पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार को एक अहम आदेश दिया। इसके तहत विदेशी धन प्राप्त करने वाले एनजीओ के खर्च पर निगरानी का रास्ता साफ होने के आसार हैं। दो जनहित याचिकाओं पर सुनवाई के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने अपना निर्णय तो सुरक्षित रखा लेकिन इस दौरान जो बातें कही गर्इं, वे उदारवादियों की आड़ में चल रहे एनजीओवाद के लिए बड़ा झटका हैं। खासकर विदेशी चंदे से भारत की संप्रभुता और अखण्डता को चुनौती देने वाले एक बड़े तबके के लिए सर्वोच्च न्यायालय का ताजा रवैया निराशाजनक ही है।
केयर एंड शेयर चैरिटेबल ट्रस्ट के अध्यक्ष नोएल हार्पर और जीवन ज्योति चैरिटेबल ट्रस्ट ने एफसीआरए एक्ट 2010 के संशोधन को संविधान के अनुच्छेद 14, 19 और 21 का उल्लंघन बताते हुए चुनौती दी है। सर्वोच्च न्यायालय ने 9 नबम्बर को एफसीआरए एक्ट संशोधनों को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया। दरअसल, सर्वोच्च न्यायालय को इस मामले में यह तय करना है कि विदेशी योगदान (विनियमन) अधिनियम 2010 (एफसीआरए) में संशोधन कर बनाए गए नए विदेशी योगदान (विनियमन) संशोधन अधिनियम (2020) में हुए परिवर्तन संवैधानिक हैं या नहीं।
न्यायालय का कड़ा रुख
सर्वोच्च न्यायालय ने सुनवाई के दौरान कहा कि यह सुनिश्चित करने की जरूरत है कि विदेशों से धन प्राप्त करने वाले गैर-सरकारी संगठनों ने उस धन का दुरुपयोग नहीं किया है और इसका इस्तेमाल केवल उस उद्देश्य के लिए किया है, जिन उद्देश्यों के लिए फंड लिया गया है। न्यायालय ने यह भी कहा कि अगर आप (केद्र्र सरकार) इसे पहले सुनिश्चित नहीं कर पाए हैं, तो इसे अभी से सुनिश्चित कर लें। न्यायमूर्ति ए.एम. खानविलकर, न्यायमूर्ति दिनेश माहेश्वरी और न्यायमूर्ति सी.टी. रविकुमार की बेंच ने मामले में सुनवाई पूरी कर फैसला सुरक्षित रख लिया है।
साथ ही कहा कि केंद्र सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि विदेशी फंड प्राप्त करने वाले गैर सरकारी संगठनों द्वारा धन का दुरुपयोग नहीं किया जाए,अन्यथा एफसीआरए (विदेशी अंशदान विनियमन अधिनियम) का उद्देश्य हल नहीं होगा। इसपर केंद्र सरकार ने दलील पेश करते हुए कहा कि अगर विदेशी योगदान अनियंत्रित हुआ तो राष्ट्र की संप्रभुता के लिए विनाशकारी परिणाम हो सकते हैं।
विदेशी फंड को विनियमित करने की जरूरत है, वरना नक्सली गतिविधि या देश को अस्थिर करने के लिए पैसा आ सकता है। खुफिया रिपोर्ट्स के हवाले से न्यायालय में यह भी बताया गया है कि विकास कार्यों के लिए आने वाले पैसे का इस्तेमाल नक्सलियों को प्रशिक्षित करने के लिए किया जाता है
विदेशी चंदे से षड्यंत्रकारी गतिविधियां
पिछले साल से लागू नए एफसीआरए संशोधन कानून को लेकर देश की सिविल सोसाइटी में बड़ी तीखी प्रतिक्रिया देखी गई थी। असल में नया विदेशी अभिदाय कानून (एफसीआरए)भारत की धरती पर भारत के ही कुछ नागरिक समूहों की राष्ट्रविरोधी गतिविधियों को निषिद्ध करने का विधिक प्रावधान स्थापित करता है। सच्चाई यह है कि मानवाधिकार, गरीबी, शिक्षा, कुपोषण और नागरिक अधिकारों के नाम पर भारत में विदेशी षड्यंत्र लंबे समय से फल-फूल रहे हैं।
सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि यह सुनिश्चित करने की जरूरत है कि विदेशों से धन प्राप्त करने वाले गैर सरकारी संगठनों ने उस धन का दुरुपयोग नहीं किया है और इसका इस्तेमाल केवल उस उद्देश्य के लिए किया है, जिन उद्देश्यों के लिए फंड लिया गया है। न्यायालय ने यह भी कहा कि अगर आप(केंद्र सरकार) इसे पहले सुनिश्चित नहीं कर पाए हैं, तो इसे अभी से सुनिश्चित कर लें |
मामला चाहे नक्सलियों के समर्थन का हो या परमाणु और कोयले से जुड़ी विकास परियोजनाएं, कुछ एनजीओ ने राष्ट्रीय महत्व की परियोजनाओं को अवरुद्ध करने का काम ही किया है। यूपीए सरकार के दौर में अमेरिका से परमाणु ऊर्जा समझौते के समय तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी इस एनजीओवाद पर नाराजगी व्यक्त कर चुके हैं। पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति खेहर ने भी प्रशांत भूषण को इसी भावना के साथ कड़ी फटकार लगाई थी। सिविल सोसाइटी की आड़ में प्रतिक्रियावादी तत्वों की भूमिका को आज राष्ट्रीय सन्दर्भ में गंभीरतापूर्वक समझने की जरूरत है।
सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दिए गए नए कानून के बाद अब सभी गैर-सरकारी संगठनों को विदेशी चंदा प्राप्त करने के क्रम में अपने सभी पदाधिकारियों के आधार नंबर दर्पण पोर्टल पर प्रविष्ट कराने होंगे। इस मद में मिलने वाली रकम एसबीआई के एक विशिष्ट खाते में जमाकर इसका व्यय प्रतिवेदन भी सरकार को सौंपना होगा। अभी सरकार के समक्ष ऐसे तमाम प्रकरण आए हैं जिनमें विदेशों से प्राप्त धन का उपयोग मद परिवर्तित कर सरकार और विकास परियोजनाओं के विरुद्ध लोगों को भड़काने में किया गया है।
2010 से 2019 की अवधि में विदेशी चंदे की वार्षिक आमद दुगुनी हुई है। खास बात यह है कि 2016-17 और 2018-19 में विदेशों से 58 हजार करोड़ रुपये भारतीय एनजीओ के खातों में आए हैं। अकेले अमेरिका से यह आंकड़ा तीन खरब और फ्रांस से तीन अरब रुपये वार्षिक है। यह राशि भारत सरकार के कुछ कल्याणकरी विभागों के बजट से अधिक है। देश में करीब 22,500 ऐसे संगठन हैं जो इस धनराशि को अपने कार्यक्रमों के नाम पर अमेरिका, चीन, जापान, कनाडा, यूरोप से लेकर इस्लामिक देशों से प्राप्त करते हैं।
गौर करने वाली बात यह है कि राजीव गांधी फाउंडेशन, राजीव गांधी चैरिटेबल ट्रस्ट, राजीव गांधी इंस्टीट्यूट आॅफ कंटेपरेरी स्टडीज को चीन से प्राप्त लाखों डॉलर के व्यय की जांच पिछले साल ईडी को सौंपी गई है। अध्ययन के नाम पर इस थिंक टैंक ने यूरोपीय आयोग, आयरलैंड सरकार और सयुंक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम जैसे संगठनों से भी बड़ा चंदा हासिल किया।
हाल ही में गृह मंत्रालय ने 12 एनजीओ को चिन्हित किया था जो रोहिंग्या मुसलमानों को भारत में अवैध रूप से प्रवेश कराने,उन्हें सयुंक्त राष्ट्र शरणार्थी प्रावधानों के अनुरूप कतिपय दस्तावेज उपलब्ध कराने का काम कर रहे थे। इन संगठनों में एमेनेस्टी इंटरनेशनल के भारतीय पदाधिकारियों के अलावा कोलकाता का ‘बोन्दी मुक्ति संगठन’ शामिल था।
रोहिंग्या के मामले में सक्रिय अधिकतर एनजीओ दिल्ली में समाजकर्म के नाम पर पंजीकृत हैं। इस एनजीओ से जामिया के एक प्रोफेसर के साथ भारतीय विदेश सेवा के एक पूर्व अधिकारी भी जुड़े हैं। मुख्य धारा के मीडिया से बाहर हुए बड़े पत्रकारों एवं विवि शिक्षकों का एक सुगठित तंत्र देश में काम कर रहा है। अल्पसंख्यक, मानवाधिकार हनन, आदिवासी, कश्मीर, पूर्वोतर मुद्दों पर अध्ययन के नाम पर भारत को बदनाम करना इस तंत्र का मुख्य व्यवसाय बन गया है।
जकात, सबरंग, सफदर हाशमी ट्रस्ट, सद्भावना, कंपैशन इंटरनेशनल,यंग मेन्स क्रिश्चियन एसोसिएशन, पीएफआई, नव सर्जन ट्रस्ट, पीपुल्स वॉच, अनहद जैसे तमाम संगठनों पर धर्मांतरण और समाज तोड़ने के कुत्सित एजेंडे पर काम करने के आरोप हैं। अधिकांश बड़े एनजीओ शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण और आश्रय के नाम से छोटे एनजीओ को यह राशि हस्तांतरित कर देते हैं। मदर एनजीओ मैदानी संगठनों के जरिए ही अपना एजेंडा पूरा कराते हैं। तीस्ता सीतलवाड़ के संगठन को फंड दुरुपयोग कर साम्प्रदायिक दुष्प्रचार का दोषी पाया गया है। नवसृजन ट्रस्ट भी गुजरात में दलितों को भड़काने में अग्रणी है।
मनीष सिसौदिया के एनजीओ ‘कबीर’ को फोर्ड फाउंडेशन से 1.97 लाख डॉलर की मदद मिली थी। अरुंधति राय खुद इसके दुरुपयोग का आरोप लगा चुकी हैं। 2009 से 2014 तक यूपीए सरकार में भारत की एडिशनल सॉलिसिटर जनरल रही इंदिरा जयसिंह के एनजीओ ‘लायर्स कलेक्टिव’ पर भी विदेशी मदद के दुरुपयोग का संगीन आरोप विचाराधीन है।
इस संस्था को 2006 से 2014 के मध्य एफसीआरए से 33.39 करोड़ की मदद मिली। उन्होंने फोर्ड फाउंडेशन, ओपेन सोसाइटी के अलावा लाबीस्ट्रॉस से धन हासिल किया था। ग्रीन पीस और फोर्ड फाउंडेशन समेत अनेक मिशनरीज और जिहादी उद्देश्यों वाले एनजीओ भारत में न केवल गरीबी और अशिक्षा का फायदा उठा रहे हैं बल्कि भारतीय शासन और राजनीति को भी सीधे प्रभावित कर रहे हैं। नागरिकता संशोधन कानून से लेकर किसान आंदोलन तक देश भर में माहौल को विषाक्त करने में इसी चिन्हित वर्ग की भूमिका सन्देह के दायरे में है।
आईबी की एक रिपोर्ट के अनुसार परमाणु बिजलीघर,कोयला बिजलीघर, यूरेनियम खदान, जीएम तकनीकी, पनबिजली परियोजना के मामलों में पहले अध्ययन के नाम पर मिथ्या रिपोर्ट प्रचारित की जाती है। फिर उन्हें सर्वोच्च न्यायालय/ उच्च न्यायालय में जनहित याचिकाओं के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। रिपोर्ट में दावा किया गया है कि एनजीओ प्रेरित कानूनी अड़ंगों,धरना-प्रदर्शन के चलते भारत को 3 प्रतिशत जीडीपी का घाटा उठाना पड़ता है।
मोदी सरकार की कार्रवाई
मोदी सरकार ने 2014 से इन संस्थाओं की संदिग्ध गतिविधियों को खंगालने की कार्रवाई आरम्भ की और अभी तक 20,673 एनजीओ के एफसीआरए लाइसेंस रद्द किए हैं। देश मे 33 लाख एनजीओ में से केवल 10 प्रतिशत ही सरकार को नियमित रिपोर्ट करते हैं। खुद पी. चिदम्बरम ने गृह मंत्री के रूप में संसद में स्वीकार किया था कि आधे से अधिक एफसीआरए प्राप्त संगठन न केवल धन का दुरुपयोग कर रहे हैं बल्कि सरकार को कोई रिपोर्ट भी नहीं करते हैं।
नोएल हार्पर और जीवन ज्योति चैरिटेबल ट्रस्ट द्वारा दायर याचिकाओं में एफसीआरए संशोधनों को यह कहते हुए चुनौती दी गई है कि संशोधन ने विदेशी धन के उपयोग में गैर सरकारी संगठनों पर कठोर और अत्यधिक प्रतिबंध लगाए हैं। वहीं दूसरी तरफ उन्नीस हजार से अधिक एनजीओ नए कानून के तहत विदेशी धन के लिए नई दिल्ली की एसबीआई शाखा में अपना खाता खोल चुके हैं।
उदारवादियों की आड़ में भारत विरोधी एजेंडा चलाने वाले एक बड़े वर्ग में अभी भी इस कानून को लेकर खलबली है। सर्वोच्च न्यायालय के ताजा रुख के बाद मिशनरी एवं इस्लाम आधारित एनजीओ का परेशान होना स्वाभाविक ही है।
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