झारखंड के खूंटी में आयोजित मुंडारी साहित्य सम्मेलन में बड़ी संख्या में लोगों ने भाग लिया। सम्मेलन के मुख्य अतिथि थे लोकसभा के पूर्व उपाध्यक्ष और खूंटी से अनेक बार सांसद रहे कड़िया मुंडा। सम्मेलन का आयोजन अखिल भारतीय मुंडारी लेखक संघ और मुंडा साहित्य और कला-संस्कृति संस्था द्वारा संयुुक्त रूप से किया गया था। सम्मेलन में ओडिशा, झारखंड और पश्चिम बंगाल के साहित्य प्रेमी, बुद्धिजीवी और समाजसेवी शामिल हुए। कार्यक्रम का शुभारंभ बेला पाहन और बैजनाथ पाहन द्वारा पूजा-अर्चना कर किया गया।
सम्मेलन को संबोधित करते हुए कड़िया मुंडा ने कहा कि एक पत्रिका 'सरना साकाम' निकलती थी, जो बंद हो गई। पत्रिका लेागों के विचारों का प्रचार-प्रसार करती थी। हमें विचार करना चाहिए कि हम किस ओर जा रहे हैं। उन्होंने कहा कि हम 3,000 साल पूर्व से झारखंड में बसे हैं। मदरा मुंडा ने 64 ई0 में अपनी गद्दी दूसरों को सौंपी थी। वर्तमान में हमारे बीच लिखित रूप में कुछ भी स्पष्ट नहीं है। लोग अपनी संस्कृति को भूल रहे हैं। इस तरह की बैठक में हमें यह विचार करने की आवश्यकता है और एक बात पर एकमत होने की जरूरत है। उन्होंने गीत के माध्यम से कहा कि हम पढ़ना सीखें, हम लिखना सीखें, हम बुद्धिहीन विचारों में फंसे हुए हैं। उन्होंने युवक-युवतियों से साहित्य सर्जन करने की अपील की।
जनजातीय कल्याण शोध संस्थान के पूर्व उप निदेशक सोमा सिंह मुंडा ने विषय प्रवेश कराते हुए कहा कि हमें यह विचार करने की आवश्यकता है कि हमारा साहित्य कैसे सबल हो, अपनी पूजा -पद्धतियों को सबल करने की जरूरत है। हमें अपने मुंडारी साहित्य और संस्कृति को इतना समृद्ध करना है कि विश्व पटल पर हर ओर इसकी चर्चा हो। गांव के सभी निवासी अपने घर में, आंगन में, खेत में, खलिहान में, स्कूल-कॉलेज में साहित्य सर्जन करें। अखिल भारतीय मुंडारी साहित्य लेखक संघ के महासचिव बीरबल सिंह ने कहा कि साहित्य सर्जन की इस राह में हमने अब तक 95 लेखकों को खोज निकाला है। हमें अपने समाज में अपने दायित्वों को समझने की जरूरत है। संगठन के माध्यम से हमें संस्कृति की जड़ों की ओर लौटने की आवश्यकता है और समाज के अस्तित्व की बात जहां भी हो वहां पर हमें साथ मिलकर खड़े होने की जरूरत है। श्यामाप्रसाद मुखर्जी विश्वविद्यालय के पूर्व उपकुलपति डॉ सत्यनारायण मुंडा कहा कि अपनी गलतियों को सुधारने से ही हम परिपक्व हो सकते हैं। हमारे बीच कई तरह की औषधियों का ज्ञान है उसे बचाने की जरूरत है। हमें अपनी संस्कृति को मूल रूप में रखने की आवश्यकता है, इसे दो तरह से बचाया जा सकता है, एक सैद्धान्तिक रूप में और दूसरा व्यावहारिक रूप से। छोटे बच्चों को अपनी मातृभाषा सिखानी होगी।
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