हमारी सनातन भारतीय संस्कृति के पर्व-त्योहारों की बहुरंगी परम्पराएं जितनी आकर्षक व सम्मोहक हैं, उतनी ही तार्किक और विज्ञान सम्मत भी। इनके माध्यम से हमें अपनी सभ्यता और संस्कृति को और करीब से जानने का मौका मिलता है। ऐसा ही एक लोकपर्व है ‘छठ’; जो श्रद्धालुओं को प्रकृति और संस्कृति को संरक्षित रखने की अनूठी सीख देता है। दीपावली के छह दिन बाद कार्तिक महीने के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि (सूर्यषष्ठी) से शुरू होने वाले सूर्योपासना के इस चार दिवसीय लोकपर्व का आयोजन यूं तो रोगमुक्ति, संतान प्राप्ति और सुख सौभाग्य की कामना से किया जाता है, लेकिन प्रकृति की कोख से उपजे इस लोकपर्व की परम्पराओं में प्रकृति के पंचतत्वों और पर्यावरण को सहेजने की गहरी ललक दिखती है। इस पर्व पर सूर्यदेव को समर्पित किये जाने वाले अर्घ्यदान का तत्वदर्शन भी अद्भुत व बेमिसाल है। सामान्यतः लोग उदय होते सूर्य की आराधना करते हैं, लेकिन छठ पर्व पर डूबते और उगते दोनों सूर्यों को अर्घ्य दिया जाता है। इसमें भी पहला अर्घ्य डूबते सूर्य को दिया जाता है। इसका संदेश यह है कि जो आज डूब रहा है, उसकी अवहेलना न कर उसे सम्मान के साथ विदा करें क्योंकि कल फिर वही पुनः उदित होगा। छठ का ये अर्घ्य-विधान अतीत के सम्मान और भविष्य के स्वागत का संदेश देने की भावना को पुष्ट करता है।
इस लोकपर्व में भगवान सूर्य नारायण और उनकी बहन षष्ठी को ‘छठी मैया’ के रूप में भावनापूर्ण नमन किया जाता है। पौराणिक मान्यता के अनुसार माँ प्रकृति के छठे अंश से उत्पन्न शक्ति ‘षष्ठी’ सर्वश्रेष्ठ मातृ शक्ति के नाम से विख्यात हुईं। माना जाता है कि छठ पर्व मनाने की शुरुआत महाभारत काल में कर्ण ने की थी। कर्ण भगवान सूर्य का परम भक्त था। वह प्रतिदिन घंटों कमर तक पानी में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देता था। सूर्य की कृपा से ही वह महान योद्धा बना था। आज भी छठ पर्व के दौरान सूर्यदेव को अर्घ्यदान की वही कर्णप्रणीत पद्धति ही प्रचलित है। अनेकों अन्य पौराणिक विवरण भी इस पुरायुगीन लोकपर्व और सूर्योपासना की महत्ता को बताते हैं।
पौराणिक ग्रंथों में नदियों, वृक्षों, पर्वतों आदि का मानवीकरण करते हुए उनमें जीवन की प्रतिष्ठा की गयी है। नदियों को माता कहने से लेकर पेड़ और पहाड़ का पूजन करने की भारतीय परंपराओं को पूर्वाग्रहवश कोई अन्धविश्वास भले कहे, लेकिन ये परम्पराएं हमारी संस्कृति के प्रकृति-प्रेमी चरित्र की ही सूचक हैं। छठ पूजा मूलतः प्रकृति की पूजा है। सनातन काल से मनाया जाने वाला यह लोकपर्व हमें पर्यवारण को बचाने और उसका सम्मान करने की सीख देता है। इसके लिए न तो विशेष धन की आवश्यकता होती है, न ही मंदिरों या देव मूर्तियों की। न ही किसी पंडित-पुरोहित की जरूरत और न ही किन्हीं कर्मकांडों व शास्त्रीय विधि-विधानों की। बांस निर्मित सूप-टोकरी, गन्ना, सिंघाड़ा, केला, संतरा, सेब, हल्दी, अदरख जैसे फल व कंद तथा मिट्टी के चूल्हे पर गन्ने के रस, गुड़, चावल और गेहूं से अत्यंत शुद्धता से निर्मित प्रसाद और छठी मैया के सुमधुर लोकगीतों के मध्य उदीयमान ही नहीं, अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्यदान देने वाला यह पर्व भारत के लोकजीवन की सोंधी सुगंध बिखेरता है। जन सामान्य द्वारा अपने रीति-रिवाजों के रंगों में गढ़ी गयी सहज-सरल उपासना पद्धति इसकी खासियत है और इसके केंद्र में है भारत का ग्रामीण जीवन। यही वजह है कि बिहार, झारखण्ड, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के तराई क्षेत्र के ग्राम्य अंचलों में मनाया जाने वाला सूर्योपासना का यह लोकपर्व बीते कुछ सालों में क्षेत्रीयता की सीमाएं लांघ देश-विदेश में तेजी से लोकप्रिय होता जा रहा है।
छठ पूजा का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष इसकी सरलता, सादगी, शुद्धता, पवित्रता और शत-प्रतिशत पर्यावरण हितैषी होना है। छठ पूजा पर गाय के गोबर से पूजा स्थल को लेप कर शुद्ध किया जाता है। पूजा घाटों की मरम्मत और सफाई का काम तो दीपावाली खत्म होते ही शुरू हो जाता है। स्वयंसेवी संस्थाएं और राज्य प्रशासन भी इस काम में योगदान देते हैं। छठ के लिए सफाई के साथ पवित्रता का होना भी जरूरी है। इसीलिए धुले घर-आंगन फिर से धोए जाते हैं। छत की सफाई का ध्यान रखा जाता है, क्योंकि छठ में चढ़ाए जाने वाले प्रसाद ठेकुआ के लिए गेहूं धोकर वहीं सुखाया जाता है। ठेकुआ बनाने के लिए बाजार से खरीदा आटा इस्तेमाल नहीं किया जाता। धुले गेहूं को पीसने के लिए आटा चक्कियों की भी विशेष सफाई की जाती है। यदि प्रसाद सामग्री रसोई में बनानी हो, तो रसोई में बिना स्नान तथा चप्पल पहनकर प्रवेश वर्जित होता है। पूजा गृह में ही मिट्टी के चूल्हे का बंदोबस्त किया जाता है, जिसमें आम की सूखी लकड़ियां जलाकर पूजा के लिए मिट्टी के खास बर्तनों में प्रसाद बनाने की परम्परा है। सफाई व शुद्धता में कोई त्रुटि न हो, व्रती इसका पूरा ध्यान रखते हैं। सारे सात्विक पकवान शुद्ध देसी घी में तैयार किए जाते हैं। ठेकुआ में आटे और गुड़ इस्तेमाल होता है। वहीं कसार में चावल और गुड़ का। इस दौरान अगर प्रसाद में किसी ने छींक भी मार दी तो वह अशुद्ध माना जाता है।
कोरोना में हम सबने जो स्वच्छता का जो पाठ आज सीखा है, वह छठ में सनातन काल से चला आ रहा है। मिथिला लोक फाउंडेशन के अध्यक्ष बीरबल झा की मानें तो छठ में फल और सब्ज़ियां भी पूजा में रखी जाती हैं। इन तमाम प्रसाद की सामग्री से अर्घ्य दिया जाता है। पूजा की इन सभी चीजों को ले जाने के लिए बांस से बने दउरा या सूप का इस्तेमाल होता है, वे भी परंपरागत तरीके से बनाये जाते हैं। इसमें कहीं भी प्लास्टिक का इस्तेमाल नहीं होता। इन तमाम पूजा सामग्री को लेकर लोग घाट पर जाते हैं और भगवान सूर्य को अर्घ्य देते हैं। इसके बाद सारी चीजें घर लाई जाती हैं। पूजा में इस्तेमाल सामग्री आस्था के कारण कोई सड़क पर या फिर नदी-नाले में नहीं फेंकता। न कोई बनावटी वस्तु और न ही कोई बर्बादी। इस तरह यह लोकपर्व सही मायने में पर्यावरण का सच्चा हितैषी है। प्रकृति के साथ छेड़छाड़ रोकने और जलवायु को प्रदूषणमुक्त रखने के लिये अगर ऐसे लोकानुष्ठानों की सामर्थ्य समझ ली जाए तो मानव कल्याण के कई अभिक्रम एक साथ सहज ही पूरे हो जाएं। यही पर्यावरण हितैषी जीवन शैली अपनाने की अपील हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बीते दिनों जलवायु सम्मेलन के मंच से विश्व समुदाय से की है। आज के दौर में जब लगातार कटते पेड़ों के कारण विश्व का तापमान बढ़ता जा रहा है और तेजी से पिघलते ग्लेशियरों के कारण धरती पर संकट बढ़ता जा रहा है, तब छठ से निकलते इस संदेश की प्रासंगिकता व महत्ता और भी बढ़ जाती है। ज्ञात हो कि दो दशक कुछ संस्कृति प्रेमी युवाओं ने ‘बेस्ट फॉर नेक्स्ट’ नामक एक सांस्कृतिक अभियान के तहत बिहार में गंगा, गंडक, कोसी और पुनपुन नदियों के घाटों पर मनने वाले छठ व्रत पर एक डाक्यूमेंट्री भी बनायी थी, जिसमें जिन नदियों के छठ पर्व के बहाने कुदरत को सहेजने की मार्मिक सीख दी गयी है।
यह लोकपर्व सामाजिक एकता का भी अद्भुत संदेश देता है। सूर्य देव को बांस के बने जिस सूप और डाला में प्रसाद अर्पित किया जाता है; वह समाज की सर्वाधिक पिछड़ी जाति के लोग बनाते हैं तथा छठ घाट अर्थात नदियों, तालाबों या सरोवरों पर सूर्य को अर्घ्य देने के लिए सभी जाति के लोग आपसी भेदभाव को मिटाकर एक समान श्रद्घा और आस्था के साथ एकत्र होते हैं। इस पर्व में बांस के सूप, डालिया, मिट्टी के चूल्हे, मिट्टी का दीया, ढकना, अगरबत्ती सहित अन्य सामग्री बड़ा महत्व रखता है। छठ के मौके पर बगैर किसी सरकारी सहायता के इन कुटीर उद्योगों को बड़े पैमाने पर प्रोत्साहन भी मिलता है।
छठ के लोकगीतों की छटा भी कम निराली नहीं है। धुन, लय, बोल आदि सभी मायनों में इनमें एक अनूठा वैशिष्ट्य तो होता ही है; पर्व में निहित प्रकृति की प्रतिष्ठा भी इनमें स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। ‘कांच ही बांस के बहन्गियाँ’, ‘मरबो जे सुगवा धनुष से’, ‘केलवा के पात पर’, ‘पटना के घाट पर’ आदि सुप्रसिद्ध गीतों में प्राकृतिक तत्वों को पकड़कर बड़ा सुन्दर और संदेशप्रद अर्थ-विधान गढ़ा गया है। दीपावली बीतते ही बिहार के गांव-घरों में शारदा सिन्हा, देवी और अनुराधा पौडवाल आदि की मधुर आवाजों में गाये छठ के लोकगीत गूंजने लगते हैं। इन लोकगीतों में प्रकृति संरक्षण ही नहीं; अब नारी सशक्तिकरण तथा सामाजिक जागरूकता के संदेश भी दिए जाने लगे हैं- रुनकी-झुनकी बेटी मांगीला.., मांगीला पठत पंडित दामाद.. जैसे लोकगीत सुशिक्षित समाज में बेटियों की महत्ता एवं शिक्षा पर बल देते हैं। ये गीत अब बड़े पैमाने पर सोशल मीडिया पर भी सुनने को मिलते हैं।
लोकपर्व का अनूठा विज्ञान
सूर्यषष्ठी के अर्ध्ययदान में आध्यात्मिकता के साथ वैज्ञानिकता का भी गहन-रहस्य निहित है। छठ पर्व पर एक विशेष खगोलीय परिवर्तन होता है। हमारे वैदिक कालीन ऋषि -मुनियों ने अपने अनुसंधानों में पाया था कि किसी विशेष दिवस पर सूर्य किरणों की रोगों को नष्ट करने की क्षमता विशेष रूप से बढ़ जाती है। इस मान्यता की पुष्टि के लिये किये गये वैज्ञानिक विश्लेषण में पाया गया कि छठ पर्व के दिन एक विशेष खगोलीय परिवर्तन होता है। इस समय सूर्य की पराबैंगनी किरणें पृथ्वी की सतह पर सामान्य से अधिक मात्रा में एकत्र हो जाती हैं तथा सूर्योदय और सूर्यास्त के समय इन किरणों की सघनता बढ़ जाती है। इस दिन कमर तक जल में खड़े होकर सूर्य को जल देने से सूर्य की इन किरणों के हानिकारक प्रभाव से रक्षा होती है। यूं भी हमारे आयुर्वेद में जल-चिकित्सा में ‘कटिस्नान’ को विशेष उपयोगी माना गया है। भारतीय शरीर विज्ञानियों के अनुसार इससे कई रोगों का निवारण होता है और रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है। ऋषि कहते हैं कि सूर्यषष्ठी के दिन गायत्री मंत्र के जप के साथ सूर्यध्यान करने से आन्तरिक चेतना भी सहज ही परिष्कृत हो जाती है।
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