार किया कि यदि संचलन के साथ घोष वाद्य का प्रयोग किया जाए तो इसकी रोचकता, एकरूपता, सांगिकता व उत्साह में चमत्कारिक परिवर्तन हो सकता है। यह स्वयंसेवकों की इच्छाशक्ति का ही परिणाम था कि संगठन की स्थापना के मात्र दो वर्ष बाद 1927 में शारीरिक विभाग में घोष भी शामिल हो गया।

यह इतना आसान कार्य नहीं था। उस समय दो चुनौतियां थीं- पहला, संचलन में काम आने वाले घोष वाद्य महंगे थे और सेना के पास हुआ करते थे और दूसरा उसके कुशल प्रशिक्षक भी सैन्य अधिकारी ही होते थे।

संघ के पास न तो इतना धन था कि वाद्य यंत्र खरीद सके और उस पर भी यह राष्ट्रभक्तों का ऐसा संगठन था, जिसके संस्थापक कांग्रेस के आंदोलनों से लेकर बंगाल के क्रांतिकारियों के साथ काम कर चुके थे। इसलिए किसी सैन्य अधिकारी से स्वयंसेवकों को प्रशिक्षित कराना बहुत कठिन कार्य था। उस समय सैन्य अधिकारियों को केवल सेना के घोष-वादकों को ही प्रशिक्षित करने की अनुमति थी।

तब संघ के संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार जी के परिचित बैरिस्टर श्री गोविन्द राव देशमुख जी के सहयोग से सेना के एक सेवानिवृत बैंड मास्टर से स्वयंसेवकों को प्रशिक्षण दिलाया गया। शंख वादन के लिए मार्तंड राव, वंशी के लिए पुणे के हरिविनायक दात्ये जी आदि स्वयंसेवकों ने जैसे वाद्य यंत्रों पर अभ्यास आरंभ किया व संघ में घोष का आरंभिक स्वरूप खड़ा हुआ।

पाश्चात्य शैली के बैंड पर उनके ही संगीत पर आधारित रचनाएं बजाने में भारतीय मन को वैसा आनन्द नहीं आया जैसा कि आना चाहिए था। तब स्वयंसेवकों ने सोचा कि हजारों वर्ष पूर्व महाभारत युद्ध में श्रीकृष्ण ने पाञ्चजन्य व अर्जुन ने देवदत्त शंख बजाकर विरोधी दल को विचलित कर दिया था। अत: हमें इन वाद्यों पर ऐसी रचनाएं तैयार करनी चाहिए, जिनमें अपने देश की नाद परंपरा की सुगंध हो।

स्वर्गीय वापूराव व उनके साथियों ने इस दिशा में कार्य आरंभ किया। इस प्रकार राग केदार, भूप, आशावरी में पगी हुई रचनाओं का जन्म हुआ। गौरव की बात है कि स्वयंसेवकों ने घोष वाद्यों को भी स्वदेशी नाम प्रदान कर उन्हें अपनी संगीत परंपरा के अनुकूल बनाकर उनका भारतीयकरण किया। इस क्रम में साइड ड्रम को आनक, बॉस ड्रम को पणव, ट्रायंगल को त्रिभुज, बिगुल को शंख आदि नाम दिए गए जो कि ढोल, मृदंग आदि नामों की परंपरा में ही समाहित होते हैं।

प्रथम अखिल भारतीय घोष प्रमुख श्री सुब्बू श्रीनिवास जी ने घोष वर्ग और घोष शिविरों के माध्यम से पूरे देश में हजारों कुशल घोष वादक तैयार किए। परंपरागत वाद्य शंख, आनक और वंशी से आरंभ हुई घोष यात्रा आज नागांग, स्वरद आदि अत्याधुनिक वाद्यों पर मौलिक रचनाओं के मधुर वादन तक पहुंच गई है।

संघ-घोष अपने स्वयंसेवकों के अथक परिश्रम से इस अवस्था में पहुंच गया कि 1982 में एशियाड के उद्घाटन समारोह में भारतीय नौसेना दल ने स्वयंसेवकों द्वारा निर्मित रचना शिवराज का वादन किया। इसे विश्व स्तर पर प्रसारित प्रथम घोष रचना भी कहा जा सकता है। यही नहीं, नौसेना बैंड द्वारा स्वयंसेवकों द्वारा निर्मित करीब 40 रचनाओं का वादन किया जा चुका है। आज संघ में घोष वादकों की संख्या लगभग 70,000 है।  
(लेखक कवि एवं स्तंभकार हैं)

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