धरती पर पाए जाने वाले जीवाश्म ईंधन में कोयला प्रकृति का सबसे नायाब उपहार है। कोयले के गुणधर्म को देखते हुए इसे काला सोना भी कहते हैं। देश में 70 प्रतिशत बिजली कोयले से ही तैयार होती है। जाहिर है, कोयला हमारी अर्थव्यवस्था ही नहीं, रोजमर्रा की जिंदगी को ऊर्जा देने वाला सबसे महत्वपूर्ण घटक है। संयोग से इन दिनों विश्व ऊर्जा संकट के ऐसे संक्रमण काल में है, जिसका हर देश दीर्घकालिक समाधान खोज रहा है। भारत में यह अल्पकालिक कोयला संकट के रूप में है तो यूरोप में प्राकृतिक गैस की किल्लत आर्थिक महाशक्तियों की बत्ती गुल कर रही है। पड़ोसी देश चीन द्वारा ऊर्जा क्षेत्र में लागू की गईं अव्यावहारिक नीतियां अब उसी पर भारी पड़ रही हैं। भारत में कोयला संकट को लेकर तरह-तरह की आशंकाएं जाहिर की जा रही हैं। खास तौर पर कुछ राजनीतिक दल व राज्य सरकारें तो देश में ब्लैक आउट जैसे हालात की भविष्यवाणी कर चुके हैं। कोयला संकट को लेकर किए जा रहे दावों व उसके असर को समझने के लिए इससे जुड़े तथ्यों को परखना होगा।
मांग-आपूर्ति का संकट
नेशनल पॉवर पोर्टल के आंकड़ों के मुताबिक 12 अक्टूबर 2021 को बिजली की अधिकतम मांग एक लाख 74 हजार 476 मेगावॉट रही। इस दौरान एक लाख 68 हजार 885 मेगावॉट बिजली की आपूर्ति हो पाई। बिजली की कुल मांग का दो-तिहाई हिस्सा कोयला आधारित संयंत्रों से पूरा किया जाता है। मौजूदा कोयला संकट भी देश के कुछ ही राज्यों में स्थित संयंत्रों में अधिक देखने को मिला है। मौजूदा समय में कोयले से संचालित होने वाले ताप बिजली घर की संख्या 135 है। सामान्य स्थिति में सभी बिजली संयंत्रों को पंद्रह से बीस दिन का कोयला भंडार रखना होता है। लेकिन महाराष्ट्र, राजस्थान, पंजाब, तमिलनाडु, झारखंड और केरल के आधा सैकड़ा से अधिक ताप बिजली संयंत्रों के पास कोयले की भण्डारण क्षमता तीन दिन के निचले स्तर पर चली गई।
कुछ राज्यों की लापरवाही, सब पर भारी
कई बड़ी कोयला उत्पादन कंपनियों ने पिछले साल जो आपूर्ति की थी, उसका बिजली संयंत्रों द्वारा समय पर भुगतान न होने से समस्या बढ़ती गई। ऐसे में विगत एक साल से आर्थिक नुकसान झेल रही कोयला कंपनियों के लिए लंबित भुगतान खत्म किए बगैर खनन शुरू करना संभव नहीं था। कोल इंडिया के मुताबिक राज्यों के पास कंपनी का लगभग 20,000 करोड़ रुपये बकाया है। इस सूची में वह गैर भाजपा शासित राज्य सरकारें सबसे आगे हैं, जो कोयले से राजनीतिक फायदे की चिंगारी पैदा करने में जुटी हैं। महाराष्ट्र 3176.6 करोड़ रुपये, तमिलनाडु 1100 करोड़ रुपये, पश्चिम बंगाल 1958.6 करोड़ रुपये, पंजाब 1281.7 करोड़ रुपये, दिल्ली 1200 करोड़ रुपये, छत्तीसगढ़ 125 करोड़ रुपये, आंध्र प्रदेश द्वारा 250 करोड़ रुपये कोल इंडिया को दिया जाना है। इन राज्यों द्वारा कोयले को लेकर बरती गई उदासीनता को राजस्थान के उदाहरण से भी समझ सकते हैं। राजस्थान ने कोल इंडिया से पूरे साल कोयला नहीं लिया। कंपनी को 600 करोड़ रुपये का भुगतान भी राज्य ने अब तक नहीं किया है। राजस्थान के पास अपनी कोयला खदानें भी हैं, लेकिन राज्य सरकार के पास उन्हें शुरू करने में ठोस कार्ययोजना नहीं है।
केंद्र की अनदेखी का असर
केंद्र सरकार कोयले की मांग और आपूर्ति के संभावित संकट को लेकर राज्यों को आगाह भी करता रहा है। कोयला मंत्रालय ने राज्यों को पत्र लिखकर जनवरी से ही स्टॉक लेने को कहा था, लेकिन कुछ राज्यों को छोड़ दें तो अधिकांश ने केंद्र के खत को संज्ञान में लेना भी उचित नहीं समझा।
बिजली की खपत बढ़ी
कोयला मंत्रालय के मुताबिक कोविड काल से पहले 2019-20 में 73 करोड़ टन वार्षिक कोयले का उत्पादन हुआ। कोरोना जनित महामारी वाले साल 2020-21 में लगभग 71 करोड़ टन कोयले का उत्पादन हुआ। हालांकि इससे पहले विगत दस साल से कोयले के उत्पादन में लगातार वृद्धि दर्ज की जा रही है। 2010-11 में कोयला उत्पादन 53 करोड़ टन था। कोयले की आपूर्ति और मांग में अचानक आए अंतर की सबसे अहम वजह कोरोना काल की आर्थिक अनिश्चितता से खनन में आई गिरावट, कुछ राज्यों की उदासीनता और आयातित कोयले की दरों में वृद्धि है। पूर्णबंदी के बाद अब बिजली की खपत में लगातार वृद्धि हो रही है, वहीं आर्थिक अस्थिरता के बीच कुछ राज्य सरकारें कोयले की मांग और उसके भण्डारण के प्रति गंभीर नहीं रही हैं। मॉनसून के दौरान कोयला खदानों में जल भराव ने भी कोयले के आपूर्ति तंत्र को बाधित किया है। कई कोयला खदानों में पानी भर जाने के कारण जहां खनन कुछ दिनों के लिए रोकना पड़ा, वहीं श्रमिकों के पलायन से भी खनन आंशिक रूप से प्रभावित हुआ। ऐसा नहीं है कि बारिश के कारण इसी साल कोयला खनन प्रभावित हुआ है, लेकिन सामान्यत: बिजली संयंत्र इस परिस्थिति के लिए पूर्व से तैयार रहते हैं। इस साल बारिश अक्टूबर तक चली। लगातार पानी बरसने से 170 से ज्यादा खदानों में पानी भर गया। इस बीच, जो राजनीतिक दल आज कोयले की किल्लत पर सबसे अधिक प्रेस वार्ताएं कर रहे हैं, उनकी सरकारों ने समय रहते कोयला भण्डारण व लंबित देनदारी का भुगतान में तेजी नहीं दिखाई।
अर्थव्यवस्था में तेजी से बढ़ी मांग
कोरोना काल के बाद भारतीय अर्थतंत्र में बिजली समेत सभी आठ बुनियादी क्षेत्रों में जबरदस्त उछाल दर्ज किया जा रहा है। मौजूदा वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही (अप्रैल-जून) में देश की सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) पिछले साल की समान अवधि के मुकाबले 20.1 प्रतिशत की बढ़त दर्ज कर चुकी है। इस दौरान खनन क्षेत्र में 18.6 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज की गई। पहले और दूसरे चरण के लॉकडाउन के दौरान देश में बिजली की खपत पिछले कई दशकों में सबसे निचले स्तर पर पहुंच गई थी। जाहिर है जब बिजली की खपत कम होगी तो उसका उत्पादन और उसके लिए जरूरी कच्चे माल की मांग में कमी आएगी। इस बीच, विदेश से आयात होने वाले कोयले की कीमत में भी अप्रत्याशित वृद्धि हुई है। भारत मुख्य रूप से अमेरिका, आॅस्ट्रेलिया और इंडोनेशिया से कोयला आयात करता रहा है। मार्च 2021 में इंडोनेशियाई कोयला की कीमत 4,500 प्रति टन थी जो सितंबर-अक्टूबर में बढ़कर 15,000 रुपये प्रति टन हो गई। ऐसी स्थिति में केंद्र सरकार ने कोयले का आयात बढ़ाने की जगह घरेलू मोर्चे पर ही उत्पादन बढ़ाने की रणनीति को प्रोत्साहित किया। इससे 2019 की तुलना में आयातित कोयले से बिजली के उत्पादन में 43.6 प्रतिशत की कमी आई है,वहीं अप्रैल से सितंबर 2021 के बीच घरेलू कोयले पर 17.4 मीट्रिक टन की अतिरिक्त मांग बढ़ी है।
समन्वय से निकलेगा समाधान
देश में बहुत से ताप विद्युत संयंत्र कोयले की खान के पास स्थित हैं। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और झारखंड में स्थित ताप विद्युत संयंत्र इसके उदाहरण हैं। इन बिजली संयंत्रों को कोयले का अतिरिक्त भण्डारण करने की अनिवार्यता नहीं है। कोयला खदानों के पास स्थिति बिजली संयंत्रों में प्रतिदिन की जरूरत के मुताबिक ही कोयले की आपूर्ति होती है। इसके साथ ही देश में कई ताप विद्युत संयंत्रों के पास अपनी कोयला खदान हैं। ऐसे में कोयले के भण्डारण को लेकर कुछ राज्य सरकारों व दलों की ओर से राजनीतिक करंट पैदा करने की जो कोशिश की जा रही है, वह तथ्यों में निराधार ही नजर आती है।
कोयले के इस अल्पकालिक संकट पर केंद्र सरकार भी सक्रिय हो गई है। कोयले का खनन बढ़ाने के साथ ही रेलवे को ईंधन को बिजली संयंत्रों तक पहुंचाने के लिए रेक उपलब्ध कराने को कहा है। केंद्र के स्तर पर एक अंतरमंत्रालयीन उप समूह सक्रिय है। यह समूह दैनिक आधार पर कोयला भण्डारण की निगरानी और प्रबंधन कर रहा है। नई खदानों को पर्यावरणीय व अन्य मंजूरी दिलाकर तीव्र उत्खनन की प्रक्रिया को तेज किया जा रहा है। देश में 135 ताप बिजली घर हैं। सामान्य स्थिति में सभी बिजली संयंत्रों को पंद्रह से बीस दिन का कोयला भंडार रखना होता है। लेकिन 72 ताप बिजली संयंत्रों के पास तीन दिन का कोयला भण्डार है। 50 संयंत्रों के पास चार से दस दिन और दस संयंत्रों के पास दस दिन से अधिक का कोयला उपलब्ध है। वर्तमान में देश में कोयले की रोजाना खपत 16.8 लाख टन है, जबकि रोजाना आपूर्ति 15.7 लाख टन है। दुनिया के दूसरे सबसे बड़े कोयला उत्पादक देश भारत में इस वर्ष कोयले का रिकॉर्ड उत्पादन हुआ है। कोयला मंत्रालय के मुताबिक कोल इंडिया के पास भी 4.3 करोड़ टन कोयला उपलब्ध है जो बिजली संयंत्रों तक पहुंचाया जा रहा है।
नई खनन परियोजनाओं को मंजूरी
केंद्र की मौजूदा सरकार ने रणनीतिक रूप से आयातित कोयले पर निर्भरता जहां कम की है, वहीं समानांतर रूप से नई खनन परियोजनाओं को मंजूरी भी प्रदान की गई है। चालू वित्तीय वर्ष में ही कोल इंडिया ने 32 खनन परियोजनाओं को मंजूरी प्रदान की है। इन परियोजनाओं से 2023-24 तक लगभग 8.1 करोड़ टन कोयले का वार्षिक अतिरिक्त उत्पादन होगा। सरकार के अनुमान के मुताबिक चालू वित्त वर्ष के दौरान बिजली क्षेत्र को 70 करोड़ टन से अधिक कोयले की आवश्यकता होगी। पिछले वित्तीय वर्ष में कोयले क्षेत्र से जुड़े नीतिगत सुधारों को अमली जामा पहनाते हुए निजी क्षेत्र को वाणिज्यिक कोयला उत्खनन में प्रवेश दिया गया है। इसी क्रम में नए कोयला ब्लाकों की नीलामी भी हुई है। यही नहीं, भारत सरकार ने उन कोयला ब्लॉकों का आवंटन रद करने की सख्ती भी दिखाई है, जो राज्य सरकारों की प्रशासनिक लापरवाही के कारण मंजूरी के कई सालों बाद भी शुरू नहीं हो सकीं। पिछले साल झारखंड में बिजली परियोजना के लिए आवंटित एक कोयला ब्लॉक का आवंटन रद किया जा चुका है। कोयला मंत्रालय के मुताबिक झारखंड, पश्चिम बंगाल और राजस्थान की अपनी कोयला खदानें हैं। लेकिन इन राज्यों में खनन या तो बहुत कम हुआ है, या नहीं के बराबर किया गया है।
ऊर्जा विविधिकरण पर जोर
बिजली उत्पादन में कोयले पर हमारी निर्भरता भले ही दो-तिहाई से अधिक हो लेकिन अक्षय ऊर्जा का अनुपात पिछले कुछ सालों में तेजी से बढ़ा है। वर्तमान में कुल बिजली उत्पादन में नवकरणीय ऊर्जा संसाधन की लगभग 90 हजार मेगावाट से अधिक हिस्सेदारी है। पिछले पांच वर्ष में हमारी अक्षय ऊर्जा क्षमता 162 प्रतिशत बढ़ी है। केंद्र सरकार ने 2022 तक 175 गीगावाट और 2035 तक 450 गीगावाट अक्षय ऊर्जा उत्पादन का लक्ष्य रखा है। भारत की पवन ऊर्जा क्षमता 695 गीगावॉट है। पवन ऊर्जा स्थापित क्षमता विगत छह वर्षों के दौरान 1.8 गुना बढ़कर 38.26 गीगावॉट (31 अक्टूबर 2020 तक) हो गई है। सरकार जल्द ही इसे 60 गीगावॉट के स्तर तक पहुंचाने के लक्ष्य पर काम कर रही है। गैस आधारित अर्थव्यवस्था के अंतर्गत प्राकृतिक गैस से बिजली तैयार करने वाले संयंत्रों पर निवेश बढ़ रहा है। अकेले एनटीपीसी गैस आधारित बिजली स्टेशन 4,017.23 मेगावाट बिजली तैयार कर रहे हैं। इसी तरह गैस आधारित संयुक्त उद्यम 2,494 मेगावाट विद्युत उत्पादन कर रहे हैं। वन नेशन वन गैस ग्रिड के जरिए गैस आधारित बिजली परियोजनाओं के लिए अबाध प्राकृतिक गैस की आपूर्ति सुनिश्चित की जा रही है।
सवालों में आर्थिक महाशक्तियों की ऊर्जा नीति
जलवायु परिवर्तन के लिए ठोस उपाय खोजने की पृष्ठभूमि पर आज दुनिया ऊर्जा के ऐसे संक्रमण काल में पहुंच गई है, जहां हर देश नई ऊर्जा चुनौतियों से जूझ रहा है। इसकी एक बड़ी वजह कई आर्थिक महाशक्तियों की ऊर्जा क्षेत्र में एकाधिकारवादी नीतियां भी हैं। उदाहरण के लिए ब्रिटेन ने तय किया है कि 2025 तक कोयले से बिजली बनाना बंद कर देगा। ब्रिटेन में वर्तमान में कुछ ही कोयला आधारित बिजली संयंत्र सक्रिय हैं। कुछ इसी नीति पर यूरोपीयन यूनियन और अब चीन भी आगे बढ़ रहा है। इससे विश्व भर में ऊर्जा संसाधनों का एक ऐसा असंतुलन सामने आ गया है जिसमें विश्व भर में कोयले सिर्फ प्रदूषक घटक के नजरिए से ही देखा जा रहा है। यही वजह है कि आर्थिक महाशक्तियां कोयले के जरिए अपनी ऊर्जा जरूरतों को पूरा कर रहे विकासशील देशों के साथ कूटनीतिक सौदेबाजी भी खूब करते हैं। यह बात और है कि ऊर्जा संक्रमण के इस दौर में भारत न सिर्फ ऊर्जा संतुलन के मार्ग पर चल रहा है बल्कि विकासशील देशों का नेतृत्व भी कर रहा है। ऊर्जा विविधिकरण की नीति के अंतर्गत भारत ऊर्जा के सभी संसाधनों जीवाश्म ईंधन के साथ अक्षय ऊर्जा स्रोतों के विकास की नीति पर आगे बढ़ रहा है। यही वजह है कि पड़ोसी देश चीन के कई राज्य जहां कोयला संकट के कारण अंधेरे में हैं, वहीं भारत में कोयला संकट का असर राजनीतिक दलों की प्रेस वातार्ओं तक ही सीमित है।
स्पष्ट है, कोयले के इस अल्पकालिक संकट का भारत अगले कुछ दिनों के भीतर समाधान निकाल लेगा। लेकिन काला सोना कहे जाने वाले कोयले पर सफेदपोश नेता अपनी राजनीतिक रोटी सेंकने के लिए जिस तरह भ्रम फैला रहे हैं, उससे वह अपनी राजनीतिक साख पर ही कालिख पोतने का काम कर रहे हैं। बेहतर होगा कि विभिन्न राज्य सरकारें केंद्र के साथ सहयोग और समन्वय स्थापित कर कोयले के दीर्घकालिक उपयोग का रास्ता निकालें। दुनिया में जब ऊर्जा संकट हर दिन विकराल रूप लेता जा रहा है, ऐसे समय में भारत ने कोयले को संकट नहीं बल्कि समाधान परक ऊर्जा संसाधन के रूप में प्रस्तुत किया है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए प्राकृतिक गैस हो या फिर सौर ऊर्जा समेत अन्य अक्षय ऊर्जा के संसाधन, सभी की अपनी सीमाएं हैं। ऐसे में मानवीय व पर्यावरणीय विकास के लिए ऊर्जा के प्रत्येक संसाधन में संतुलन स्थापित करना ही समावेशी विकल्प है।
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