ज्ञानेंद्र बरतरिया
डूबते जहाज पर सवार होने के लिए इतनी बेताबी! परंतु यह होना ही था। कन्हैया कुमार और कांग्रेस के बीच कई समानताएं हैं। यह विवाह संपिंडीय नहीं, तो सगोत्रीय जरूर है। दोनों के मालिक, दोनों के दिमाग के मालिक, दोनों के प्रोग्रामर विदेशी हैं। दोनों हिन्दू घृणा से ओत-प्रोत हैं। दोनों ‘ओसामा जी’ के, आतंकवाद के, खलीफत के, रोहिंग्या घुसपैठ के प्रत्यक्ष-परोक्ष हमदर्द हैं।
सही समझा। कांग्रेस में शामिल होने वाले ने समझाया कि कांग्रेस डूबता जहाज है। वास्तव में यह मति भ्रम है। कांग्रेस का जहाज तो 2014 में बिल्कुल रसातल तक डूब गया था।
फिर कोई व्यक्ति डूबते जहाज पर क्यों चढ़ रहा है?
इस प्रश्न का उत्तर बाद में, पहले मूल प्रश्न पर आएं। मूल प्रश्न यह है कि जब कांग्रेस का जहाज 2014 में डूब चुका था, तो उसके कप्तान वगैरह खेवनहार क्या कर रहे हैं? एक, ये वो खेवनहार नहीं हैं, जो डूबते जहाज के साथ खुद डूबे हों। जहाज तो उनकी सवारी के लिए, पिकनिक और बिजनेस के लिए था, जान देने के लिए नहीं। ये वे खेवनहार भी नहीं हैं, जिन्होंने डूबते जहाज के साथियों को डूबने से बचाया हो, बल्कि उन्होंने हमेशा जहाज में चूहों को प्राथमिकता दी। ये तो जहाज के वे मालिक हैं, जो जहाज में कोई गुप्त खजाना होने की कहानियां सुनाकर जहाज का कबाड़ बेच लेते हैं।
किसे? उन विदेशी शक्तियों को, जो डूबे जहाज पर सिर्फ इसलिए पैसा लगा देती हैं कि शायद यह डूबी हुई चीज भाजपा सरकार के जहाज के तले में फंस कर उसे कुछ नुकसानपहुंचा सकेगी।
अब जिसे पता है कि कांग्रेस डूबा हुआ जहाज है, वह उसमें शामिल क्यों हो रहा है? शामिल नहीं हुआ है, गौर से देखिए, बस उसी स्थान पर डूबा है, जहां जहाज डूबा हुआ है। जैसे ‘हमनवा’ होता है, वैसे ही ‘हमडूबा’।
फिर भी ‘हमडूबा’ होने का ‘हम’ फैक्टर क्या है?
‘हम’ फैक्टर है फर्जी समाजवाद। अंग्रेजी में इसे क्रोनी सोशलिज्म कहते हैं। माने वास्तविकता जो भी हो, जनता के सामने समाजवादी टाइप की, फटे कुर्ते की, दरिद्रता की, उसकी महानता की बातें करो। कहो कि दरिद्रता मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं सबको दरिद्र बना कर रहूंगा। फिर कहो कि देखो मैं कितना महान हूं, कितनी महान बातें कर लेता हूं।
और वास्तविकता क्या है? वास्तविकता यह है कि कांग्रेस क्रोनी कैपिटलिज्म की घोर उपासक है। मतलब सत्ता में रहते हुए अपने मित्रों-चापलूसों को देश लूटने का मौका देने की नीति का पालन करने वाला दल। कोयला घोटाला याद कीजिए। जिसने जीवन में कोयला देखा भी न हो, उसे कोयले की खदान थमा दी गई थी। लूटो। किसी दामाद को हजारों करोड़ रुपये की जमीनें थमा दीं, किसी को कागजी धांधली के बूते पांच हजार करोड़ रुपये की संपत्ति थमा दी, किसी को कुछ, किसी को कुछ।
वैचारिक स्वांग
लूटपाट की नीति में बस एक समस्या है। इस नीति पर टिके रहने के लिए सत्ता जरूरी होती है। अब लोकतंत्र है, तो सत्ता के लिए जनता का समर्थन चाहिए। जनता से इस आधार पर तो वोट मांग नहीं सकते कि तुम मुझे वोट दो, ताकि मैं तुम्हें लूट सकूं। लिहाजा समाजवादी किस्म का स्वांग चाहिए। भले ही सारी राजनीति समुद्र में नहाने के स्टंट और ट्विटर तक सीमित हो, लेकिन ट्विटर पर लिखने के लिए भी कुछ तो समझदारी की बात चाहिए। यह सब कहां से आएगा। बाकी सब के लिए तो खैर बैंकॉक है ही।
साधारण भाषा में इसे वैचारिक दरिद्रता कहते हैं।
आशय यह नहीं कि कांग्रेस के पास विचार नहीं है। कांग्रेस के पास विचार है और कांग्रेस उस पर बहुत दृढ़ता से कायम है। दिक्कत सिर्फ यह है कि उस विचार को सबके सामने स्वीकार नहीं किया जा सकता है। जैसे चापलूसी और चाटुकारिता का भव्य विचार। यह विचार ही नहीं, कांग्रेस पार्टी की संस्कृति, उसकी पहचान, उसकी एक प्रमुख विशेषता है। कांग्रेस ने अपनी मिल्कियत को एक परिवार के हाथों में कैद बनाए रखने के उद्देश्य से इस विस्तृत संस्कृति का बहुत मेहनत से विकास किया है।
ठीक इसी तरह दूसरा प्रखर विचार है, छद्म ‘धर्मनिरपेक्षता’। समाजवाद की तरह इसका भी तरीका यही है कि वास्तविकता में वोटबैंक की चाहे जितनी राजनीति की जाए, जनता के सामने ‘धर्मनिरपेक्षता’ टाइप की, उसकी महानता की बातें की जाएं। फिर कहा जाए कि देखो मैं कितना महान हूं।
‘हमडूबा’ होना भी आसान नहीं होता। जैसे कन्हैया कुमार और जिग्नेश मेवाणी। अब यह दोनों कांग्रेस में न जाते तो भला कहां जाते? कश्मीर में भारतीय सेना को बर्बर बताने वालों को, भारत तेरे टुकड़े होंगे इंशाअल्ला इंशाअल्ला वालों को, आजादी-आजादी वाली चौकड़ी वालों, आतंकवादी अफजल गुरु के भक्तों को भला और कहां पनाह मिलती?
एक-दो ठिकाने थे, जैसे सीपीआई या एम या ए,बी,सी,डी, जो भी। लेकिन ये सब मायके की तरह थे। बाद का जीवन तो ससुराल में ही बिताना होता है। लिहाजा सारा वामपंथी कुनबा धीरे-धीरे, मायके वालों की मूक सहमति से, मायके से भाग कर ससुराल पहुंच रहा है। इसे कांग्रेस का अंदरूनी ‘लश्कर-ए-जेएनयू’ कहा जाता है। ऐसे कम से कम छह वामपंथी अब कांग्रेस के घर का चौका-बासन संभाल रहे हैं, जो कम्युनिस्ट रहते हुए जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष रहे थे। उन्हें कांग्रेस में घर जैसा महसूस होता है। मायके से दहेज में एसी-फ्रिज या टोंटी भी मिल जाए, तो और ज्यादा ‘होमली’ लगता है।
अप्रजापत्य विवाह
लेकिन यह ‘अप्रजापत्य’ विवाह भारत की जनता को रास नहीं आता। कारण साफ है। यह विवाह संपिंडीय नहीं, तो सगोत्रीय जरूर है। दोनों के मालिक, दोनों के दिमाग के मालिक, दोनों के प्रोग्रामर विदेशी हैं। दोनों हिन्दू घृणा से ओत-प्रोत हैं। दोनों ‘ओसामा जी’ के, आतंकवाद के, खलीफत के, रोहिंग्या घुसपैठ के प्रत्यक्ष-परोक्ष हमदर्द हैं। दोनों भारत को जमीन का ऐसा टुकड़ा मानते हैं, जो उनके राज करने के लिए है। दोनों को भारत की प्रगति फूटी आंखों नहीं सुहाती। इस नाते दोनों सगोत्रीय हैं।
लेकिन लफ्फाजी फिर भी होती है। आइए देखें। साझे मायके वाले कॉमरेडों का बहाना है कि हमें कांग्रेस से वैचारिक निकटता महसूस होती है, लिहाजा बड़े होकर वहीं चले जाते हैं। कौन से विचार से निकटता? भारत तेरे टुकड़े होंगे वाले नारेबाजों के समर्थन में कांग्रेस के राजकुमार खुद जेएनयू पधारे थे। आप इसे सगाई की रस्म समझ सकते हैं। कांग्रेस और कॉमरेड दोनों खुद को ‘लेफ्ट टू सेंटर’ कहते हैं। यह कार्यक्रम उन्हीं नेहरूजी (और कृष्णा मेनन) के जमाने से चल रहा है, जिनकी फोटो कन्हैया कुमार ने डिलीट कर दी। चीन से हमदर्दी से लेकर झड़पों के बीच चीनी दूतावास की गोपनीय यात्रा तक, सब ‘लेफ्ट टू सेंटर’ है।
यह निरर्थकता ही उनकी सच्चाई है। वास्तव में कांग्रेस र्इंट दर ईंट भारतीय जनता पार्टी और नरेन्द्र्र मोदी के लिए घृणा की दीवार चुनती जा रही है। यह दीवार उसके ही चारों ओर बन रही है, इससे उसे मतलब नहीं है। यह दीवार ऊंची होकर कब भारत से घृणा और हिन्दुओं से घृणा में बदल चुकी है, कांग्रेस को इससे भी मतलब नहीं है। लेकिन कांग्रेस को इस दीवार की, कन्हैया कुमारों और उन जैसे अन्य लोगों की क्या जरूरत है? ऊपर लिखी बात पर लौटें, कांग्रेस राजघराने के लिए अपने ‘व्यापक सपोर्ट सिस्टम’और ‘व्यापक ईकोसिस्टम’ की नजर में अपना महत्व बचाए रखने के लिए जरूरी है कि कुछ न कुछ मलबा और जुटता रहे, मलबे का मोल लगता रहे। मलबा दरक भी रहा है। सिर्फ पंजाब में ही नहीं, केरल में भी। और जहाज की मालकिन-मालिक उसका मोल भी नहीं लगवा सकते।
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