डॉ. राम किशोर उपाध्याय
बात कुछ ही दिन पुरानी है, लेकिन उसका संदेश सर्वकालिक है। वह बात है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हालिया अमेरिका यात्रा। इस यात्रा का एक महत्वपूर्ण विषय ‘ट्रस्टीशिप का सिद्धांत’ विमर्श में आने से लगभग छूट-सा गया है। जब अमेरिकी राष्ट्रपति ने महात्मा गांधी की चर्चा की तब मोदी ने गांधी जी की न्यासिता का उल्लेख करते हुए कहा कि आज संसार को न्यासिता के सिद्धांत की आवश्यकता है। कहते हैं कि महात्मा गांधी ने गीता और उपनिषद् से प्रेरित होकर इस सिद्धांत को प्रतिपादित किया था। वे सत्य और अहिंसा की भांति न्यासिता को भी अंगीकृत करने पर जोर देते थे। कुछ लोगों का मत है कि बेन्थम और स्टुअर्ट मिल के उपयोगितावाद से गांधी जी बहुत प्रभावित थे। जो भी हो इसमें कोई संदेह नहीं कि अपरिग्रह और त्याग का विचार भारत भूमि पर ही सर्वप्रथम अंकुरित हुआ। गांधी जी राम राज्य के पक्के समर्थक थे। राम जी के लिए वाल्मीकि लिखते हैं- रामो विग्रहवान् धर्म: अर्थात् राम धर्म का साक्षात् स्वरूप हैं। अत: राम राज्य में धन का अर्जन, व्यय भी धर्मानुसार ही करने की अनुमति और व्यवस्था है। अत: गांधी के आर्थिक चिंतन में ऐसे ही अर्थ व्यवहार की कामना और उपासना की कल्पना है। इसलिए न्यासिता का मूल विचार भारतीय दर्शन से ही प्रेरित है, क्योंकि हमारे यहां तो राजा को भी एक न्यासी की ही भांति राज्य सम्पदा का संयमित उपयोग और संरक्षण करने की बात कही गई है।
न्यासिता सिद्धांत के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति जिसके पास अतिरिक्त पूंजी या संसाधन हैं, वह अपने सीमित उपयोग के बाद शेष पूंजी को समाज हित में लगाए और स्वयं को उसका मालिक न समझकर केवल ट्रस्टी या न्यासी समझे, क्योंकि सभी संसाधन समाज के ही हैं। अत: किसी भी व्यक्ति को उनका विलासितापूर्ण उपभोग नहीं करना चाहिए। साम्यवाद में पूंजीपति से घृणा की बात की जाती है, किंतु न्यासिता में उससे घृणा न करते हुए उसे अपनी पूंजी परमार्थ में खर्च करने के लिए प्रेरित किया जाता है। गांधी दर्शन और साम्यवादी सोच में यही सबसे बड़ा अंतर है। यदि सभी पूंजीपति स्वयं को न्यासी मानने लगें तो कोई मालिक नहीं रह जाएगा और जब कोई स्वयं को मालिक नहीं समझेगा तो मालिक और मजदूर का भेद ही समाप्त हो जाएगा। मालिक और मजदूर का भेद मिटाने का इससे अच्छा मार्ग और क्या हो सकता है। पिछले सात दशक में या कहें कि स्वतंत्रता के पश्चात् गांधी जी के आर्थिक विचार केवल गांधी जयंती पर भाषणों तक ही सिमटते गए। देश की लगभग सभी सरकारों ने गांधी की न्यासिता के स्थान पर कभी रूसी ‘मॉडल’ तो कभी अमेरिकी ‘मॉडल’ को ही श्रेष्ठ माना। भारत के साम्यवादियों ने रूस के खंडित हो जाने के बाद भी कांग्रेस को गांधी जी के सिद्धांतों की ओर मुड़ने नहीं दिया। वे हर प्रकार से कांग्रेस को और उसके माध्यम से देश को साम्यवादी नीतियों की ओर ही धकेलते रहे हैं।
यदि संसार के सभी पूंजीपतियों को मार्क्स और लेनिन के चश्मे से देखा जाए तो भारत में भामाशाह जैसे राष्ट्रवादी वित्तमंत्रियों के योगदान का क्या होगा? सेठ जमनालाल बजाज ने न्यासिता के सिद्धांत को जीवन में उतारकर यह संदेश दिया था कि यह कोरी कल्पना नहीं है। संसार के अनेक उद्योगपति सामाजिक सरोकार के प्रकल्प चलाते हैं। उनकी समाज सेवा को साम्यवादी घृणा से देखना उचित नहीं कहा जा सकता। आज जबकि अधिकांश लोगों का धन कालाधन या कर चोरी-युक्त धन बनता जा रहा है, निजी कंपनियां लाभ कमाने के लिए अंधी लूट में लगी हुई हैं, तब उन्हें नैतिकता के मार्ग पर लाने के लिए किसी न किसी सिद्धांत का अनुसरण तो करना ही होगा। क्यों न न्यासिता के सिद्धांत को विश्व स्तर पर एक मॉडल के रूप में अपनाने की पहल की जाए और इसका आरंभ भारत स्वयं से करे। भारत के प्रधानमंत्री द्वारा अमेरिका के व्हाइट हाउस से इस सिद्धांत की प्रासंगिकता पर बोलना कोई साधारण घटना नहीं है। अमेरिका में वहां के राष्ट्रपति को न्यासिता के अनुसरण का विचार देना अपने आपमें एक ऐतिहासिक घटना है, क्योंकि अमेरिका एक पूंजीवादी और उपभोक्तावादी देश है। अमेरिका को एक ऐसे व्यवसायी के रूप में भी देखा जाता है जो अपने लाभ के लिए किसी भी सीमा तक जा सकता है। अमेरिकी कंपनियां कभी भी अपनी तकनीकी किसी को नहीं देती। यदि न्यासिता का थोड़ा-सा भाव भी उनमें जाग जाए और वे अपनी तकनीकी भी विकासशील देशों को देना आरंभ कर दें तो संसार का बड़ा लाभ हो सकता है। आज कोरोना महामारी के समय में विकसित देशों के पास कोरोना-रोधी टीका प्रति नागरिक तीन-चार डोज और दो-तीन प्रकार के डोज तक उपलब्ध हैं, तो कई देशों के पास प्रति नागरिक एक भी डोज नहीं है। अत: इस समय फार्मा कंपनियों को न्यासिता के सिद्धांत से जोड़ना परम आवश्यक है। भारत में कई उद्योगपति पैसा कमाकर देश छोड़कर भाग जाते हैं।
भारत में ग्रामीण क्षेत्र अभी भी विकास की मूल सुविधाओं से वंचित हैं। यदि सभी पूंजीपति ग्रामीण भारत की सेवा का संकल्प लें तो देश विकसित राष्ट्र की श्रेणी में आ सकता है। प्रधानमंत्री मोदी ने न्यासिता के सिद्धांत की प्रासंगिकता की बात कहकर यह संदेश दिया है कि भारत केवल परोपकारी पूंजीपतियों का ही सम्मान करता है, संग्रहवादियों का नहीं। यदि अमेरिकी कंपनियां भी न्यासिता की भावना से काम करें तो भारत उनका भी स्वागत करेगा। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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