जीवन रस का सामूहिक गान भारत की सनातन संस्कृति की मूल संवेदना है। होली हमारा महा-महोत्सव है, दशहरा महानुष्ठान, पर दीपावली सही अर्थों में हमारा सर्वोपरि महापर्व है। पुरुषार्थ और आत्म-साक्षात्कार के इस महापर्व पर हम दीप प्रज्वलन के साथ महालक्ष्मी का आह्वान कर ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय:’ की वैदिक परंपरा को गतिमान बनाते हैं। ‘श्री’ अर्थात् लक्ष्मी पूजन भारत की सर्वाधिक प्राचीन सांस्कृतिक परम्परा है। ऋग्वेद की ऋचाओं में ‘श्री’ तत्त्व का विवेचन विस्तार से मिलता है; ‘श्री’ अर्थात् मां महालक्ष्मी का वह सार्वकालिक दिव्य तत्वदर्शन, जिसे जीवन में उतारकर वैदिक मनीषियों ने सुखी, समृद्ध व उन्नत्त आर्यावर्त की आधारशिला रखी थी।
वैदिक मनीषी राष्ट्र जीवन में समृद्धि की महत्ता प्रतिपादित करते हुए कहते हैं- श्री र्वै राष्ट्रम् अर्थात ‘श्री’ सम्पन्न होने पर ही राष्ट्र, राष्ट्र के समान प्रतीत होता है। ‘पृथ्वी सूक्त’ में ऋषि प्रार्थना करते हैं-श्रिया माम् धेहि अर्थात् हे ईश्वर! मुझे ‘श्री’ की संप्राप्ति हो। अथर्ववेद के सामगान में दीप्ति, ज्योति, कीर्ति जैसे शब्दों को ‘श्री’ के पर्याय रूप में प्रस्तुत किया गया है। समुद्र मन्थन के समय क्षीरसागर से प्रगट होने वाली ‘क्षीरोदतनया’ मां महालक्ष्मी समस्त सांसारिक विभूतियों की अधिष्ठात्री मानी गई हैं। श्रीसूक्त में ऋषि मां महालक्ष्मी की स्तुति करते हुए कहते हैं –
ॐ चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलन्ती श्रियं लोके देवजुष्टामुदाराम्।
तां पद्मिनीमी शरणं प्रपधे अलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणे॥
भावार्थ-चंद्रमा के समान उज्ज्वल कान्तिवाली और स्वयं की कीर्ति से दैदीप्यमान मां, जो स्वर्गलोक में इन्द्र्र आदि समस्त देवों से पूजित हैं, अत्यंत उदार, दानशील और कमल पर निवास करने वाली तथा सभी की रक्षा करने वाली एवं आश्रयदात्री हैं, उन जगद्विख्यात मां महालक्ष्मी का मैं आश्रय लेता हूं। वे मेरी दरिद्रता को नष्ट करें।
मां महालक्ष्मी का महिमागान करते हुए ऋषि कहते हैं कि संसार का सम्पूर्ण वैभव उन्हीं का कृपा प्रसाद है। वे संसार में सभी के दु:ख-दारिद्रय को जलाकर सत्पात्रों को सुख-सम्पत्ति का उज्ज्वल प्रकाश बांटती हैं और बिना भोग के, सिर्फ भाव से ही तृप्त हो जाने के कारण तृप्ता कहलाती हैं। लक्ष्मी पुराण में मां महालक्ष्मी के आठ स्वरूपों का वर्णन मिलता है— आद्यालक्ष्मी, विद्यालक्ष्मी, सौभाग्यलक्ष्मी, अमृतलक्ष्मी, कामलक्ष्मी, सत्यलक्ष्मी, भोगलक्ष्मी व योगलक्ष्मी। वे कहती हैं कि जितेन्द्रिय, चरित्रवान, साहसी, परिश्रमी, कार्यकुशल, क्रोधहीन, शान्त, कृतज्ञ और उदार मनुष्य के पास अपने उपरोक्त स्वरूपों में वे सदैव निवास करती हैं। जबकि अकर्मण्य, नास्तिक, कृतघ्न, आचारभ्रष्ट, नृशंस, चोर, उद्धत, कपटी, बुद्धिवीर्यहीन पुरुष को अलक्ष्मी का साथ प्राप्त होता है। मां लक्ष्मी का आशीर्वाद केवल पुरुषार्थी पर ही बरसता है। एक प्रख्यात वैदिक सूत्र है-कराग्रे वसते लक्ष्मी: करमध्ये सरस्वती। करमूले तु गोविंद: प्रभाते करदर्शनम॥
श्रीयंत्र का अनूठा तत्वदर्शन
ज्योतिपर्व से जुड़े पावन प्रसंग
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार मृत्यु के देवता यमराज ने नन्हें से जिज्ञासु बालक नचिकेता को इसी दिन ब्रह्मविद्या का ज्ञान दिया था। कालान्तर में त्रेतायुग में इस पर्व से 14 साल के वनवास और रावण वध के उपरांत श्रीराम की अयोध्या वापसी तथा द्वापर में श्रीकृष्ण द्वारा नरकासुर वध का प्रसंग भी जुड़ गया। भगवान राम ने राष्ट्र के आध्यात्मिक उत्थान तथा अनौचित्य के विनाश तथा औचित्य की स्थापना के लिए राज्य सुख त्याग कर चौदह वर्षों के वनवास स्वीकार किया था। जब वे असुरता के प्रतीक रावण पर विजय प्राप्त कर अयोध्या लौटे, तब उनका स्वागत दीपमालाओं से सजाकर किया गया। कहते हैं कि तभी से लोग दीपावली मनाते आ रहे हैं। महाभारत के अनुसार 12 वर्षों का वनवास व एक वर्ष का अज्ञातवास पूरा होने पर दीपोत्सव मनाया गया था। अन्य पौराणिक विवरणों के मुताबिक भगवान विष्णु ने नृसिंह रूप धारणकर इसी दिन आतातायी हिरण्यकश्यपु का वध किया था।
ऐतिहासिक साक्ष्यों के मुताबिक जैन तीर्थकर भगवान महावीर ने इसी दिन निर्वाण प्राप्त किया था और देवों ने दीप जलाकर उनकी स्तुति की थी। सिखों के लिए भी दीपावली की पावन तिथि अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि इसी दिन अमृतसर में 1577 में स्वर्ण मन्दिर का शिलान्यास हुआ था। इसके अलावा 1619 में दीपावली के दिन ही सिखों के छठे गुरु हरगोबिन्द सिंह जी को जेल से रिहा किया गया था। स्वामी रामतीर्थ का जन्म व महाप्रयाण, दोनों ही दीपावली के दिन हुए थे।
अर्थात् मेरे हाथ के अग्रभाग में भगवती लक्ष्मी का निवास है। मध्य भाग में विद्यादात्री सरस्वती और मूल भाग में भगवान विष्णु का निवास है। प्रभातकाल में मैं इनका दर्शन कर इनका आशीर्वाद प्राप्त करता हूं ताकि मेरे जीवन में धन, विद्या और भगवत् कृपा सदा बनी रहे। प्रात:काल हथेलियों के दर्शन का तत्वज्ञान यह है कि हम अपने कर्म पर विश्वास करें। हम ऐसे कर्म करें जिससे जीवन में धन, सुख और ज्ञान प्राप्त कर सकें। हमारे हाथों से कोई बुरा काम न हो एवं दूसरों की मदद के लिए हाथ हमेशा आगे बढ़ें तथा हमारी वृत्तियां सदा भगवत् चिंतन की ओर प्रवृत हों। इसीलिए हमारे ऋषियों ने हमें कर दर्शन का यह संस्कार दिया है।
श्री का यह दिव्य तत्वज्ञान वस्तुत: हमारे जीवन में सत्यम्-शिवम् एवं सुंदरम् के भावों के अपूर्व समायोजन का प्रतीक है। इसमें मनुष्य को समुन्नत, सुविकसित तथा कान्तिवान् बनाने का सम्पूर्ण तत्त्वज्ञान अन्तर्निहित है। मानव व्यक्तित्व के नैतिक व मांगलिक भाव एवं वास्तविक सौंदर्य को उजागर करना ही श्री की वास्तविक उपासना है। यह मात्र समृद्धि का सूचक ही नहीं, वरन् इसमें व्यक्ति के बाह्य एवं आन्तरिक सौंदर्य का भाव भी विस्तार से अभिव्यक्त होता है। श्रीसम्पन्न व्यक्तित्व के चारों ओर एक विशिष्ट प्रभामण्डल दृष्टिगोचर होता है। सर्वे भवन्तु सुखिन: के उद्घोषक वैदिक मनीषी यही चाहते थे कि राष्ट्र का प्रत्येक नागरिक श्रीयुक्त बने तथा देश व समाज की सर्वतोन्मुखी प्रगति में सहायक बनकर निरन्तर प्रगति करे। इसीलिए उन्होंने प्रत्येक पुरुष, महिला व कुमारी कन्याओं के नाम के आगे श्रीमन, श्रीमती और सुश्री के मंगलसूचक संबोधन लगाने की परम्परा डाली थी। नाम के पहले श्री को जोड़ने का यह भाव शुभकामनाओं तथा सद्भावनाओं से संयुक्त हमारी भारतीय संस्कृति के उच्च जीवन मूल्यों को अभिव्यक्त करता है।
इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि सोने की चिड़िया कहलाने वाली यह भारतभूमि, जिसे हमारी महान ऋषि मनीषा के तप व ज्ञान ने विश्वगुरु बनाया था, में काले धन की उपासना की जा रही है। मानवीयता की हर सीमा का अतिक्रमण हो रहा है। लोग बड़ी संख्या में तिकड़मबाजी, चोरबाजारी, शोषण व झूठ के आधार पर धन कमाने में जुटे हैं। मिथ्याभाषण, वासना, दीनता, विश्वासघात, कृतघ्नता, सुरापान, लोभ व अश्लीलता का साम्राज्य भारतभूमि की गरिमा को कलंकित कर रहा है। समाज में पंथ के नाम पर वितण्डा फैलाने वालों, राजनीति के नाम पर राष्ट्र का शोषण करने वालों तथा स्त्री की अस्मिता का अपहरण करने वाले दुष्ट तत्वों की बाढ़ आई हुई है। हम पश्चिम के लज्जाविहीन संस्कारों के अनुकरण में लग गये हैं। फिल्मी सितारों को अपना आदर्श मानने वाले देश का बड़ा युवावर्ग नशे के दलदल में फंस रहा है। विश्व को ज्ञान का प्रकाश देने वाला भारत आज कितने अंधकार में जी रहा है।क्या कभी हम एक क्षण के लिए भी इसका चिंतन करते हैं कि विश्व गुरु भारत के नागरिक होकर भी हम दुर्व्यसनों के जंगल में किस कदर भटक गये हैं।
सद्ज्ञान व त्याग के महापर्व को हमने भोग का पर्व बना दिया है। विचार कीजिए कि क्या सांसारिक रूप से धूमधाम से दीपावली को मनाकर हम अपने राष्ट्र की अंतरात्मा को प्रसन्न कर सकते हैं? ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय:’ की प्रार्थना सफल क्यों नहीं हो रही? इसका सबसे बड़ा कारण है कि हम इस महापर्व से जुड़े अपने ऋषियों के दिव्य शिक्षण व संस्कारों को भूल गये हैं। दीपावली हमें प्रेरणा दे रही है कि हम अपनी आत्मज्योति को प्रज्वलित करें और पूर्ण राष्ट्र निष्ठा से अपनी प्रतिभा, साहस, पुरुषार्थ, धन, श्रम व समय इन राष्ट्रद्रोही तत्वों के उन्मूलन में लगाएं, तभी मां महालक्ष्मी का कृपा प्रसाद हम पर बरसेगा और हम अपने अतीत के स्वर्णिम भारत की खोई गौरव गरिमा को पुन: प्रतिष्ठित कर सकेंगे।
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