मातृशक्ति: वैदिक काल में नारी

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पूनम नेगी


वामी और हिंदूद्वेषी कथित बुद्धिजीवियों ने हिंदू समाज के आत्मबल को कमजोर करने के लिए भले वैदिक वाङ्मय में नारियों के पददलित होने की बातें प्रचारित की हों परंतु इनका अध्ययन करने पर पता चलता है कि आज वैश्विक स्तर पर नारियों के लिए जो मांगे की जाती हैं, उनकी व्यवस्था सिद्धांत और व्यवहार में भारत में वैदिक काल से ही थी


 नारी सशक्तिकरण की बात आते ही आमतौर पर लोगों को यह लगता है कि विगत कुछ वर्षों से ही देश में स्त्रियों के हक में आवाजें उठनी शुरू हुईं हैं; परन्तु यह विचार पूरी तौर पर निराधार है। सनातन वैदिक साहित्य के तमाम उद्धरण इस बात की पुष्टि करते हैं कि भारतीय समाज में पुरातन काल से ही महिलाओं की स्थिति अत्यंत सम्मानजनक व गौरवपूर्ण रही है। खेद का विषय है कि तालिबानी मानसिकता वाले हिंदूद्वेषी बुद्धिजीवियों और वामपंथी विचारधारा वाले तथाकथित इतिहासकारों की एक बड़ी जमात आजादी के बाद से ही हमारे धर्म ग्रंथों की अनुचित व्याख्या के द्वारा हिंदूधर्म में स्त्रियों के शोषण व अपमान की तमाम मनगढ़ंत व तथ्यहीन बातें प्रचारित कर हमारी सनातन संस्कृति की गौरव गरिमा को धूमिल करने के षड्यंत्र में जुटी है।
     
राम-कृष्ण पर अनर्गल आक्षेप
    इनका एक प्रमुख आरोप है कि हिन्दू धर्म में जिन राम व कृष्ण को पूजा जाता है; उनमें से एक ने धोबी के कहने पर अपनी गर्भवती पत्नी को घर से निकाल दिया और दूसरे की 16,000 रानियां थीं। ऐसे अनर्गल आरोप वस्तुत: इनकी कुत्सित सोच व अज्ञानता के द्योतक हैं। मयार्दा पुरुषोत्तम श्रीराम पर लगे इस आरोप का स्पष्ट उत्तर महर्षि वाल्मीकि रचित ‘रामायण’ के उत्तरकाण्ड के 42वें सर्ग के 31-35 श्लोक में पढ़ा जा सकता है; जहां श्रीराम अपनी गर्भवती पत्नी सीता से पूछते हैं कि इस अवस्था में आपकी परम इच्छा क्या है? तब सीताजी कहती हैं कि हे राघव! मैं पवित्र तपोवनों में रहकर महान ऋषि-मुनियों की सेवा-सत्संग का लाभ उठाना चाहती हूं ताकि मेरे गर्भस्थ शिशु क्षत्रियतेज के साथ ब्रह्मतेज से भी संयुक्त हों। प्रत्युत्तर में राम कहते हैं- ऐसा ही होगा, मैं कल ही आपको तपोवन भेजने की व्यवस्था करूंगा। यह उद्धरण सिद्ध करता है कि सीताजी अपनी भावी संतान की उत्तम परवरिश के लिए स्वेच्छा से वन गयीं न कि श्रीराम ने उन्हें निष्कासित किया था।
     
    इसी तरह अपने समय के सर्वोच्च राष्ट्रनायक की 16,000 पत्नियों को लेकर की जाने वाली इनकी टिप्पणियां भी इनकी निकृष्ट बुद्धि की परिचायक हैं। इन्होंने यदि कभी हिन्दू धर्मग्रंथों का निष्पक्षता से अध्ययन किया होता तो जानते कि उनकी ये 16,000 पत्नियां वस्तुत: द्वापर के एक शक्तिशाली व कामलोलुप आततायी शासक जरासंध के कैदखाने से छुड़ायी गयीं वे सम्मानहीन निराश्रित स्त्रियां थीं, जिन्हें समाज में सिर उठाकर जीने का अधिकार देने के लिए इस महापुरुष ने इतना बड़ा कदम उठाया था। नारी सम्मान का इतना बड़ा उदाहरण किसी भी अन्य धर्म में नहीं मिलता।
     
इसी तरह ‘रामचरित मानस’ और ‘मनुस्मृति’ के कुछ प्रक्षिप्त अंशों व क्षेपकों को आधार बनाकर हिन्दू धर्म-संस्कृति की गरिमा को धूमिल करने के प्रयास इन भारत विरोधियों द्वारा अरसे से किये जा रहे हैं। ‘रामचरित मानस’ के सुन्दरकाण्ड की एक चौपाई ‘ढोल, गंवार, सूद्र, पशु, नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी’ के आधार पर इनके द्वारा गोस्वामी तुलसीदास को नारी विरोधी बताने का प्रतिकार करते हुए सुप्रसिद्ध रामकथा वाचक प्रेमभूषण महराज कहते हैं कि इस चौपाई का शुद्ध रूप है- ‘ढोल, गंवार, सूद्र, पशु नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी’ अर्थात जो नारी सूर्पनखा के समान पशुवत आचरण वाली हो, वह ताड़ना यानी दंड देने के योग्य होती है, अन्यथा माँ जग्जननी की चरण वंदना करने वाले गोस्वामी जी नारी के बारे में ऐसे अनुचित शब्द प्रयुक्त करने की भूल भला कैसे कर सकते थे! यह व्याकरण की एक चूक है जिस पर ये विरोधी बेमतलब का हो-हल्ला मचाते हैं।संस्कृत, व्याकरण, सांख्य, न्याय व वेदांत के प्रकांड विद्वान तथा चित्रकूट के तुलसीदास धाम के पीठाधीश्वर रामभद्राचार्य महाराज का मत भी ऐसा ही है। उनका कहना है कि आज बाजार में मिलने वाली रामचरितमानस की कुछ मात्राई अशुद्धियां ऐसे विवादों को हवा देती हैं; ये अशुद्धियां यथाशीघ्र दूर हो सकें, इस दिशा में वे सक्रिय रूप से प्रयासरत हैं। उनके अनुसार यह चौपाई सही रूप में ‘‘ढोल, गवार, सूद्र, पशु, नारी’’ नहीं बल्कि ‘‘ढोल, गंवार, क्षुब्ध पशु,रारी’’ है। अर्थात बेसुरा ‘ढोलक’, अनावश्यक व ऊलजलूल बोलने वाला ‘गंवार’, आवारा घूम कर लोगों को हानि पहुंचाने वाले क्षुब्ध पशु और रार यानी कलह करने वाले लोग दण्ड के अधिकारी होते हैं। वे कहते हैं कि धार्मिक ग्रंथों के गलत सन्दर्भ और गलत व्याख्या करके जो लोग हिन्दू समाज को तोड़ने का षड्यंत्र रच रहे हैं, वे अपने उद्देश्य में कभी भी सफल नहीं होंगे।
     
पुत्रेण दुहिता समा
प्राचीन हिन्दू समाज में महिलाओं की स्थिति को लेकर ये भारत विरोधी ऐसा ही प्रलाप ‘मनुस्मृति’ के आधार पर भी करते हैं। इनमें से शायद ही किसी ने मूल ‘मनुस्मृति’ पढ़ी हो; पर निरर्थक गाल बजाने में ये जरा भी नहीं चूकते। जरा गहराई से विचार कीजिए कि जो ग्रन्थ ‘‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता:। यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्रऽफला: क्रिया:’’ (मनुस्मृति 3/56) कहकर नारी को देवी के समाज पूज्य होने का सम्मान देता हो, क्या वह नारी के अपमान,शोषण व दोहन की बात करेगा? हिन्दू जीवन पद्धति की इस आदर्श आचार संहिता में मनु स्पष्ट लिखते हैं कि जिस कुल में स्त्रियां अपने पति व परिजनों के अत्याचार से पीड़ित रहती हैं, वह कुल शीघ्र नष्ट हो जाता है (मनुस्मृति 3/57),हिन्दू धर्म में स्त्री की उच्च स्थिति के ऐसे सैकड़ों उदाहरण ‘मनुस्मृति’ में मिलते हैं। पुत्र-पुत्री एक समान-लोग समझते हैं कि यह आज का नारा है परन्तु मनु महाराज ने वैदिक काल में ही ‘‘पुत्रेण दुहिता समा’’ (मनुस्मृति 9/130) कहकर पुत्र-पुत्री की समानता घोषित कर दी थी। उन्होंने पैतृक सम्पत्ति में पुत्र-पुत्री के समान अधिकार माने हैं जो मनुस्मृति के 9/130-9/192 भाग में वर्णित हैं। उल्लेखनीय है कि मनु ने जिस पुत्री को ‘दुहिता’ (दुहिता = दू+हिता यानी दोनों की हितसाधक) का संबोधन देकर पिता व पति दोनों कुलों का हितरक्षण करने वाली स्त्रीशक्ति के रूप में महिमामंडित किया है, उस ‘दुहिता’ शब्द का अर्थ इन हिन्दू विरोधी विचारकों ने दोहन से जोड़ दिया। इनके मुताबिक ‘दुहिता’ वह जिसका दोहन किया जाए। वाकई तरस आता है इनकी इस अल्प बुद्धि पर। हिन्दू समाज में नारी समानता के पोषक व पक्षधर मनु ने स्त्री के जीवन में आने वाली हर छोटी-बड़ी कठिनाई का ध्यान रखते हुए उनके निराकरण के स्पष्ट निर्देश दिये हैं। मनुस्मृति (8/323, 9/232, 8/343) में नारियों के प्रति किए जाने वाले हत्या, अपहरण, बलात्कार आदि अपराधों के लिए मृत्युदंड एवं देश निकाला जैसी कठोर सजाओं का प्रावधान मिलता है। वे नारी की असुरक्षित तथा अमर्यादित स्वतंत्रता के पक्षधर नहीं हैं। इसीलिए उन्होंने स्त्रियों को सचेत करते हुए लिखा है कि वे स्वयं को पिता, पति, पुत्र आदि की सुरक्षा से अलग न करें (मनुस्मृति 5/149, 9/5-6)। इसके पीछे उनका मूल मकसद है नारी की सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित करना है, न कि उनके स्वतंत्रता के अधिकारों का हनन।
     
माता के नाम से पहचान
अब महिलाओं के पारिवारिक अधिकारों की बात करें तो तद्युगीन समाज में स्त्री की सत्ता व स्वायत्तता इतनी ऊंची व सम्मानजनक थी कि संतानें अपनी मां के नाम से जानी जाती थीं; जैसे कौशल्यानंदन, सुमित्रानंदन, देवकीनंदन, गांधारीनंदन, कौन्तेय व गंगापुत्र आदि। इसी तरह पत्नी का नाम पति से पहले रखा जाता था- लक्ष्मीनारायण, गौरीशंकर, सीताराम व राधाकृष्ण इत्यादि। क्या किसी अन्य धर्म-संस्कृति में नारी को मान देने के ऐसे उदाहरण मिलते हैं? इसका कोई उत्तर इन तथाकथित बुद्धिजीवियों के पास नहीं है।
     
वैदिक साहित्य में स्त्री शिक्षा
    भारतीय नारी के सम्मान में यजुर्वेद का (21।5) यह श्लोक देखिए- मंहीमूषु मातरं सुव्रतानामृतस्य पत्नीमवसे हुवेम। तुविक्षत्रामजरन्तीमुरूची सुशर्माणमदितिं सुप्रणीतिम्॥ अर्थात हे नारी! तू महाशक्तिमती है। तू सुव्रती संतानों की माता है। तू सत्यशील पति की पत्नी है। तू भरपूर क्षात्रबल से युक्त है। तू मुसीबतों के आक्रमण से जीर्ण न होनेवाली अतिशय कर्मशील है। तू कल्याण करनेवाली और शुभनीति का अनुसरण करनेवाली है। यह श्लोक तो एक बानगी मात्र है, वस्तुत: समूचा वैदिक साहित्य स्त्री शक्ति के महिमागान से भरा पड़ा है। वैदिक ऋषि कहते हैं कि कन्याएं ब्रह्मचर्य के पालन से पूर्ण विदुषी होकर ही विवाह करें (अथर्ववेद 11।5।18।।),माता- पिता अपनी कन्या को पति के घर भेजते समय उसे ज्ञान और विद्या का उपहार दें (अथर्ववेद 14।1।6।।), स्त्री अपनी विद्वत्ता और शुभ गुणों से पति के घर में सबको प्रसन्न रखे (अथर्ववेद 14।1।20।।), पति अपनी नववधू से कहता है- तुम सभी सांसारिक कलाओं की ज्ञाता हो, तुम हमारे कुल की धन-समृद्धि और मान को बढ़ाओ (अथर्ववेद 7।47।2।।)। वेदस्त्री और पुरुष दोनों को समान अधिकार देते हुए कहते हैं कि राजा ही नहीं, रानी भी न्याय करने वाली हों (यजुर्वेद 10।26।।)। वैदिक ऋषि स्त्रियों को युद्ध में भाग लेने के लिए भी प्रोत्साहित करते हैं (यजुर्वेद 17।45।।)।
     
    वैदिक साहित्य के तमाम उल्लेख बताते हैं कि उस युग में बालकों के समान बालिकाओं का भी उपनयन संस्कार होता था और वे भी गुरुओं के आश्रम में रहकर ब्रह्मचर्य का पालन कर विद्या अध्ययन करती थीं। क्षत्रिय स्त्रियां धनुर्वेद अर्थात् युद्धविद्या की भी शिक्षा ग्रहण करती थीं। ‘शतपथ ब्राह्मण’ में उल्लेख मिलता है कि श्रीराम के गुरु वशिष्ठ के गुरुकुल में संगीत व पर्यावरण संरक्षण का शिक्षण उनकी महान विदुषी पत्नी अरुन्धति ही देती थीं।
     
स्त्री शिक्षा के दो रूप – सद्योवधू एवं ब्रह्मवादिनी
    हारीत संहिता बताती है कि वैदिक काल में स्त्रीशिक्षा के दो रूप थे-1. सद्योवधू (वे विवाह होने से पूर्व ज्ञान प्राप्त करने वाली) तथा २. ब्रह्मवादिनी (ब्रह्मचर्य का पालन कर जीवनपर्यंत ज्ञानार्जन करने वाली)। सद्योवधू या सद्योद्वाहावर्ग की कन्याएं उन समग्र विद्याओं का शिक्षण प्राप्त करती थीं जो उन्हें सद्गृहिणी बनाने में सहायक होती थीं। वेद अध्ययन के अतिरिक्त इन्हें गीत-संगीत, नृत्य, चित्रकला, शिल्प व शस्त्रविद्या आदि कुल चौसठ कलाओं की शिक्षा दी जाती थी। गौरतलब हो कि ये उपनिषद कालीन ब्रह्मवादिनियां आज भी हिन्दू समाज के विद्वत वर्ग में प्रकाश स्तंभके रूप में श्रद्धा से पूजी जाती हैं। ऋग्वेद में गार्गी, मैत्रेयी, घोषा, गोधा, विश्ववारा, अपाला, अदिति, इन्द्र्राणी, लोपामुद्र्रा, सार्पराज्ञी, वाक्क, श्रद्धा, मेधा, सूर्या व सावित्री जैसी अनेक वेद मंत्रद्र्रष्टा विदुषियों का उल्लेख मिलता है जिनके ब्रह्मज्ञान से समूचा ऋषि समाज आह्लादित था। इनकी गहन मेधा का परिचय देते हैं इनके द्वारा रचित विभिन्न वैदिक सूक्त। बताते चलें कि ब्रह्मवादिनी विश्ववारा आत्रेयी ने ऋग्वेद के पंचम मण्डल के 28वें सूक्त, घोषा काक्षीवती ने दशम मण्डल के39वें व 40वें सूक्त, सूर्या सावित्री ने दशम मण्डल के 85वें सूक्त, अपाला आत्रेयी ने अष्टम मण्डल के 91वें सूक्त, शची पौलोमी ने दशम मण्डल के 149वें सूक्त तथा लोपामुद्रा ने प्रथम मण्डल के 179वें सूक्त की रचना की थी।
     
    ज्ञातव्य है कि ब्रह्म के चिंतन-मनन के साथ ये ब्रह्मवादिनियां शिक्षिकाओं के दायित्व का निर्वहन भी पूरी कुशलता से करती थीं। आश्वालायन के गृहसूत्र में गार्गी, मैत्रेयी, वाचक्नवी, सुलभा, वडवा, प्रातिथेयी आदि शिक्षिकाओं के नाम मिलते हैं जिन्हें उपाध्याया का सम्बोधन दिया गया है। जो वामपंथी प्राचीन भारत में स्त्रियों के अशिक्षित होने का झूठ प्रचारित करते हैं, उन्हें अपनी आंखों से झूठ की यह पट्टी उतार कर यह देखने की जरूरत है कि वैदिक काल की महिलाएं यदि दर्शन, तर्क, मीमांसा, साहित्य आदि विषयों की ज्ञाता न होतीं तो क्या वे इतनी विपुल मात्रा में वैदिक साहित्य का सृजन कर पातीं! महाभारत में काशकृत्स्नी नामक विदुषी का उल्लेख है जिन्होंने मीमांसा दर्शन पर काशकृत्स्नी नाम के ग्रंथ की रचना की थी। इसी तरह आठवीं सदी में मिली रूसा नाम की एक लेखिका की एक कृति में धातुकर्म पर अनेक विवरण मिलते हैं। बारहवीं सदी में भास्कराचार्य ने अपनी पुत्री लीलावती को गणित का अध्ययन कराने के लिए लीलावती ग्रंथ की रचना की थी। बस्तर क्षेत्र में नागशासकों के एक अभिलेख में मासकदेवी नामक एक विदुषी राजकुमारी का उल्लेख है जो किसानों के हित के लिए राज्यनियम परिवर्तित करवाती है। इसी तरह पृथ्वीराज रासोमहाकाव्य बताता है कि राजकुमारी संयोगिता ने मदना नाम की शिक्षिका द्वारा संचालित कन्या गुरुकुल में शिक्षा प्राप्त की थी जिसमें विभिन्न राज्यों की लगभग 500 राजकुमारियां उनके साथ पढ़ती थीं। दु:ख का विषय है कि स्त्री-शिक्षा की इतनी गौरवपूर्ण व स्वर्णिम परिपाटी मध्यकाल के मुगल आक्रांताओं के शासनकाल और उसके बाद फिरंगियों की गुलामी के दौरान छिन्न-भिन्न होती चली गयी।आज भारतीय समाज में तेजी से पनपती तथाकथित अत्याधुनिकता और पाश्चात्य संस्कृति के अंधानुकरण के नाम पर जिस तरह सिनेमा व इंटरनेट के द्वारा स्त्री को भोग्या के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है; यौन अपराध उसी नजरिये की एक स्वाभाविक परिणति हैं। इन अपराधों को रोकने के लिए स्त्री की गरिमा को कलंकित करने वाले विज्ञापनों, टीवी सीरियलों व फिल्मों पर तत्काल प्रभाव से रोक लगाने के साथ शिक्षा में बदलाव भी बेहद जरूरी है। बाल मन में स्त्री के  प्रति सम्मानजनक विचारों को रोपण हो, इसके लिए हमें वेदों की ओर रुख करना ही होगा।

मातृशक्ति के ऐसे उदाहरण दूनियां में दूसरे नहीं
 महासती अनुसुइया पुरा भारतीय इतिहास की ऐसी महान नारी पात्र हैं जिन्होंने अपनी महान तपोशक्ति के बल पर त्रिदेवों ( ब्रह्मा, विष्णु व महेश) को; जो सनातन धर्म की मान्यता के अनुसार सृष्टि की उत्त्पत्ति, पालन व संहार की आधारभूत शक्ति माने जाते हैं; को अबोध शिशु बना दिया था। इस घटना के पीछे की रोचक व प्रेरक अंतर्कथा से प्राय: हर हिन्दू धर्मावलम्बी भली-भांति परिचित है। इसी तरह वैदिक काल की एक अन्य महान नारी पात्र हैं सावित्री; जो अपने बुद्धि कौशल व प्रचंड संकल्पबल के बलबूते अपने पति के प्राण मृत्यु के मुख से छुड़ा लायी थीं। उस घटना की स्मृति में आज भी भारतीय सुहागिनें वट सावित्री का व्रत रखती हैं। आदि शक्ति मां पार्वती ने भी अपने दुर्धर्ष तप के बल पर काम दहन करने वाले आदियोगी शिव को पति रूप में पाया था। पत्नी सुकन्या की प्रचंड तप साधना के बल पर जरा वृद्ध च्यवन ऋषि को पुनर्यौवन प्राप्त हुआ था।

बृहदारण्यक उपनिषद् में वर्णित मिथिला के राजा विदेहराज की जनसभा में अपने समय के सर्वोच्च तत्ववेत्ता याज्ञवल्क्य का परम विदुषी ब्रह्मवादिनी गार्गी के साथ जीवन और प्रकृति जैसे गूढ़ विषय पर हुआ शास्त्रार्थ भारतीय नारी की विद्वता को प्रतिष्ठित करने वाला हिन्दू दर्शन की अनमोल ज्ञान संपदा माना जाता है। वैदिक नारी की विद्वता का ऐसा ही एक अन्य प्रसिद्ध उदाहरण जगद्गुरु आदि शंकराचार्य के जीवन से जुड़ा है; जब देश के चारो कोनों – बदरिकाश्रम, श्रृंगेरी पीठ, द्वारिका शारदा पीठ और पुरी गोवधर्न पीठ की स्थाापना करने वाले शंकरचार्य एक स्त्री के आगे नतमस्त क हुए थे। वह विद्वानस्त्री थी अपने समय के प्रकांड संस्कृत विद्वान मण्डन मिश्र की धर्मपत्नी उभय भारती। प्रारंभ में उन्होंने शंकराचार्य एवं मण्डन मिश्र के मध्य हुए शास्त्रार्थ में निर्णायक की भूमिका निभाई लेकिन जब उनके पति उस शास्त्रार्थ में शंकराचार्य से हार गये तो वे खुद को पति की अर्धांगिनी का तर्क देकर स्वयं उनसे शास्त्रार्थ को प्रस्तुत हुईं और काम शास्त्र से जुड़े प्रश्न पूछ कर शंकराचार्य को निरुत्तर कर दिया। इस पर बाल ब्रह्मचारी शंकराचार्य ने नतमस्तक होकर उन्हें प्रणाम किया और देवी भारती से कुछ समय मांगा और परकाया में प्रवेश करके रति ज्ञान प्राप्त कर दोबारा भारती के साथ शास्त्रारर्थ कर उन्हेें परास्त किया। हिन्दू धर्म को छोड़ नारी जाति का ऐसा गौरवशाली रूप दुनिया के किसी अन्य धर्म में नहीं मिलता।

 

 

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