सलमान खुर्शीद ने हिन्दुत्व की तुलना आईएसआईएस और बोको हराम से की है। क्या है ये आईएसआईएस और बोको हराम? ये तो सिर्फ ताजातरीन दो नाम हैं। पिछले 1,400 वर्ष के इतिहास में न जाने कितने आईएसआईएस और बोको हराम हुए हैं और हिन्दुत्व पर इसी प्रकार हमले करते रहे हैं। तो क्या खुर्शीद इस्लाम का इतिहास याद करते हुए सो गए थे? उन्होंने पूरे 1400 वर्षों की बात क्यों नहीं की? सिर्फ सतही बात क्यों की?
यह वास्तव में स्मृति और विस्मृति का ही युद्ध है।
मानव स्वभाव सामान्यत: किसी भी घटनाक्रम को दो-तीन पीढ़ियों बाद भूल जाता है, या भूल कर अपने ही पूर्वजों, अपनी ही संस्कृति और अपने ही राष्ट्र के प्रति कृतघ्न हो जाता है।
जब वह 1400 वर्ष का इतिहास पूरी तरह भूलने की स्थिति में होता है, तो उसे रटाया जाता है कि हमलावर तो वही था।
यही सलमान खुर्शीद सिन्ड्रोम है। इससे निबटने के लिए हमें पहला संघर्ष भूल जाने की इस प्रवृत्ति से ही मुकाबला करना होगा, यही समय की आवश्यकता है। देखिए कैसे?
गोवा में हिन्दुत्व का दमन
उन्होंने दीपावली के पटाखों पर इतनी हाय-तौबा क्यों मचाई?
इसे समझने के लिए पहले गोवा का इतिहास देखिए। गोवा पर कब्जा करने के बाद पुर्तगालियों ने लोगों को जबरन ईसाई बनाना शुरू किया। लेकिन धीरे-धीरे उन्हें पता चला कि जो लोग डर के मारे ईसाई बन गए हैं, वे भी अपने घर पर चोरी-छिपे हिन्दुओं की तरह व्यवहार करते हैं। माने चुपचाप पूजा भी करते हैं और चोरी-छिपे हिन्दू त्यौहार भी मनाते हैं। वे समझ गए कि हिन्दू मान्यताएं, परम्पराएं जबरन ईसाई बनाने की राह में सबसे बड़ा रोड़ा हैं। लिहाजा सारे हमले उस दिशा में कर दिए गए।
संस्कृत, मराठी की हर पुस्तक बरामद करके तुरंत जला दी गई।
पहला वार ब्राह्मण पर, ताकि न रहे बांस, न बजे बांसुरी। दूसरा वार सुनारों पर, क्योंकि वे छोटी या सूक्ष्म मूर्ति बना लेते थे, और लोग घर में छिपकर उसी की पूजा कर लेते थे। तीसरा वार कुम्हारों पर, क्योंकि वे मिट्टी के दिये और मूर्तियां बना देते थे, और उससे लोग पूजा करते थे। चौथा वार हर परम्परा पर। पांचवा वार भाषा पर। छठा वार हर पर्व और त्योहार पर। सातवां वार तुलसी के पौधे पर, क्योंकि लोग उसकी परिक्रमा करके अपने इष्ट का स्मरण कर लेते थे। फिर अगले वार उनकी हर बारीकी पर होते गए। |
सैकड़ों मंदिर ढहा दिए गए और निजी तौर पर किसी भी तरह की मूर्ति पूजा पर प्रतिबंध लगा दिया गया। हिन्दू मंदिरों की संपत्तियों को जब्त करने और कैथोलिक मिशनरियों को उनके हस्तांतरण के साथ-साथ हिन्दू मंदिरों को नष्ट करने का एक पुर्तगाली आदेश 30 जून, 1541 का है। हिन्दुओं को नए मंदिर बनाने या पुराने की मरम्मत करने से मना किया गया था। जेसुइट्स के एक मंदिर विध्वंस दस्ते का गठन किया गया था, जिसने 16वीं शताब्दी से पहले के मंदिरों को ध्वस्त कर दिया था। 1569 के शाही पत्र में लिखा गया था कि भारत में पुर्तगाली उपनिवेशों के सभी हिन्दू मंदिरों को ध्वस्त कर दिया गया और जला दिया गया है।
1541 में, गोवा में मूर्ति पूजा पर प्रतिबंध लगा दिया गया था और पुर्तगाली सैनिकों द्वारा 350 से अधिक मंदिरों को नष्ट कर दिया गया था। यह आधिकारिक तौर पर घोषित किया गया था कि गोवा के निवासियों के लिए रोमन कैथोलिक के अलावा किसी भी धर्म को मानने की अनुमति नहीं होगी।
हिन्दू धर्म में पुन: धर्मांतरण पर प्रतिबंध लगा दिया गया।
स्वदेशी कोंकणी भाषा और संस्कृत भाषा का उपयोग करना एक आपराधिक कृत्य घोषित कर दिया गया। कोंकणी को प्रतिबंधित करके पुर्तगाली भाषा लागू की गई और अंतत: कोंकणी सीमांत लोगों की भाषा रह गई। पुर्तगाली वायसराय ने 27, जून 1684 को कोंकणी के इस्तेमाल पर रोक लगा दी और यह भी आदेश दिया कि तीन साल के भीतर, स्थानीय लोग आम तौर पर पुर्तगाली भाषा बोलेंगे। इस कानून के उल्लंघन के लिए दंड कारावास होगा। 1812 में, आर्कबिशप ने फैसला सुनाया कि बच्चों को स्कूलों में कोंकणी बोलने से प्रतिबंधित किया जाना चाहिए और 1869 में, कोंकणी को स्कूलों में पूरी तरह से प्रतिबंधित कर दिया गया। इसे ही आज कॉन्वेंट स्कूल कहा जाता है।
एक्सेंडी टैक्स लागू किया गया, जो जजिया टैक्स के समान था।
हिन्दुओं को किसी भी सार्वजनिक पद पर कब्जा करने से मना किया गया था, और केवल ईसाई ही यह पद धारण कर सकता था।
हिन्दुओं को भक्ति संबंधित वस्तुओं या प्रतीकों को बनाने से मना कर दिया गया। ईसाई त्योहारों की सामग्री के व्यापार से हिन्दुओं पर रोक लगा दी गई।
हिन्दू बच्चे, जिनके पिता की मृत्यु हो गई थी, उन्हें ईसाई मत अपनाना और कन्वर्जन के लिए जेसुइट्स को सौंपना अनिवार्य कर दिया गया। इसके लिए किसी हिन्दू बच्चे का वास्तव में अनाथ होना भी जरूरी नहीं था। अगर उपनिवेशवादी उसे अनाथ मान लेते थे, तो भी बच्चे को सोसाइटी आॅफ जीसस (गैर-संत फ्रांसिस जेवियर द्वारा स्थापित) द्वारा अपहरण करके 'जब्त' कर लिया जाता था और अपना कन्वर्जन के लिए मजबूर कर दिया जाता था।
ईसाई धर्म अपनाने वाली हिन्दू महिलाओं को अपने माता-पिता की सारी संपत्ति का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया गया। फिर वह संपत्ति उनके हिन्दू भाई-बहनों के बीच विभाजित नहीं की जा सकती थी।
सभी ग्राम परिषदों में हिन्दू क्लर्कों की जगह ईसाइयों को नियुक्त कर दिया गया।
ईसाई गणवकार (फ्री होल्डर्स) बिना किसी हिन्दू गणवकर के गांव के निर्णय ले सकते थे, हालांकि हिन्दू गणवकारों को तब तक गांव संबंधी कोई निर्णय लेने की अनुमति नहीं थी, जब तक सभी ईसाई गणवकार उपस्थित न हों। ईसाई बहुसंख्यक गोवा के गांवों में, हिन्दुओं को ग्राम सभाओं में भाग लेने की मनाही थी।
किसी भी कानूनी कार्रवाई में, हिन्दुओं को गवाह के रूप में शामिल होने की अनुमति नहीं थी। केवल ईसाई गवाहों के बयान ही स्वीकार्य थे।
हिन्दू शादियों में हिन्दू पुजारियों को शामिल होने की अनुमति नहीं थी। हिन्दू विवाह, जनेऊ पहनने और दाह संस्कार के अनुष्ठानों पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। 15 वर्ष से अधिक आयु के सभी व्यक्तियों को ईसाई उपदेश सुनने के लिए मजबूर किया गया, और ऐसा न करने पर दंडित किया गया।
हिन्दुओं की सार्वजनिक पूजा को गैरकानूनी करार दे दिया गया।
अपने धर्म की आलोचना सुनने के लिए हिन्दुओं को समय-समय पर गिरजाघरों में इकट्ठा होने के लिए मजबूर किया गया।
हिन्दुओं को विभिन्न तरह के दंड दिए गए, जैसे कि जुर्माना, सार्वजनिक कोड़े मारना, निर्वासित करके मोजाम्बिक भेज देना, कारावास, निष्पादन और जीवित जलाना।
हिन्दू आरोपी की संपत्ति तुरंत जब्त कर ली जाती थी। उनसे यातना देकर जबरन कबूलनामा लिया जाता था और फिर इसे बेईमान चरित्र का सबूत माना जाता था। यदि वे अपने अनुभवों के बारे में किसी से बात करते, तो उन्हें फिर से गिरफ्तार कर लिया जाता।
वायसराय और कैप्टन जनरल एंटोनियो डी नोरोन्हा और, बाद में कैप्टन जनरल कॉन्स्टेंटिनो डी सा डे नोरोन्हा ने पुर्तगाली कब्जे में हिन्दू और बौद्ध मंदिरों को व्यवस्थित रूप से नष्ट कर दिया।
सामाजिक जीवन में स्पष्ट भेदभाव देखा गया, जहां हिन्दुओं को केवल ईसाइयों के बाद सार्वजनिक दस्तावेजों पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर किया गया था और गांव के कार्यालयों में क्लर्क नहीं हो सकते थे। 1567 में, ईसाइयों को कॉलोनी में हिन्दुओं को नियोजित करने से प्रतिबंधित करने वाला एक कानून पेश किया गया था। (संदर्भ: टीओटोनियो आर. डी सूजा, गोवा में पुर्तगाली, पृष्ठ 28-29)।
‘जांच कार्यालय ने उन मूल निवासियों से भी पूछताछ की, जिन पर निजी तौर पर अपने पिछले धर्मों का पालन करने का संदेह था। 214 वर्षों (1560-1774) की अवधि में, 16,172 मूल निवासियों से पूछताछ की गई और अक्सर रोमन कैथोलिक मत के अलावा किसी अन्य मत का पालन करने के लिए उन्हें प्रताड़ित किया गया।’
दूसरे धर्म का पालन करने के दोषी लोगों को जघन्य दंड के अधीन किया गया, जिसमें सार्वजनिक कोड़े लगाना, 'रैक पर रखना', जीवित जलाना और मिशनरियों द्वारा किसी का नाखून और आंखें कुचलना शामिल था। कुछ मामलों में, महिलाओं और बच्चों को गुलाम बनाकर पूरे गांवों को जला दिया गया। यातना के लिए बड़े पहियों का इस्तेमाल किया जाता था, हिन्दू धर्म का पालन करने वालों को पहिए से बांधकर फिर काता जाता था, जिसमें निर्दोष हिन्दू की लगभग हर हड्डी को कुचल दिया जाता था।
हिन्दू बच्चों को कभी-कभी उनके माता-पिता से दूर ले जाया जाता था और उनके सामने जला दिया जाता था, माता-पिता को बांधकर और अपने बच्चे को तब तक जिंदा जलाने के लिए मजबूर किया जाता था जब तक कि वह ईसाई मत स्वीकार नहीं कर लेते। एक जांच में 4,000 से अधिक गैर-ईसाइयों को इस तरह की सजा देने की बात कही गई है।
हिन्दुओं के सार्वजनिक उत्सव को प्रतिबंधित कर दिया गया था और हिन्दू पुजारियों को सभी धार्मिक और सामाजिक कार्यक्रमों से निष्कासित कर दिया गया था।
विवाह में हिन्दू गीतों और उनके वाद्ययंत्र बजाए जाने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। दहेज देते समय वर-वधू के रिश्तेदारों को आमंत्रित नहीं किया जा सकता था।
विवाह के समय सार्वजनिक या निजी तौर पर पान नहीं बांटा जा सकता था। वर या वधू के घर के मुखिया को फूल, तली हुई पूरियां या सुपारी और पत्ते नहीं भेजे जा सकते थे।
शादी के एक दिन पहले चावल नहीं रखे जा सकते थे, मसाले नहीं पीसे जा सकते थे, घर में अनाज नहीं रखा जा सकता था।
परिवार भगवान का गोत्रराज संस्कार नहीं कर सकता था।
शादी की दावत के लिए कोई व्यंजन नहीं पकाया जा सकता था। पंडाल और उत्सव का प्रयोग नहीं किया जा सकता था। पीठी नहीं लगाई जा सकती थी।
नववधू का औपचारिक स्वागत नहीं किया जा सकता था। वर-वधू को आशीर्वाद और शुभकामनाएं देने के लिए पंडाल के नीचे नहीं बिठाया जा सकता था।
हिन्दुओं द्वारा गरीबों को खाना देने पर प्रतिबंध था। मृतकों की आत्मा की शांति के लिए औपचारिक भोजन परोसने पर प्रतिबंध था।
एकादशी का व्रत प्रतिबंधित था। सिर्फ ईसाई सिद्धांतों के अनुसार उपवास किया जा सकता था।
मृत्यु के बारहवें दिन, अमावस्या और पूर्णिमा तिथि को कोई भी कर्मकांड करने की अनुमति नहीं थी।
हिन्दू पुरुषों को न तो सार्वजनिक रूप से और न ही अपने घरों में धोती पहनने की अनुमति थी। महिलाओं को चोली पहनने पर प्रतिबंध था।
हिन्दू अपने घरों, परिसरों, बगीचों या किसी अन्य स्थान पर तुलसी का पौधा नहीं लगा सकते थे।
ईसाई धर्म अपनाने वाले हिन्दुओं को 15 साल की अवधि के लिए भूमि कर से छूट दी गई।
हिन्दुओं को हिन्दू परम्परा का नाम या उपनाम रखने पर प्रतिबंध था।
अब क्रोनोलॉजी समझिए। पहला वार ब्राह्मण पर, ताकि न रहे बांस, न बजे बांसुरी। दूसरा वार सुनारों पर, क्योंकि वे छोटी या सूक्ष्म मूर्ति बना लेते थे, और लोग घर में छिपकर उसी की पूजा कर लेते थे। तीसरा वार कुम्हारों पर, क्योंकि वे मिट्टी के दीये और मूर्तियां बना देते थे, और उससे लोग पूजा करते थे। चौथा वार हर परम्परा पर। पांचवा वार भाषा पर। छठा वार हर पर्व और त्योहार पर। सातवां वार तुलसी के पौधे पर, क्योंकि लोग उसकी परिक्रमा करके अपने इष्ट का स्मरण कर लेते थे। फिर अगले वार उनकी हर बारीकी पर होते गए।
त्योहारों पर प्रहार की चरणबद्ध रणनीति
अब मान लीजिए आप गोवा में नहीं, 21 वीं सदी के इंडिया में हैं और आपको पुर्तगालियों वाला काम करना है। तो आप क्या करेंगे? कहानी तीसरे वार से शुरू होगी। आप होली में पानी के प्रयोग पर प्रतिबंध लगाना चाहेंगे। दीवाली में पहले पटाखों पर, फिर दीयों पर, फिर मिट्टी के खिलौनों पर, फिर …। करवाचौथ पर अलग कहानी बनेगी, छठ पर अलग। पूरी क्रोनोलॉजी बनेगी। ऐसी स्थिति पैदा करने का प्रयास होगा कि आप अपनी ही संस्कृति से, अपने धर्म से घृणा करने लगें।
थोड़ा निकट से देखें। जब भी कोई हिन्दू पर्व आएगा, उस विशेष त्योहार को प्रतिगामी, पर्यावरण के लिए हानिकारक या बेकार कहने वाले सोशल मीडिया पोस्ट, वीडियो और फॉरवर्ड की बाढ़ आ जाएगी।
यह सलाह भी दी जाएगी कि त्योहार को 'सार्थक तरीके' से कैसे मनाया जाए। जैसे महाशिवरात्रि पर कहा जाएगा कि दूध व्यर्थ न करें, दान करें! फिर कहा गया होली पर पानी बचाओ। जन्माष्टमी पर कहा गया कि आप ऐसे देवता की पूजा कैसे कर सकते हैं, जो महिलाओं के प्रति आसक्त था। हर बार कृष्ण जन्माष्टमी पर सोशल मीडिया पर ट्वीट, पोस्ट और मीम्स की बाढ़ आ जाती है। अक्सर इस्तेमाल किए जाने वाले उदाहरण हैं 'उन्होंने 16,008 महिलाओं से शादी की', 'रासलीला', 'उन्होंने रुक्मिणी का अपहरण किया'।
जल्लीकट्टू का विरोध करने के लिए पेटा (पीपुल फॉर एथिकल ट्रीटमेंट आॅफ एनिमल्स) को आगे किया जाता है। कई पशु अधिकार कार्यकर्ता सामने आते हैं और जल्लीकट्टू का जोरदार विरोध करते हुए दावा करते हैं कि घटना से पहले सांडों को प्रताड़ित किया जाता है। स्पैनिश बैल की लड़ाई के विपरीत, जहां मैटाडोर बैल को तलवार से मार डालता है, जल्लीकट्टू में भाग लेने वाले युवा केवल अपने नंगे हाथों पर निर्भर होते हैं और बैल को वश में करना चाहते हैं।
करवाचौथ को प्रतिगामी अनुष्ठान बताते हुए इस पर्व पर यह कहकर हमला किया जाता है कि पत्नी को पति के लिए उपवास क्यों करना चाहिए जबकि पति अपनी इच्छानुसार खा सकता है। दुर्गा पूजा के लिए सैकड़ों काल्पनिक बातें कही जाती हैं। और उन लोगों द्वारा कही जाती हैं, जो एक ओर तो हिन्दू शास्त्र और इतिहास को काल्पनिक कहते हैं और एक ही सांस में कहानियां गढ़ते हैं और हमारे देवताओं के लिए अपमानजनक शब्द कहते हैं।
दशहरे पर अपने भीतर के रावण को मारने की सलाह हिन्दुओं को दी जाती है। रावण का पुतला न जलाएं बल्कि 'भीतरी रावण को जीतें'। ये बहुराष्ट्रीय कंपनियां और तथाकथित सोशल मीडिया को प्रभावित करने वाले आपको यह नहीं बताते कि आंतरिक रावण क्या है। वे श्रीराम के जीवन का अनुसरण नहीं करते, वे सिर्फ हिन्दुओं को सलाह देते हैं कि दशहरे के दौरान क्या करना है।
अब स्थिति यह है कि रामनवमी पर राम को आदर्श पुरुष होने से, मर्यादा पुरुषोत्तम कहने से नकारने की कोशिश शुरू कर दी गई है। उनके हिसाब से जय श्रीराम एक युद्ध घोष है। गणेश चतुर्थी पर सबको जल प्रदूषण याद आने लगता है।
संस्कारों के अंतिम संस्कार के विज्ञापन
बात यहां तक नहीं रह गई है। हाल के वर्षों में, भारत में बहुत सारे धर्मनिरपेक्ष/वोक विज्ञापन सामने आए हैं: सर्फ एक्सेल होली विज्ञापन, फैबइंडिया, सीईएटी टायर, तनिष्क कुछ उल्लेखनीय उदाहरण हैं। आप यह भी देखेंगे कि इनमें से कई विज्ञापन उसी छद्म धर्मनिरपेक्षता का प्रचार करते हैं, जिससे भारतीयों को प्रभावित किया जा रहा है।
तनिष्क का विज्ञापन याद करें, जिसे ऐसे पेश किया गया था, जैसे सभी हिन्दू-मुस्लिम समस्याएं इसी तरह हल हो सकती हैं। फिर आया डाबर का करवा चौथ का विज्ञापन जिसमें एलजीबीटीक्यू जोड़े को (हिन्दू बताते हुए) दिखाया गया था।
सर्फ एक्सेल होली का विज्ञापन जिसमें एक लड़की एक लड़के को होली से बचाती है और उसे नमाज के लिए ले जाती है। फिर फैबइंडिया का जश्न-ए-रिवाज विज्ञापन। इन सभी कंपनियों का संदेश यह था कि आप केवल इनके उत्पाद नहीं खरीद सकते, आपको इनके साथ-साथ अपनी धार्मिक आस्थाओं का विनाश भी खरीदना होगा।
यह संस्कारों का अंतिम संस्कार है, और आश्चर्य नहीं होगा यदि 100% धर्मनिरपेक्ष अंतिम संस्कार का संदेश भी किसी विज्ञापन या फिल्म में नजर आ जाए जिसमें बताया जाए कि अंतिम संस्कार की सारी लकड़ी किसी मुसलमान ने काटी है, जो 100% हलाल है, कफन फैबइंडिया के जश्न-ए-रिवाज के हिसाब से सर्टिफाइड हलाल है। अंतिम संस्कार करने वाला पंडित संस्कृत नहीं, उर्दू मिश्रित हिंदुस्तानी भाषा बोलता है। उसे बचपन में किसी मौलवी रहीम चाचा ने पाला था और पढ़ा-लिखाकर पंडित बनाया था, लिहाजा वह भगवा के बजाय किसी और रंग का ही चोला पहनता है। और राम नाम सत्य है – कहने के बजाय, डीजे पर अल्लाह के बंदे बजने लगता है।
ऐसा नहीं है कि विज्ञापनों में पहले कभी संदेश होता ही नहीं था। विज्ञापनों में हमेशा संदेश होता था, लेकिन सूक्ष्म और बाध्यकारी अंदाज में नहीं था।
अब जो बदलाव हुआ है, उसमें उत्पाद के साथ-साथ उसके संदेश को भी स्टेट्स सिंबल बना दिया गया है। ब्रांड खुद को उस सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर अपने सार्वजनिक स्टैंड के साथ जोड़ता है। एक के साथ एक फ्री- और दोनों स्टेट्स सिंबल। खरीदने से ज्यादा विज्ञापनों के सामाजिक संदेश को महसूस करना जरूरी हो जाता है। माने अगर आप हिन्दुओं की धार्मिक पहचान का विरोध करना चाहते हैं, तो यह काम सर्फ एक्सेल, डाबर, सिएट टायर खरीद कर भी किया जा सकता है।
जब अमेरिका में कंपनियों ने ब्लैक लाइव्स मैटर का समर्थन करना शुरू किया था, तो भारत में उसकी प्रतिध्वनि कैसे हुई? भारत में प्रयुक्त नेहरूवादी धर्मनिरपेक्षता का विचार, जो केवल हिन्दुओं पर लागू होता है, तुरंत बीएलएम की तरह बाजार में झोंक दिया गया। जैसे ब्लैक लाइव्स मैटर का अभियान सिर्फ अमेरिकी गोरों पर लागू होता है। बाकी लाइव्स डोन्ट मैटर।
हिन्दुओं को निशाने पर रखना अपने आप में सुरक्षित भी होता है। जब सरकार ने अनुच्छेद 377 को गैर-आपराधिक घोषित कर दिया था, तब मुख्य रूप से मुस्लिम और ईसाई समूहों ने इसका विरोध किया था। लिहाजा अगर डाबर कंपनी वास्तव में समलैंगिकता को लेकर किसी तरह का संदेश देना चाहती थी, तो उसे अपने विज्ञापन में मुस्लिम समलैंगिक जोड़े को इस्तेमाल करना चाहिए था। लेकिन इसमें खतरा होता है, जबकि हिन्दुओं की भावना को चोट पहुंचाना सुरक्षित होता है। मजेदार बात यह है कि वित्तीय वर्ष 2021 में डाबर इंडिया लिमिटेड की सबसे अधिक बिक्री मध्य पूर्व में हुई है। अगर डाबर एलजीबीटीक्यू का इतना समर्थन करता है तो वह मध्य पूर्व में अपना उत्पाद क्यों बेचता है?
इस बारे में चिंता करना बहुत आवश्यक हो गया है। इस तरह की आत्मसंतुष्टि से बात नहीं बननी है कि 'हिन्दू धर्म तो हजारों वर्षों से अस्तित्व में है और आगे भी रहेगा। कोई प्रचार हिन्दू धर्म को नष्ट नहीं कर सकता'।
लेकिन गोवा का उदाहरण, उससे पहले पाकिस्तान और बांग्लादेश का उदाहरण, उससे भी पहले अफगानिस्तान का उदाहरण हमारे सामने है। ये अनवरत हमले युवा प्रभावशाली दिमागों में विश्वास को प्रभावित करते हैं या कर सकते हैं।
प्रहार की रणनीति में नया अध्याय
इस क्रोनोलॉजी में अब एक और अध्याय जुड़ रहा है। वास्तव में जुड़ भी नहीं रहा है, सिर्फ नए सिरे से खुल रहा है। यह कि भारत और भारतीयता में या मां और मातृत्व में कोई अंतर नहीं है। इसी तरह, हिन्दू और 'हिन्दुत्व' के बीच कोई अंतर नहीं हो सकता। राहुल गांधी और सलमान खुर्शीद यह समझाने की कोशिश कर सकते हैं कि 'हिन्दु' 'हिन्दुत्व' से कैसे अलग है। कांग्रेस के नेता हिन्दुओं की तुलना 'बोको-हराम' और आईएसआईएस के आतंकियों से कर उन्हें अपमानित कर रहे हैं।
यह अकारण नहीं है। कांग्रेस को हिन्दू और हिन्दुत्व के बारे में यह इल्हाम कब हुआ? क्रोनोलॉजी देखिए। कांग्रेस की हजारों कमजोर नसों में से एक हैं- नक्सली। जो इनामी नक्सली होता था, वह सोनिया गांधी की एनएसी का सदस्य बन जाता था। अब हाल ही में भीमा कोरेगांव वालों की धरपकड़ तेज हुई, गढ़चिरौली में 26 नक्सली ढेर हुए, बड़े नक्सली का बड़ा भाई भी मारा गया, एक करोड़ का इनामी नक्सली तमाम अल तकैया के बावजूद पकड़ा गया। और तो और, पटना रैली में बम विस्फोट जैसा धर्मनिरपेक्ष कार्य करने वाले आतंकवादियों को फांसी की सजा भी सुना दी गई।
अब किसी भी आतंकवादी के कुकृत्यों को उचित ठहराने के लिए एक नैरेटिव चाहिए और एक सिविल सोसाइटी। इस सिविल सोसाइटी को बल देने के लिए भारत तेरे टुकड़े होंगे वाले नारे चाहिए। फिर आस्थाओं का उपहास उड़ाना होगा, सनातनियों के उत्सवों का अपमान करना होगा, इस सबके लिए फिर एक मजबूत सिविल सोसाइटी जैसा आवरण चाहिए।
इसके बाद शुरू होती है असली कहानी। जैसे, सुजैना अरुंधति रॉय के मुताबिक नक्सलवादी आतंकवादी तो बन्दूक वाले गांधी होते हैं। माने जैसे नक्सली, वैसे गांधी हैं।
क्रोनोलॉजी का दूसरा पक्ष। मादक द्रव्यों की तस्करी के एक के बाद एक मामलों का भांडा फूटना। एक पुलिस कमिश्नर का फरार होना, एक गृह मंत्री का सलाखों के पीछे होना। बहुत सी बातें आगे बढ़ रही हैं। जवाब में नैरेटिव चाहिए।
यह लंबा-चौड़ा चक्रव्यूह है। लगातार घूमता है। जिसे आप आखिरी दीवार समझते हैं, वास्तव में उसके आगे एक और दीवार होती है, या पैदा कर दी जाती है।
पहला वार…दूसरा वार…तीसरा वार… चौथा वार…पांचवां वार… छठा वार…सातवां वार…अगला वार… फिर पहला वार…। यह सतत युद्ध है।
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