डॉ. सोनाली मिश्र
इन दिनों विज्ञापनों में एक बात बार-बार दिखाई दे रही है कि हिंदू त्योहारों पर, हिंदू परंपराओं की आड़ लेकर हिंदू ग्राहकों के लिए हिंदू विरोधी विज्ञापन परोसे जा रहे हैं। ब्रांड मैनेजर बिना हिंदू परंपराओं का अर्थ जाने हिंदुओं पर आक्षेप कर रहे हैें। ताजा मामला मान्यवर ब्रांड के विज्ञापन का है
‘मान्यवर’ ब्रांड का विज्ञापन इन दिनों चर्चा में है, एवं बहुचर्चित है ‘कन्यादान’ नामक शब्द। वही आलिया भट्ट, जिनके पिता अपनी बड़ी बेटी के साथ अश्लील तस्वीर छपवा चुके हैं, तथा यह इच्छा व्यक्त कर चुके हैं, कि यदि वह उनकी बेटी न होती तो वह अपनी बेटी से ही विवाह कर लेते।
हालांकि यहां पर किसी से भी व्यक्तिगत मामलों में हस्तक्षेप या आक्षेप लगाना अभिप्राय नहीं है, बल्कि यह समझने का प्रयास है कि जब कोई व्यक्ति ऐसे परिवार से हो, जिसमें अपनी ही लड़की को भोग्या की दृष्टि से देखा जाता हो, तो क्या उस पूरे परिवेश में ‘कन्या’ शब्द से परिचय होगा भी या नहीं। आलिया भट्ट एक सुन्दर एवं उत्कृष्ट अभिनेत्री हैं, एवं उन्होंने इस विज्ञापन में भी अभिनय ही किया है, क्योंकि वास्तविकता में उनसे पूछा जाए तो शायद उन्हें शादी या विवाह का भी अर्थ नहीं पता होगा।
विवाह जैसे पवित्र संस्कार को वे समझ ही नहीं सकती, क्योंकि विवाह को ये लोग बंधन मानते हैं, अर्थात् bondage जो bond से निकला है! गठबंधन का अर्थ bondage नहीं है। बंधन का अर्थ bond में बंधना नहीं होता, जैसा कि निकाहनामा में होता है।
हिन्दुओं में विवाह कोई समझौता या करार या अग्रीमेंट न होकर संस्कार है। यह ऐसा संस्कार है जिसमें प्रवेश करके ही वह मोक्ष की ओर चरण बढ़ा सकता है क्योंकि धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष, ये चार प्रतिफल माने गए हैं। जब धर्म (रिलिजन नहीं) का पालन कर अर्थ संचय किया जाता है, उसी धर्म के पालन के उपरान्त संचय किए गए धन के आधार पर पाणिग्रहण संस्कार के उपरान्त जब पति-पत्नी पवित्र ‘गृहस्थ’ की यात्रा पर चलते हुए परस्पर पूरे जीवन अर्द्धनारीश्वर का जीवन जीते हैं, उसके उपरान्त ही मोक्ष के मार्ग पर अग्रसर होते हैं।
विवाह, एक अत्यंत महत्वपूर्ण क्षण होता है जीवन का क्योंकि इसमें लोग वर के रूप में या तो साक्षात शिव को देखते हैं या फिर विष्णु, एवं वधू के रूप में मां शक्ति या साक्षात् मां लक्ष्मी को देखते हैं एवं यह आह्वान करते हैं कि सृष्टि के समस्त देव एवं समस्त शक्तियां इन दोनों को आशीर्वाद दें, ताकि ये दोनों जीवन भर अर्द्धनारीश्वर व्रत का पालन कर सकें।
परन्तु क्या यह सब निकाह या मैरिज में होता है, संभवतया नहीं!
परम्परा को न समझने वाले परम्परा में प्रवेश कर, कर रहे प्रदूषित!
अब समस्या यह आती है कि जब हिन्दू धर्म की इस पूरी अवधारणा को समझा नहीं जाता है और लड़की को इस आधार पर वस्तु बता दिया जाता है कि वह तो मर्दों की खेती है या फिर उसे गॉड ने मर्द की पसली से बनाया है, तो वह परम्परा का ऊपरी रूप देखते हैं कि ‘कन्यादान’ हो रहा है या ‘पाणिग्रहण’ हो रहा है, पर कन्यादान या पाणिग्रहण का अर्थ क्या है, वे इससे अनभिज्ञ होते हैं। एवं यह अनभिज्ञता खतरनाक ही नहीं होती बल्कि समाज एवं नई पीढ़ी के लिए घातक होती है।
ये हिन्दू स्त्रियां ही हैं, जिन्होंने शताब्दियों से अपनी परम्पराओं की रक्षा की है एवं उन्हें अपने लोक एवं जीवन में समेटे रखा है। पर हां, यह निश्चित है कि हमें छद्म नामधारी लड़कियों से बचना होगा, क्योंकि इन्हें वास्तव में यह पता नहीं है कि विवाह क्या है। और, जब इन्हें यह नहीं पता कि विवाह क्या है, तो वह कन्यादान को कैसे समझेंगी!
विवाह सूक्त रचे ही एक स्त्री ने हैं
‘मान्यवर’ के लिए विज्ञापन बनाने वाली एड एजेंसी श्रेयांस एंटरप्राइज को संभवतया यह नहीं पता होगा कि जिस हिन्दू धर्म में वह ‘कन्या को मान’ दिलवाने की बात कर रहे हैं, उसमें कन्या को इतना मान प्राप्त है कि आज तक विवाह सूक्त, जो विवाह में पढ़े जा रहे हैं, उन्हें एक स्त्री ने ही रचा था। सूर्या सावित्री नाम था उनका। ऋग्वेद के दशम मंडल में सूर्या सावित्री द्वारा विवाह के सूक्त रचे गए थे। उस सूक्त का नाम ही विवाह सूक्त है एवं रचनाकार हैं, सूर्या सावित्री, जिन्हें सूर्य की पुत्री भी कहा जाता है।
‘मान्यवर’ अपना बुद्धिदान कर जिस ‘कन्यामान’ की बात करता है एवं यह दिखाने का प्रयास करता है कि एक पिता ने अपनी कन्या को ‘डोनेट’ कर दिया, या उस पर से अपने अधिकार ‘गिव अप’ अर्थात छोड़ दिए, उसी सनातन धर्म में एक स्त्री सूर्या, विवाह के समय एक वधू का सम्मान क्या है, अर्थात उसके श्वसुर गृह में उसका सम्मान क्या है, वे लिखती हैं :
सम्राज्ञी श्वशुरे भव सम्राज्ञी श्वश्रवाम्भव
ननान्दरि सम्राज्ञी भाव सम्राज्ञी अधि देवृषु।
(ऋग्वेद 10 मंडल सूक्त 85, मन्त्र 46)
अर्थात वह अपने श्वसुर गृह की सम्राज्ञी बने, अपनी सास की सम्राज्ञी बने, वह अपनी ननद पर राज करे एवं अपने देवरों पर राज करे।
इसी सूक्त में कई मन्त्र हैं, जिनमें कन्या के लिए जिस मान की बात की गई है, उसके विषय में ‘मान्यवर’ या कोई भी एड एजेंसी सोच ही नहीं सकती, उनकी समस्त कल्पनाएं वहां तक पहुंच ही नहीं सकेंगी क्योंकि उनके लिए विवाह, एक (कानूनी), या समझौता है। परन्तु सूर्या सावित्री कहती हैं कि यह सौभाग्य है, और सौभाग्य दोनों के लिए है। यह मात्र एक के लिए नहीं है, स्त्री और पुरुष, दोनों को अब परस्पर साथ चलना है!
जिस छद्म समानता का नारा देने के लिए बुद्धि दान करने वाले ‘मान्यवर’ कन्यामान का शिगूफा लेकर आए हैं, उन्हें यह मन्त्र पढ़ना चाहिए जिसमें लिखा है कि कन्या एवं वर जीवन संध्या तक साथ चलें। वे सहजीवन का सिद्धांत देती हैं, जो अर्धनारीश्वर की अवधारणा को और पुष्ट करते हैं। मन्त्र संख्या 43 में संतान की कामना के साथ ही एकसाथ वृद्ध होने की इच्छा है।
आ न: प्रजां जन्यातु प्रजापति राज्ररसाय सम्नक्त्वर्यमा
अदुर्मंगली: पतिलोकमा विशु शं नो भव द्विपदे शम्चतुष्पदे।
(ऋग्वेद 10 मंडल सूक्त 85,
मन्त्र 43)
अर्थात् पति-पत्नी द्वारा प्रजापति से मात्र अच्छी संतान की प्रार्थना ही नहीं है बल्कि साथ ही वे कहती हैं कि दोनों जरापर्यंत जीवित रहें। कोई भी विपदा पति के घर पर न आए, और स्त्री अपने पति के लोक में अर्थात जो उन दोनों का घर है, उसमें परिवारी जनों एवं घर के पशुओं तक के लिए शुभ बनी रहे।
सूर्या सावित्री बाद में प्रचलित अबला स्त्री एवं त्यागमयी स्त्री की छवि से उलट यह कहती हैं कि स्त्री अपने पति के साथ अपनी संतानों के साथ अपने भवन में आमोद-प्रमोद से रहे। वह निरोगी पति के साथ-साथ ऐसे पति की बात करती हैं, जो अपनी पत्नी को समस्त सुख प्रदान करे।
अर्थात सूर्या सावित्री ने जब विवाह सूक्त में मन्त्रों की रचना की तो उन्होंने स्त्री को यह नहीं कहा कि वह त्याग करें बल्कि यह कहा कि पति ऐसा हो जो अपनी पत्नी के लिए गृहस्थ धर्म के अनुसार समस्त सुख-सुविधाएं प्रदान करें।
इहैव स्तं मा वि यौष्टं विश्वमायुर्व्यश्नुतम् ।
क्रीळन्तौ पुत्रैर्नप्तृभिर्मोदमानौ स्वे गृहे ॥
यह हो सकता है कि इसमें वामपंथी फेमिनिस्ट यह आपत्ति करें कि वह स्व-गृह में ही क्यों रहे? हां, नकली ‘कन्यामान’ करने वाले एक घर में कहां टिकते हैं!
परन्तु जिस ‘कन्यामान’ का उल्लेख नकली मान्यवर कर रहे हैं, वह ‘कन्यामान’ ऋग्वेद के दशम मंडल में विवाह सूक्त में प्राप्त होता है, जिसे रचने वाली स्वयं एक स्त्री है।
नकली क्रांतियों की दौड़
जब वेदों में स्त्री स्वतंत्रता और कन्या के प्रति मान का इतना बड़ा प्रत्यक्ष उदाहरण है तो ऐसा बार-बार क्यों हो रहा है कि नकली क्रांतियों की दौड़ मात्र हिन्दू धर्म तक ही रहती है। ऐसा नहीं है कि ऐसा पहली बार हुआ है, या ‘कन्या-मान’ एकमात्र ऐसा विज्ञापन है, दरअसल यह चलन बहुत लम्बे समय से चला आ रहा है, एवं अब तक जनता या कहें, हिन्दुओं ने विरोध के स्वर नहीं प्रदर्शित किये थे तो यह चल रहा था। परन्तु हर सीमा पार हो गई थी, पिछले वर्ष तनिष्क के विज्ञापन पर। जिस समय लगभग पूरा हिन्दू समाज इस बात से आक्रोशित था कि मुस्लिम लड़के हिन्दू नाम रखकर लड़कियों को प्यार के जाल में फंसा रहे हैं और फिर उन्हें मार रहे हैं, ऐसे में तनिष्क ने हिन्दुओं को ही लगभग कठघरे में खड़ा करते हुए, ‘एकत्वम’ विज्ञापन बना दिया था। जब इस पर विवाद हुआ तो टाटा ने विज्ञापन को वापस ले लिया था, परन्तु इसमें भी हिन्दुओं को ही दोषी ठहराकर।
यह ध्यान दिया जाए कि इसमें भी दीपावली पर अर्थात हिन्दू त्योहार पर, हिन्दुओं को दोषी ठहराते हुए हिन्दू ग्राहकों से यह अपेक्षा की गई कि इस विज्ञापन पर विरोध न हो। गोदभराई भी हिन्दू परम्परा है। अर्थात त्योहार हिन्दू, परम्परा हिन्दू, ग्राहक हिन्दू परन्तु विज्ञापन हिन्दू विरोधी, विरोधी ही नहीं, तनिष्क का विज्ञापन तो घावों पर नमक बुरकने जैसा था।
इससे पहले हिन्दू त्योहारों को ही निशाना बनाया गया था। सर्फ एक्सेल का विज्ञापन हम सभी को याद होगा। इसमें तो हिन्दू त्योहारों के साथ बच्चों को ही निशाना बनाया गया था। बच्चों का निश्छल मन, जो हर धर्म से परे होकर बस त्योहार का आनंद मनाना चाहता है, हां! वह मन हो सकता है मुस्लिमों जैसा कट्टर न हो, जैसा प्रगतिशीलों की प्रिय उर्दू लेखिका इस्मत चुगताई ने खुद ही अपनी आत्मकथा में लिखा था कि वह अपनी शाकाहारी हिन्दू सहेली को जान-बूझकर मांस खिला देती थीं, जबकि उनकी सहेली को कुछ पता नहीं चलता था। स्रोत
(स्रोत:https://www.bbc.com/hindi/india-45373354)
बच्चे रंगों का त्यौहार रंगों के साथ मनाना चाहते हैं, वे रंगना चाहते हैं और रंग तो रंग ही हैं। परन्तु बच्चों के मन में उनके इस त्यौहार के बहाने से यह बताया गया कि उनका त्यौहार ऐसा त्यौहार है, जो एक मजहब नहीं मनाना चाहता, पर उसका कारण नहीं बताया गया! बच्चों को ही दोषी ठहरा दिया गया, और फिर एक हिन्दू बच्ची एक मुसलमान बने बच्चे को मस्जिद तक छोड़कर आती है।
त्योहार हिन्दुओं का, परंपरा हिन्दू, उपभोक्ता हिन्दू, और विज्ञापन बनाया गया हिन्दू विरोधी और वह भी बच्चों को
दोषी ठहराकर!
मगर जनता ने अर्थात् हिन्दुओं ने विरोध किया!
एक और विज्ञापन था जिसमें हिन्दुओं के पर्व पर हिन्दुओं को कट्टर (बुरे अर्थों में) घोषित किया गया। कट्टर मुस्लिम होकर आप प्रगतिशील रह सकते हैं, जैसे फैज रहे, जैसे इकबाल रहे, पर पूजा-पाठ करने वाला हिन्दू प्रगतिशील नहीं हो सकता, उसे कट्टर और वह भी बुरे अर्थों में होना ही होगा, ऐसा कई एड एजेंसी वाले और एमएनसी के मालिक मानते हैं।
वर्ष 2019 में ब्रुकबांड रेड लेबल चाय के विरोध में हिन्दुओं का गुस्सा फूट पड़ा था, जब उन्होंने पाया कि गणेश चतुर्थी के अवसर पर बना विज्ञापन अंतत: हिन्दुओं को ही कठघरे में खड़े करने वाला था। विज्ञापन में था कि एक हिन्दू ग्राहक एक मूर्तिकार के पास गणपति बप्पा की मूर्ति खरीदने के लिए जाता है। दोनों के बीच बातें होती हैं, और फिर जैसे ही अजान की आवाज सुनकर वह मूर्तिकार टोपी पहनता है वैसे ही वह हिन्दू युवक हिचकिचा जाता है और कहता है कि ‘आज काम है, मैं कल आता हूं’
फिर मूर्तिकार कहता है कि चाय तो पीते जाइए भाईजान! और फिर उन दोनों के बीच दोस्ती होती है।
यहां पर भी हिन्दुओं का पर्व, हिन्दू ही ग्राहक, और हिन्दुओं को अपमानित करने के लिए पर्व का आश्रय लिया गया।
ऐसे में बार-बार प्रश्न यही उठता है कि चाहे साहित्यकार हों, चाहे फिल्म निर्माता हों या फिर विज्ञापन निर्माता, इन्हें हिन्दू धर्म की मान्यताओं पर ही प्रहार करना क्यों पसंद है, वह भी हिन्दू परम्पराओं की आड़ लेकर। जिस हिन्दू धर्म में ‘दान’ का अर्थ ही ‘मान’ है, जिस हिन्दू धर्म में शरणागत की रक्षा के लिए महाराज शिवि स्वयं को ‘दान’ करने के लिए तत्पर हो जाते हैं, जिस धर्म में दान का अर्थ है अपने जीवन के सबसे प्रिय तत्व को किसी ‘सुपात्र’ के हाथों में इस प्रकार सौंपना कि वह उस तत्व को उसी प्रकार रखे ही नहीं, बल्कि उसके जीवन का विस्तार दोनों मिलकर परस्पर करें, उस धर्म (हिन्दू) को ‘मान’ का अर्थ वह ब्रांड समझा रहा है जो लोगों को दरअसल ‘कन्या का मान’ गिराने के लिए प्रेरित कर रहा है।
जब तक ऐसे उथले और सतही लोगों का और ब्रांडों का विरोध नहीं किया जाएगा, जब तक ऐसी कविताओं और कहानियों का विरोध नहीं किया जाएगा, जो तथ्यों को गत आलोक में प्रस्तुत करती हैं और जो धर्म एवं परम्पराओं का वह रूप प्रस्तुत करते हैं, जो वह है ही नहीं, तब तक इस प्रकार के विज्ञापन बनते रहेंगे और ‘दान’ का अर्थ ये लोग Gift, contrion, subscription, present , handouts, grant, offering, giving, charity से लेते रहेंगे और धर्म का अर्थ वह लोग रिलिजन, मजहब से लेते रहेंगे, तब तक ऐसा होता रहेगा। अभी आवश्यकता तथ्यगत विरोध करने की है।
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