मनीष खेमका
68 वर्ष, यानी लगभग सात दशक बाद महाराजा फिर जी उठे। जी हां। 1953 में दुनिया में प्रतिष्ठा अर्जित करने वाली टाटा एयरलाइंस, जिसके शुभंकर थे ‘महाराजा’, का भारत सरकार ने राष्ट्रीयकरण कर दिया था और नाम बदल कर एयर इंडिया कर दिया गया। हालांकि एयर इंडिया का चेयरमैन टाटा एयरलाइंस के मालिक जेआरडी टाटा को ही बनाए रखा गया था परंतु 1978 में जेआरडी को हटाए जाने के बाद तो जैसे महाराजा को मृत्यु शैया पर भेजने की पूरी तैयारी की गई। एयर इंडिया में लूट-खसोट और दुर्व्यवस्था ने दुनिया भर में प्रतिष्ठित रहे महाराजा का नामोनिशान मिटा डालने की पूरी व्यवस्था कर डाली। परंतु मोदी सरकार द्वारा किए गए विनिवेश के फलस्वरूप 68 वर्षों बाद महाराजा फिर जी उठे। अब उम्मीद है, महाराजा की शानोशौकत एक बार फिर लौटेगी।
टाटा के नेतृत्व में ऊंची उड़ती रही एयर इंडिया
1953 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने जेआरडी की इच्छा के विपरीत इसका राष्ट्रीयकरण कर दिया था। तब सरकार ने 2.8 करोड़ रुपये का भुगतान कर टाटा समूह से इस एयरलाइन में उसका सौ प्रतिशत हिस्सा हासिल कर लिया। राष्ट्रीयकरण के बावजूद भी नेहरू को जेआरडी टाटा से बेहतर प्रबंधक कोई और नहीं मिला। जब तक टाटा के पास एयर इंडिया का प्रबंधन रहा, तब तक भारत की यह एयरलाइन न केवल शान से उड़ती रही बल्कि उसने अनेक नए मुकाम भी हासिल किए। जेआरडी के नेतृत्व में 1960 में एयर इंडिया एशिया की पहली एयरलाइन थी जिसने जेट एयरक्राफ्ट को अपने बेड़े में शामिल किया। एयर इंडिया ने अपनी उत्कृष्ट सेवाओं से केएलएम और ब्रिटिश एयरवेज जैसी दिग्गज विदेशी एयरलाइनों को भी कड़ी टक्कर दी। कहा जाता है जब सिंगापुर एयरलाइन की शुरुआत हुई, तब उसने अपनी इन फ्लाइट्स सेवाओं के संबंध में एयर इंडिया से सहायता मांगी थी। एयर इंडिया के इतिहास में एक समय ऐसा भी आया जब अप्रैल 1955 में चीन के प्रधानमंत्री झोऊ एनलाई ने हांगकांग से इंडोनेशिया जाने के लिए एयर इंडिया की चार्टर सर्विस से जहाज किराये पर लिया था। तब चीन के पास लंबी दूरी तय करने वाले बड़े जहाज नहीं थे। हालांकि एक मेडिकल इमरजेंसी के कारण वे इसमें सवार नहीं हो पाए। उनके विरोधियों ने साजिÞश के तहत इसमें टाइम बम रख दिया था जिसे एयर इंडिया के इतिहास की पहली आतंकवादी घटना माना जा सकता है। इस दुर्घटना में बचे केबिन क्रू के तीन भाग्यशाली सदस्यों को बाद में भारत सरकार ने अशोक चक्र से सम्मानित किया था। यह एक अलग कहानी है।
जेआरडी के एयर इंडिया से संबंधित अनेक रोचक किस्से हैं। एक बार वे जब रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर एल.के. झा के साथ सफर कर रहे थे तो उन्होंने खुद ही विमान के टॉयलेट में जाकर उसका टॉयलेट पेपर बदल दिया था। वे छोटी से छोटी बात पर बारीक नजर रखते थे। विमान के भीतर क्या परोसा जाए, सीट-खिड़कियों के पर्दे, एयर होस्टेस की ड्रेस और विमान की सजावट कैसी हो, सभी में जेआरडी की रुचि रहती थी। विमान में कहीं गंदगी दिखती तो वे उसे खुद ही साफ करने में जुट जाते जिससे कर्मचारियों को शर्मसार होना पड़ता और अगली गलती की संभावना कम हो जाती। जेआरडी टाटा मार्च 1953 से 1977 तक एयर इंडिया को बतौर चेयरमैन संभालते रहे जब तक कि 1 फरवरी, 1978 को मोरारजी देसाई सरकार ने उन्हें बिना किसी पूर्व सूचना के हटा नहीं दिया। टाटा को मोरारजी का यह गुप-चुप फैसला नागवार गुजरा जिस पर उन्होंने अप्रसन्नता भी जाहिर की। एयर इंडिया के कर्मचारियों का मनोबल भी टाटा को हटाए जाने से टूटा।
चेयरमैन रहते जेआरडी ने नहीं लिया 33 वर्षों तक वेतन
एयर इंडिया जेआरडी टाटा के लिए कारोबार कम, मुहब्बत ज्यादा थी। शायद यही कारण है कि जब कांग्रेस सरकार ने इसका अधिग्रहण कर लिया तब भी वे अपने लगाव के कारण न केवल इसका प्रबंधन पूरे मनोयोग से देखते रहे बल्कि बदले में एक भी पैसा वेतन नहीं लिया। मोरारजी देसाई ने जब टाटा को उनके पद से हटाया तब लंदन के डेली टेलीग्राफ ने 27 फरवरी, 1978 को अपनी हेडलाइन में लिखा— बिना वेतन काम करने वाले एयर इंडिया प्रमुख को देसाई ने हटाया। जेआरडी टाटा ने एक बार खुद भी यह स्वीकार किया था कि टाटा संस का चेयरमैन रहने के बावजूद उन्होंने अपना आधा समय एयर इंडिया को समर्पित किया था। एक ऐसी संस्था जिससे उन्होंने खुद या उनकी 50 कंपनियों में से किसी ने भी कोई आर्थिक लाभ नहीं लिया। अपने व्यक्तिगत उदाहरण से वे यह साबित करना चाहते थे कि अंतरराष्ट्रीय स्तर के मानकों को बनाए रखने के बावजूद भी सरकारी कंपनियों को मुनाफे में चलाया जा सकता है।
टाटा एयरलाइन्स (स्थापना के वक़्त इसका शुरुआती नाम) की पहली उड़ान 15 अक्तूबर 1932 को खुद जेआरडी टाटा ने भरी थी। वे एक सिंगल इंजन वाले इसके जहाज को अहमदाबाद से होते हुए कराची से मुंबई ले गए थे। दो लाख की लागत से स्थापित टाटा एयरलाइन की इस पहली फ़्लाइट में यात्री नहीं बल्कि करीब 25 किलो चिट्ठियां थी जिन्हें ब्रिटेन के इम्पीरियल एयरवेज के एक विमान से लंदन से कराची लाया गया था। शुरुआती दौर में टाटा एयरलाइन्स मुंबई के जुहू के पास मिट्टी से बने झोंपड़ीनुमा एक अस्थाई दफ़्तर से संचालित होती थी और वहां मौजूद मैदान को रनवे के तौर पर इस्तेमाल किया जाता था। 29 जुलाई, 1946 को टाटा एयरलाइन्स के पब्लिक लिमिटेड कंपनी बनने के बाद उसका नाम बदलकर एयर इंडिया लिमिटेड रखा गया।
जेआरडी के जाते ही शुरू एयर इंडिया के दुर्दिन जेआरडी टाटा के जाते ही एयर इंडिया का सूरज अस्त होना शुरू हो गया। नि:स्वार्थ काम और उत्कृष्ट प्रदर्शन के बावजूद मोरारजी देसाई के निष्ठुर फैसले ने संभवत: जेआरडी का दिल तोड़ दिया। जिसे बाद में इंदिरा-राजीव के रूखे रवैये ने दोबारा जुड़ने नहीं दिया। सत्ता में वापसी के बाद इंदिरा गांधी ने अप्रैल 1980 में जेआरडी को दोबारा एयर इंडिया और इंडियन एयरलाइन के बोर्ड में जगह दी लेकिन चेयरमैन नहीं बनाया। यहां वे 1986 तक रहे जब राजीव गांधी ने रतन टाटा को एयर इंडिया का चेयरमैन नियुक्त किया।
विलय और विमान खरीद का भारी भ्रष्टाचार
एयर इंडिया के पतन का सबसे प्रमुख कारण क्या था? इस सवाल के जवाब में प्राय: सभी जानकार एकमत दिखते हैं। अप्रैल 2007 में इंडियन एयरलाइन के साथ विलय के बाद एयर इंडिया ने कभी भी शुद्ध लाभ नहीं कमाया। दोनों कंपनियों के विरोध के बावजूद तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने जबरन दोनों का विलय कर दिया। माहिर अर्थशास्त्री समझे जाने वाले और आॅक्सफोर्ड में पढ़े प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह व हावर्ड में पढ़े वित्त मंत्री पी. चिदंबरम की जोड़ी ने एयर इंडिया को विद्वता की ऐसी दवा दी जिसके रिएक्शन से वह कभी उबर नहीं पाई। इस बेमेल कठिन विलय की गंभीरता को इस बात से भी समझा जा सकता है कि यह प्रक्रिया 4 साल तक चली। इस विलय के कारण 2007 से 2009 के दौरान घाटा 770 करोड़ से बढ़कर 7200 करोड़ हो गया और उधारी 6550 करोड़ से बढ़कर 15241 करोड़ हो गई। विलय के बाद एयर इंडिया के पास करीब 256 विमान और 30000 कर्मचारी थे जो अंतरराष्ट्रीय पैमाने से दुगुने ज्यादा थे। इस विलय के साथ ही तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने 67000 करोड़ की लागत से एयर इंडिया के लिए बोइंग व एयरबस से 111 नए विमानों को खरीदने का फैसला लिया। यह भी एयर इंडिया के गले की बड़ी फांस साबित हुआ। सीबीआई एयर इंडिया के विलय व अन्य घोटालों के साथ ही 2017 से विमानों के इस सौदे मैं हुए भ्रष्टाचार की जांच भी कर रही है।
मंत्रियों की मनमानी प्रफुल्ल पटेल की बेटी के तेवरमई, 2004 में प्रफुल्ल पटेल नागरिक उड्डयन मंत्री बने थे। इस दौरान एयर इंडिया 42% हिस्सेदारी के साथ बाजार में थी, लेकिन उड्डयन मंत्री का पद मिलते ही प्रफुल्ल पटेल ने बेसिर-पैर के अपने फैसलों से एयर इंडिया के सुनहरे दिनों को खत्म कर दिया। एयर इंडिया से प्रफुल्ल पटेल के परिजन अपने अर्दली की तरह बर्ताव करने लगे। प्रफुल्ल पटेल की बेटी पूर्णा पटेल आईपीएल के प्रबंधक के रूप में काम करती थीं। |
प्रफुल्ल पटेल के फैसलों से बिगड़ती गई हालत
2004 में नागरिक उड्डयन मंत्री बने प्रफुल्ल पटेल ने हैरान करने वाले ऐसे अनेक फैसले लिए जिससे न केवल एयर इंडिया की आर्थिक हालत लगातार बिगड़ती रही बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हासिल उसकी महाराजा जैसी साख भी खत्म हो गई। पटेल के कार्यकाल में मार्च 2009 में एयर इंडिया ने जर्मनी के फ्रैंकफर्ट एयरपोर्ट पर अपना अंतरराष्ट्रीय हब बनाया। इस पर बेतहाशा पैसा फूंकने के बाद साल भर बाद ही 30 अक्तूबर, 2010 को इसे बंद कर दिया गया। प्रबंधन के बेवकूफी भरे कदमों से एयर इंडिया को फायदे वाले रूटों पर भी नुकसान होने लगा। फलस्वरूप घटती साख के कारण तमाम अंतरराष्ट्रीय एयरलाइनों ने एयर इंडिया से अपने संबंध तोड़ लिए। सीएजी ने भी अपनी रिपोर्ट में साफ कहा कि विलय समेत ऐसे अनेक फैसले गलत थे।
कर्ज के बावजूद कर्मचारियों का ठाट
एयर इंडिया में राजनीतिक सिफारिशों पर बेतहाशा कर्मचारी भर्ती किए गए। लो कॉस्ट एयरलाइन एयर डेक्कन के संस्थापक कैप्टन गोपीनाथ के मुताबिक कर्ज़ के साथ ही साथ कर्मचारियों का बेवजह बड़ा बोझ भी एयर इंडिया के डूबने की प्रमुख वजह बना। 2012 में एयर इंडिया के पास 122 विमान और 27000 कर्मचारी थे। माने हर विमान पर औसतन 221 कर्मचारी। जबकि जानी-मानी अंतरराष्ट्रीय स्तर की उत्कृष्ट एयरलाइनों में यही आंकड़ा आधे से भी कम था। लुफ्थांसा में प्रति विमान 127, सिंगापुर एयरलाइन में 140 व ब्रिटिश एयरवेज में प्रत्येक विमान पर 178 कर्मचारी थे।
सन् 2010-11 में जब एयर इंडिया पर कर्ज़ 50,000 करोड़ रुपये से भी ज्यादा था और कुल नुकसान 20,000 करोड़ रुपये के आंकड़े को पार कर चुका था, तब जहाज न उड़ाने वाले भी ऐसे पायलट जो ज्यादातर प्रबंधन का काम देख रहे थे उनकी तनख़्वाह 60 लाख रुपये से लेकर एक करोड़ सालाना से भी अधिक थी। माने 5 लाख रुपये महीने से भी ज्यादा। इनमें से अनेक पायलट सिर्फ़ दसवीं पास थे। जबकि उस समय लाभ में होने के बावजूद जेट एयरवेज और इंडिगो जैसी अग्रणी प्राइवेट एयरलाइनों में भी तनख़्वाह एयर इंडिया से काफी कम थी। यदि उस समय बेहतरीन वेतन देने वाली कंपनियों से भी तुलना करें तो इन्फोसिस के सुप्रसिद्ध चेयरमैन नारायण मूर्ति को करीब 38 लाख और इसके सीईओ शिबूलाल को 83 लाख रुपये सालाना मिलते थे और मारुति के तत्कालीन चेयरमैन आर.सी. भार्गव का वेतन करीब 36 लाख था। प्राइवेट एयरलाइन में जूनियर केबिन क्रू को जहां सिर्फ़ 50 हजार रुपये मिलते, वहीं घाटे में होने के बावजूद एयर इंडिया उन्हें डबल पैसे देती थी। 2016-17 में एयर इंडिया ने कर्मचारियों पर कुल 2,841.48 करोड़ रुपये खर्च किए थे। माने हर एक कर्मचारी को औसतन 21 लाख रुपये सालाना।
कर्मचारियों को दिल्ली के वसंत कुंज व मुंबई के कफ परेड और मालाबार हिल जैसे पॉश इलाकों में करोड़ों के आवास नाममात्र के किराये पर दिए जाते थे। साथ ही परिवार समेत जीवन भर हवाई यात्रा की सुविधा भी तकरीबन मुफ़्त थी। केबिन क्रू आलीशान होटलों में सिंगल बेडरूम में रुका करते, भले ही वह होटल एयरपोर्ट से दूर क्यों न हो। जबकि अन्य एयरलाइनों में एयरपोर्ट के नजदीकी होटलों में डबल बेडरूम में रुकने की व्यवस्था होती थी। पैसों की बबार्दी का इससे बड़ा उदाहरण और क्या होगा कि एयर इंडिया में सिर्फ़ हिंदी अनुवाद के लिए ही 500 कर्मचारी रखे गए थे। जाहिर है, सरकार की मदद के बिना एयर इंडिया के अधिकारियों और कर्मचारियों का यह राजसी ठाट एक दिन भी नहीं चल पाता। सबसे मजे की बात तो यह कि 1980 तक खुद राजीव गांधी को बतौर इंडियन एयरलाइन पायलट पांच हजार रुपये महीना वेतन ही मिला करता था।
मंत्रियों की मनमानी एंटनी की पत्नी की पेंटिंग की खरीदयूपीए के ही मंत्री एके एंटनी ने भी एयर इंडिया के धन का दुरुपयोग किया। उन्होंने अपनी पत्नी एलिजाबेथ एंटनी की चाहत को पूरा करने के लिए एयर इंडिया का पैसा खर्च कर दिया था। रिपोर्ट के मुताबिक, एयर इंडिया ने त्रिवेंद्रम अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे के टर्मिनल 3 के लिए एके एंटनी की पत्नी की कुछ पेंटिग्स भी खरीदी थीं, जबकि एलिजाबेथ ने उस समय अपने चित्रों की प्रदर्शनी तक नहीं लगाई थी। इसके बावजूद एयर इंडिया को ये पेंटिंग खरीदनी पड़ी थी। कहा जाता है कि, एयर इंडिया के पास इसके अलावा कोई और दूसरा रास्ता नहीं था। |
एयर इंडिया के अपराधियों से भी वसूली जरूरी
एयर इंडिया का अंतत: सफल विनिवेश मोदी सरकार की एक बड़ी सफलता माना जा सकता है जिसके दूरगामी परिणाम निश्चित ही और भी सुखद होंगे। उत्तर प्रदेश के कुशीनगर में प्रदेश के तीसरे अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे के उद्घाटन के मौके पर प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि एयर इंडिया का विनिवेश देश का एक बड़ा फैसला है। इससे भारत के उड्डयन क्षेत्र को नई ऊर्जा मिलेगी। इसे पेशेवर तरीके से चलाने के साथ ही इसमें सुविधा और सुरक्षा को भी प्राथमिकता मिलेगी। मोदी ने इस विनिवेश में यह सुनिश्चित किया कि एयर इंडिया किसी विदेशी के बजाय भारतीय कंपनी के स्वामित्व में ही रहे। वे अनेक मौकों पर चार्वाक दर्शन के बहाने भ्रष्ट राजनेताओं की आलोचना करते रहे हैं जिन्होंने ऋण लेकर भी सरकारी खजाने को लूटने में कोई कसर नहीं छोड़ी। दोषियों पर कड़ी कार्रवाई में भी वे पीछे नहीं हटते। सार्वजनिक बैंकों के हाईप्रोफाइल अपराधी विजय माल्या का उदाहरण हम सब के सामने हैं। अब मौका है जब माल्या से भी बड़े एयर इंडिया के अपराधियों को न केवल कठघरे में खड़ा किया जाए बल्कि उनसे भारत के मेहनतकश करदाताओं से लूटी रकम भी बरामद की जाए।
20 वर्षों में तीन प्रयासों के बाद मिली विनिवेश में सफलता
मोदी सरकार एयर इंडिया के अपने पहले चुनौतीपूर्ण विनिवेश में सफल साबित हुई जिसके प्रयास पिछले 20 सालों से जारी थे। इसके कारण सरकारी खजाने को रोज हो रहे 20 करोड़ रुपये से ज्यादा के नुकसान के गोरखधंधे पर पूर्ण विराम लगाया जा सका। 2000-01 में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली केंद्र की एनडीए सरकार ने पहली बार मामले की गंभीरता को समझते हुए एयर इंडिया के विनिवेश की प्रक्रिया शुरू की थी। इसके तहत इसका 40 प्रतिशत हिस्सा निजी निवेश के लिए प्रस्तावित था। तब भी भारत के प्रतिष्ठित टाटा समूह ने सिंगापुर एयरलाइन के सहयोग से इस प्रस्ताव में रुचि दिखाई थी। लेकिन मुख्यत: ट्रेड यूनियनों के विरोध के कारण यह योजना अंजाम तक नहीं पहुंच पाई।
शुभंकर ‘महाराजा’1946 में एयर इंडिया के कमर्शियल डायरेक्टर बॉबी कूका और जे. वाल्टर थॉम्पसन लिमिटेड, मुंबई के कलाकार उमेश राव ने मिल कर महाराजा का शुंभकर रचा था। इस शुंभकर को चुने जाने के दो अर्थ कहे जाते हैं, एक तो एयर इंडिया के चेयरमैन जेआरडी चाहते थे कि उनके ग्राहकों के साथ महाराजा जैसा व्यवहार हो। दूसरे, जेआरडी एयर इंडिया को आकाश का महाराजा बनाना चाहते थे। परिचालन, रखरखाव और सेवा, किसी क्षेत्र में रत्ती भर की लापरवाही उन्हें एयर इंडिया के लिए मंजूर नहीं थी। |
फिर 2012 में यूपीए के शासन काल में एयर इंडिया को दोबारा नए सिरे से चलाने की योजना को मंजूरी दी गई। मार्च 2018 में मोदी सरकार ने 76% हिस्सा बेचने के लिए अभिरुचि के प्रस्ताव आमंत्रित किए। इसके तहत सफल आवेदक को कुल उधारी का 70% हिस्सा वहन करना था। यह रकम तब 33392 करोड़ रुपये थी। लेकिन इस प्रस्ताव के आकर्षक न होने के कारण निवेशकों ने इसमें रुचि नहीं दिखाई। इसकी आखिरी समय सीमा मई 2018 तक सरकार को एक भी निविदा प्राप्त नहीं हुई।
अंतत: जनवरी 2020 में मोदी सरकार ने एयर इंडिया के पूर्ण विनिवेश का प्रस्ताव दिया। इसके तहत पूरे 100 प्रतिशत हिस्से की बिक्री प्रस्तावित थी। करदाताओं के प्रति पूर्ण पारदर्शिता व सूझ-बूझ बरतते हुए मोदी सरकार ने अपने इस अंतिम प्रस्ताव में जरूरी मुख्य संपत्तियों को ही निवेशकों को हस्तांतरित करने की योजना बनाई। जो भी कीमती संपत्तियां परिचालन के लिए जरूरी नहीं थीं, उन्हें इस सौदे से अलग रखा गया। सभी इच्छुक निवेशक ऊंची बोली लगा सकें, इसके लिए केंद्र सरकार ने निविदा की अंतिम समय सीमा को पांच बार बढ़ाया।
अंतत: 2 सफल निवेशकों की निविदाएं मंजूर की गईं जिसमें स्पाइसजेट के प्रमोटर अजय सिंह ने 15,100 करोड़ रुपये व टाटा समूह ने 18,000 करोड़ रुपये की बोली लगाई। तकनीकी रूप से सक्षम न होने के कारण अन्य पांच खरीदारों की निविदाओं को स्वीकार नहीं किया गया। टाटा समूह ने सबसे ऊंची बोली लगाकर उस एयरलाइन को सरकार से ससम्मान वापस हासिल कर लिया जिसे 89 साल पहले 1932 में उसके ही चेयरमैन और भारत के पहले कमर्शियल पायलट रहे जेआरडी टाटा ने शुरू किया था। इस सफल विनिवेश पर नागरिक उड्डयन मंत्री सिंधिया ने ट्वीट किया, ‘एयर इंडिया की टाटा ग्रुप में वापसी एयरलाइंस के लिए एक नई सुबह का प्रतीक है! नए प्रबंधन को मेरी शुभकामनाएं।’
टिप्पणियाँ