काशी का अनूठा देव दीपावली उत्सव
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काशी का अनूठा देव दीपावली उत्सव

by पूनम नेगी
Nov 19, 2021, 01:26 pm IST
in भारत, उत्तर प्रदेश
प्रतीकात्मक चित्र

प्रतीकात्मक चित्र

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तीनों लोक से न्यारी काशी में कार्तिक माह की रौनक ही कुछ अलग होती है। सबसे खास बात यह कि यहां प्रकाश पर्व दो-दो बार मनाया जाता है। पहला कार्तिक कृष्ण अमावस्या को और दूसरा उसके 15 दिन बाद कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा को। अमावस्या को जब हम धरतीवासी दीपावली मनाते हैं तो पर्व पूजन में विष्णु व लक्ष्मी के स्थान पर गणेश व लक्ष्मी का पूजन किया जाता है क्योंकि उस समय सृष्टि के संचालक भगवान विष्णु अपनी चातुर्मासीय योगनिद्रा में लीन होते हैं इसलिए देवोत्थान एकादशी को श्रीहरि जब अपनी योगनिद्रा त्याग कर जागृत होते हैं तो उनके स्वागत में देवगण काशी के पावन घाटों पर देव दीपावली का उत्सव मनाकर श्री हरि और माँ लक्ष्मी का साथ में अर्चन-वंदन करते हैं। 

महादेव ने किया था त्रिपुर असुरों का अंत
एक अन्य पौराणिक प्रसंग जो कार्तिक पूर्णिमा पर आयोजित किये जाने वाले काशी के देवदीपावली उत्सव को आधार देता है, वह है महादेव द्वारा महाअसुर तारकासुर के तीन महाबलशाली पुत्रों का अंत कर देवशक्तियों को भयमुक्त करना। स्कन्द पुराण के कथानक के अनुसार शिवपुत्र कार्तिकेय द्वारा तारकासुर के वध से क्रोधित उसके तीनों पुत्रों (तारकाक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली) ने पिता की मृत्यु का बदला लेने के लिए घोर तपस्या से ब्रह्मा जी को प्रसन्न कर ऐसा वरदान प्राप्त कर लिया कि उन्हें जीतना असंभव हो गया। उन तीनों महाअसुरों ने असुर शिल्पी मयदानव से अंतरिक्ष में तैरने वाली तीन जादुई नगरियों स्वर्णपुरी, रजतपुरी और लौहपुरी का निर्माण कराया। ब्रह्मा जी से यह वर मिला था कि जब ये तीनों  जादुई नगरियां अभिजित नक्षत्र में एक सीधी रेखा में आएं और उस वक्त यदि कोई क्रोधजित महायोगी असंभव रथ पर सवार होकर उन पर असंभव बाण का संधान करे तो ही उनकी मृत्यु हो सके। इस वरदान के कारण जब उन दानवों के आतंक से देवलोक में चहुंओर त्राहि त्राहि मच गयी तब देवशक्तियों की प्रार्थना पर भगवान शिव ने उन असुरों के अंत के लिए एक माया रची। असंभव रथ को आकार देते हुए उन्होंने पृथ्वी को अपना रथ बनाया, जिसमें सूर्य व चन्द्रमा उस रथ के पहिये बने। ब्रह्मा जी सारथी और विष्णु जी बाण बने; मेरुपर्वत उनका धनुष बना और नागराज वासुकि उस धनुष की प्रत्यंचा। इस तैयारी के साथ काम दहन करने वाले महायोगी शिव ने अभिजित नक्षत्र में उन तीनों पुरियों के एक सीध में आते ही अपने विलक्षण बाण का संधान कर उनमें मौजूद तीनों महादैत्यों का अंत कर दिया। वह पावन तिथि थी कार्तिक पूर्णिमा। तीनों महाअसुरों के आतंक से मुक्त होने की खुशी में सभी देवताओं ने काशी के घाटों पर दीप जलाकर दीपोत्सव मनाया। वह शिव नगरी की प्रथम देव दीपावली थी।

हमें इस पौराणिक कथानक के पीछे निहित तत्वदर्शन को आधुनिक संदर्भ  में समझने की जरूरत है। अध्यात्मवेत्ताओं ने मानव शरीर के तीन स्तर बताए हैं- स्थूल, सूक्ष्म और कारण। व्यक्तित्व के संपूर्ण विकास और मानव जीवन के चरम लक्ष्य की सिद्धि के लिए इन तीनों शरीरों का पूर्ण जागरण अनिवार्य है। शिव  आदियोगी हैं। उनकी कृपा के बिना यह जागरण संभव नहीं। दैहिक, दैविक और भौतिक, तीनों स्वरूपों के अज्ञान जनित दुगरुणों का नाश करने में सिर्फ महायोगी शिव ही सक्षम हैं। इसलिए वे त्रिपुरांतक कहलाते हैं। त्रिपुरारी पूर्णिमा इन्हीं महायोगी को नमन का पावन पर्व है। 

कार्तिक पूर्णिमा से जुड़े अन्य पौराणिक संन्दर्भ

एक बार काशी के राजा दिवोदास ने देवताओं की किसी बात पर नाराज होकर उनका अपने राज्य में प्रवेश प्रतिबन्धित कर दिया तब भगवान शंकर ने दिवोदास व देवों में सुलह करवाई जिस पर देवताओं ने काशी में प्रवेश कर कार्तिक पूर्णिमा के दिन दीपावली मनायी। एक अन्य मान्यता है कि इसी दिन प्रलयकाल में वेदों की रक्षा के लिए तथा सृष्टि को बचाने के लिए भगवान विष्णु ने अपना प्रथम मत्स्य अवतार धारण किया था। महाभारत के विनाशकारी युद्ध में योद्धाओं और सगे संबंधियों की मृत्यु से दुखी महाराज युधिष्ठिर ने अपने भाइयों के साथ गढ़मुक्तेश्वर में कार्तिक पूर्णिमा के दिन स्नान व यज्ञ किया था। तभी से कार्तिक पूर्णिमा पर गंगा स्नान की परम्परा शुरू हो गयी। इस दिन गंगास्नान सर्वाधिक फलदायी माना जाता है। यही नहीं, कार्तिक पूर्णिमा के दिन तमिलनाडु में अरुणाचलम पर्वत की 13 किमी की परिक्रमा होती है जिसमें भाग लेकर लाखों लोग पुण्य कमाते हैं। सिख धर्म के अनुयाइयों के लिए भी यह दिन बहुत खास है क्योंकि इसी दिन गुरु नानकदेवजी का जन्म भी हुआ था।

मनोमुग्धकारी आकाशगंगा का पावन संदेश 
भारत की सांस्कृतिक राजधानी काशी देश की इकलौती ऐसी नगरी है जहां का देव दीपावली महोत्सव बीते दो दशकों में देश-दुनिया में अनूठी पहचान बना चुका है। जगद्गुरु आदि शंकराचार्य की प्रेरणा से प्रारंभ होने वाला यह दीप महोत्सव बीती सदी में केवल पंचगंगा घाट की शोभा बढ़ाता था जो अब विस्तृत होकर तीन किलोमीटर की अर्धचंद्राकार परिधि में फैले काशी के समस्त 80 घाटों को अपने दायरे में समेट चुका है। देव दीपावली की आधुनिक परम्परा का शुभारम्भ सबसे पहले 1915 में पंचगंगा घाट में हजारों दिये जलाकर किया गया था। बताते चलें कि देव-दीपावली उत्सव को आधुनिक रूप स्वरूप में लाने के पीछे महारानी अहिल्याबाई होलकर का अविस्मरणीय योगदान है। महारानी होलकर ने प्रसिद्ध पंचगंगा घाट पर एक हजार दीपों वाला एक भव्य प्रस्तर स्तम्भ स्थापित कर इस उत्सव को परंपरा और आधुनिकता का जो अनूठा रूप दिया, वह आज तक कायम है। देव दीपावली के दिन पंचगंगा घाट का यह "हजारा दीपस्तंभ" 1001 दीपों की लौ से जगमगा कर प्रत्येक भावनाशील श्रद्धालु को "तमसो मा ज्योर्तिगमय" का पावन संदेश देता है। देव दीपावली उत्सव को भव्यता प्रदान करने में पूर्व काशी नरेश स्वर्गीय डॉ. विभूतिनारायण सिंह का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा। काशी नरेश के सहयोग से स्वामी रामनरेशाचार्य जी, नारायण गुरु किशोरी रमण दुबे "बाबू महाराज" (गंगोत्री सेवा समिति, दशाश्वमेध घाट), सत्येन्द्र मिश्र "मुन्नन जी" (गंगा सेवानिधि) तथा कन्हैया त्रिपाठी (गंगा सेवा समिति) ने इस समारोह को भव्य आयाम प्रदान किया। आज देवदीपावली के इस भव्य उत्सव में मुख्य सहभागी होते हैं- काशी, काशी के घाट और काशी के लोग।  इस विश्वविख्यात आयोजन में जब रविदास घाट से लेकर आदि केशव तक के समस्त ऐतिहासिक घाटों के समेत वरुणा के तट एवं घाटों पर स्थित देवालय, महल, भवन, मठ-आश्रम जब असंख्य दीपकों और झालरों की रोशनी से जगमगा उठते हैं तो ऐसा प्रतीत होता है कि मानो काशी में समूची आकाशगंगा ही उतर आयी हो। कार्तिक पूर्णिमा की संध्याबेला में कल-कल बहती सदानीरा गंगा के तट पर वैदिक मंत्रों के बीच शास्त्रोक्त विधि से प्रज्ज्वलित लाखों दीपों की साक्षी में जब महाआरती का अनुष्ठान किया जाता है तो चहुंओर एक दिव्य आभामंडल की सृष्टि हो जाती है। विश्व की प्राचीनतम नगरी में देव दीपावली के इस नयनाभिराम अलौकिक दृश्य को अपनी आंखों में संजो लेने के लिए प्रतिवर्ष लाखों श्रद्धालु व विदेशी अतिथि गांगाघाटों पर उमड़ पड़ते हैं। 

इसलिए भी खास है देवदीपावली उत्सव
गंगा सेवा निधि संस्था के अध्यक्ष सुशांत मिश्र के मुताबिक आध्यात्मिकता और राष्ट्रवाद को संकल्पित काशी का विश्व प्रसिद्ध देवदीपावली उत्सव कई अन्य कारणों से भी विशेष होता है। इसमें भारत के अमर वीर योद्वाओं को श्रद्धान्जलि देने के साथ ही  मां गंगा को स्वच्छ और निर्मल बनाने तथा पर्यावरण और जल संरक्षण के संकल्प भी दिलाये जाते हैं। अयोध्या में भव्य दीपोत्सव के बाद उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार काशी में भव्य देव दीपावली महोत्सव का आयोजन कर रही है। दीपावली पर रामनगरी अयोध्या में करीब 9.54 लाख दीपक जलाकर प्रदेश सरकार ने एक विश्व कीर्तिमान बनाया है। अब अपने ही कीर्तिमान को चुनौती देते हुए वाराणसी के गंगा घाटों पर देव दीपावली महोत्सव में इस बार 12 लाख दीये जलाए जलाने की तैयारी है। इसमें सात लाख दीये गंगा के घाटों पर तो पांच लाख दीये रेती पर जलाए जाएंगे। गत वर्ष करीब पांच लाख दीये जलाए गए थे।

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