छत्तीसगढ़ में कांग्रेसी निजाम के सत्ता में आने के बाद से लगातार लोकतंत्र के सभी स्तंभों पर शामत सी आई हुई है। चौथा स्तम्भ कहे जाने वाला प्रेस/मीडिया/नया मीडिया भी इस प्रकोप से अछूता नहीं रहा है। शुरुआत तो तभी हो गयी थी, जब सत्ता संभालने के बाद बघेल सरकार ने बाकायदा पुलिस अधिकारी की अगुआई में एक कमेटी बनायी थी, जिसे शासन को सिफारिश करनी थी कि किस खबर पर किस संस्थान पर मुकदमा किया जा सकता है। फिर सोशल मीडिया तक पर लिखे बिजली कटौती जैसे विषय तक पर राजद्रोह जैसे गंभीर धाराओं में मामले दर्ज किये जाने लगे। बदला भंजाने के लिए एससी-एसटी एक्ट तक के मामले दायर किये जाना तो यहां मानो प्रक्रिया का हिस्सा जैसा हो गया। भाजपा प्रवक्ताओं द्वारा मीडिया में बयान देने, प्रेस विज्ञप्तियां जारी तक करने के मामले में मुक़दमे किया जाना, यहां सामान्य सी बात हो गयी है।
पिछले वर्ष पूर्व मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह, भाजपा प्रवक्ता संबित पात्रा और रिपब्लिक भारत प्रमुख अर्नव गोस्वामी आदि पर एक साथ कांग्रेसियों द्वारा किये सैकड़ों मुकदमों ने तो राष्ट्रीय ख्याति हासिल की थी। अनेक मामले ऊपरी अदालतों तक गए और साफ़-साफ़ कोर्ट की टिप्पणियां भी आई कि मामले राजनीतिक प्रतिशोध वश दायर किये लगते हैं। अनेक एफआईआर कोर्ट द्वारा रद्द भी की गईं, लेकिन ऐसे हर मामले से अविचलित कांग्रेस का कारवां अभिव्यक्ति को कुचलते आगे बढ़ते जा रहा है। अभी तो पहली बार प्रेस से सीधे सरोकार रखने वाले शासन के जनसंपर्क विभाग का प्रमुख भी एक पुलिस अधिकारी को ही बनाया गया है।
अब तो खैर इससे भी आगे जा कर कांग्रेस ने अधिकृत रूप से अपने जिलाध्यक्षों द्वारा पत्रकारों के खिलाफ पुलिस में शिकायत दर्ज करने का राजनीतिक अभियान चलाया है। शुरुआत पिछले दिनों संवेदनशील सरगुजा संभाग से हुई, जहां तस्करों ने दुर्गा पूजा की शोभायात्रा को कुचलकर दर्ज़नों लोगों को हताहत कर दिया था। वहां कांग्रेस की गुटीय लड़ाई सरेआम हो गयी थी। कांग्रेस के एक जिलाध्यक्ष रहे एक बड़े स्थानीय नेता की कांग्रेस के ही भूपेश गुट के इफ्तिखार हसन ने मंच पर ही पिटाई कर दी, उस समय पार्टी के एक राष्ट्रीय नेता भी मंचस्थ थे। स्वाभाविक रूप से इस घटना का व्यापक प्रसार हुआ। सभी मीडिया संस्थानों ने इसके वीडियो जारी किये। इसके बाद कांग्रेस जिलाध्यक्ष द्वारा बाकायदा थानों में एफआईआर दर्ज करने के लिए अन्य कार्यकर्ताओं के साथ पहुंचना शुरू हुआ। ऐसी ही कार्रवाई प्रदेश के अन्य जिलों में होनी शुरू हो गई। हाल में हर जिले में साइबर टीम कांग्रेस सरकार द्वारा बनायी गयी है, जो असहमति की हर खबरों को ‘निगरानी’ करेगी और कार्रवाई करेगी।
कांग्रेस की इन तमाम कार्रवाइयों के खिलाफ विपक्षी दल भाजपा यहां काफी मुखर है। वह हर स्तर पर इसका विरोध कर रही है। लेकिन बहुमत के अहंकार में कांग्रेस कुछ भी सुनने और पीछे हटने को तैयार नहीं दिख रही। इसी हफ्ते फेसबुक पर एक सामान्य असहमति दर्ज करने पर पिछड़ी जाति के एक गरीब युवक पर कांग्रेस नेता द्वारा मुकदमा दर्ज कराया गया। उसे अन्य जिले में पुलिस द्वारा ले जाने की खबर आई, जिसे हालांकि उसी दिन ज़मानत मिल गयी। लेकिन फिर भी उसे जेल में रहना पड़ा। ऐसी दर्ज़नों घटनाएं यहां होती जा रही हैं।
बता दें कि कांग्रेस ने सत्ता में आते ही बस्तर के एक चर्चित पत्रकार को पुलिस थाने में पुलिस के सामने ही नृशंस पिटाई कर अपनी मंशा बता ही दी थी कि चाहे जो हो, वह असहमति के प्रति भयंकर असहिष्णु रहेगी ताकत भर। बात-बात पर मुकदमा दर्ज करने वाली सरकार ने ऐसी सभी घटनाओं पर खामोश रहना ही बेहतर समझा है। पिछले हफ्ते तो कांग्रेस के विधायक द्वारा आबकारी विभाग में घुसकर कर्मचारी की नृशंस पिटाई की, फिर भी उस पर कोई कार्रवाई नहीं हुई। तो जब तक सत्ता में रहेगी कांग्रेस की यह संस्थागात तानाशाही जारी रहने वाली है। वह तो प्रकृति अनुसार ही काम करेगी, लेकिन असली सवाल ऐसे तमाम फैसलों पर आवाज़ नहीं उठाने वाले मुख्यधारा के समाचार माध्यमों पर है। छत्तीसगढ़ में इस ‘नव आपातकाल’ में अधिकांश पत्रकारों की वही भूमिका नज़र आ रही है जैसा कि पुराने ‘राष्ट्रीय आपातकाल’ के समय श्री लालकृष्ण आडवाणी की टिप्पणी थी–‘सरकार ने झुकने को कहा तो मीडिया रेंगने लगी है।’ लोकतंत्र के लिए ऐसी स्थिति कहीं भी खतरनाक ही हो सकती है। छत्तीसगढ़ जैसे प्रदेश में तो खासकर ऐसे हालात गंभीर कहे जाने चाहिए जहां सरकार पर सीधा आरोप है कि उसने निर्दोष वनवासियों की पुलिस द्वारा हत्या करा दी है। जहां सिस्टम में भी अब नक्सली बैठे होने के आरोप लगातार लगते ही रहते हैं। जहां हज़ारों वनवासी सैकड़ों किलोमीटर पैदल चल कर राजधानी पहुंच रहे, लेकिन उसकी कोई सुनवाई नहीं हो रही और सरकार नाइजीरिया आदि के वनवासियों के साथ नाचने में व्यस्त और मस्त है।
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