दीनदयाल जी मानते थे कि जब तक भारत के लोग अपनी भाषाओं का प्रयोग नहीं करेंगे तब तक उनका विकास और प्रभाव नहीं बढ़ेगा। वे यह भी कहते थे कि सरकारी संरक्षण में कोई भाषा विकास नहीं कर सकती है। वे सभी भारतीय भाषाओं के विकास के प्रबल पक्षधर थे
भारतीय राजनीति में पंडित दीनदयाल उपाध्याय का नाम बहुत ही आदर के साथ लिया जाता है। दीनदयाल जी एक राजनेता ही नहीं, एक महान चिंतक, विचारक और संगठनकर्ता भी थे। वे राजनेता कम मनीषी अधिक थे। वे पूर्णतया भारतीयता और भारतीय संस्कृति के उपासक थे। वे विचारक, पोषक, चिंतक, लेखक, पत्रकार सभी कुछ थे। वस्तुत: वे राष्ट्र जीवन-दर्शन के निर्माता ही थे। उन्होंने भारत की सनातन विचारधारा को युगानुकूल प्रस्तुत करते हुए एकात्म मानववाद की अवधारणा प्रस्तुत की। आर्थिक रचनाकार के रूप में उनका मत था कि सामान्य मानव अर्थात् जन-सामान्य का सुख और समृद्धि ही आर्थिक विकास के मुख्य उद्देश्य होने चाहिए।
भाषा नीति और शिक्षा नीति के परिप्रेक्ष्य में दीनदयाल जी के विचार बहुत ही गंभीर, चिंतनपरक, सुघड़ और लोकोपयोगी हैं। उन्होंने बहुभाषी भारत की भाषायी स्थिति को समझते हुए हिंदी, संस्कृत, अंग्रेजी आदि कई भाषाओं पर अपने विचार प्रस्तुत किए थे, जो आज भी प्रासंगिक और सार्थक हैं। वे हिंदी और भारतीय भाषाओं के प्रबल समर्थक थे और अंग्रेजी के पक्ष में कतई नहीं थे। 1961 में राष्ट्रीय एकता सम्मेलन का आयोजन हुआ था, जिसमें भारतीय संस्कृति के पुरोधा और राजनेता श्री कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने अंग्रेजी को भारतीय राष्ट्रीय चेतना का प्रेरणास्रोत और उपकरण माना था।
दीनदयाल जी ने आर्गनाइजर (23 अक्तूबर,1961) को दिए एक साक्षात्कार में उनके इस मत का जोरदार शब्दों में खंडन करते हुए कहा था, ‘‘अंग्रेजी को भारत की राष्ट्रीय चेतना का प्रेरणास्रोत और उपकरण मानना हमारी राष्ट्रीयता के सच्चे और सकारात्मक दर्शन की उपेक्षा करना है। ऐसा लगता है कि मैकाले की भविष्यवाणी सही निकल रही है कि भारत के अंग्रेजीदां लोग नाम के ही भारतीय हैं। ये लोग न तो भारत की आत्मा को पहचान पाएंगे और न ही सकारात्मक आदर्शों को पाने के लिए जन-समाज को प्रेरित कर पाएंगे।’’ एक अन्य साक्षात्कार में (आर्गनाइजर, 26 अप्रैल, 1965) वे स्पष्ट रूप से कहते हैं, ‘‘एकता जनता की इच्छा-शक्ति पर आधारित होती है।
अगर जनता मिलजुल कर एक-साथ रहे, अपने राष्ट्र के प्रति उसकी आस्था और दृढ़ संकल्प हो तो जनता की संकल्प-शक्ति को ध्यान में रखते हुए सरकार को भी हर हालत में एकता को बनाए रखना है।’’ ब्रिटिश शासन में भारत की एकता को अंग्रेजी जैसी विदेशी भाषा के योगदान को अस्वीकार करते हुए उन्होंने कहा, ‘‘ब्रिटिश शासन में यह एकता केवल कृत्रिम और नकारात्मक थी। सकारात्मक और रचनात्मक एकता केवल हमारी अपनी भाषाओं से ही संभव हो सकती है।’’
उपाध्याय जी ने अपने एक वक्तव्य में अंग्रेजी का विरोध करते हुए स्पष्ट शब्दों में कहा था, ‘‘अंग्रेजी की लड़ाई केवल हिन्दी के लिए नहीं है, बल्कि सभी भारतीय भाषाओं के हित के लिए भी है। अंग्रेजी को हटाने से केवल हिन्दी का भाला नहीं होगा, बल्कि अन्य भारतीय भाषाओं का भी हित होगा। अंग्रेजी के रहने से न तो कोई भारतीय भाषा पनप पाएगी और न ही विकसित हो पाएगी।’’ उनकी यह भी मान्यता थी कि तमिल, बंगला तथा अन्य भारतीय भाषाओं को हिन्दी ने पीछे नहीं किया, बल्कि अंग्रेजी ने ही किया है। उनका यह भी मत है, ‘‘भारत में जब तक अंग्रेजी का वर्चस्व रहेगा तब तक हम मुक्त भाव से अपने सांस्कृतिक पुनर्जागरण का आनंद नहीं ले पाएंगे। इसलिए विदेशी भाषा के चंगुल से अपने-आप को मुक्त करना होगा। अंग्रेजी की नकल से विश्व का ज्ञान तो प्राप्त नहीं होगा, वरन् अपनी भाषाओं से अपना अमूल्य ज्ञान भी प्राप्त नहीं कर पाएंगे।’’
उपाध्याय जी संस्कृत भाषा के घोर समर्थक थे। संस्कृत को सुष्ठु, उत्कृष्ट और समृद्ध भाषा मानते हुए उन्होंने कहा, ‘‘संस्कृत मात्र अर्थ ही नहीं, अर्थच्छटाओं को भी व्यक्त करने में पूर्णतया सक्षम और समर्थ है जो अन्य भाषाओं में नहीं है। इसलिए तकनीकी शब्दों के निर्माण में संस्कृत की ही सहायता लेना उचित होगा।’’ उन्होंने यहां तक कह दिया कि संस्कृत न केवल भारत तथा पूर्वी एवं दक्षिण एशिया के लिए उपयोगी और समर्थ है, बल्कि अंतरराष्ट्रीय शब्दावली का निर्माण की क्षमता भी इसमें निहित है। संस्कृत की उपयोगिता की चर्चा करते हुए वे कहते हैं, ‘‘साहित्यिक, तकनीकी और प्रशासनिक कार्यों में संस्कृत जितनी सक्षम है, उतनी उर्दू, हिंदुस्तानी और हिंगलिश नहीं है। उर्दू, हिंगलिश आदि भाषाओं का प्रयोग बोलचाल की भाषा के रूप में तो किया जा सकता है, लेकिन उच्चतर स्तर पर नहीं।’’ उनका स्पष्ट मत है कि सभी क्षेत्रीय अर्थात् भारतीय भाषाएं राष्ट्रीय भाषाओं का काम कर सकती हैं, लेकिन संस्कृत भारत की राष्ट्रभाषा ही है।
हिन्दी को भारत की संपर्क भाषा मानते हुए वे कहते हैं, ‘‘भारत संघ की राजभाषा की भूमिका निभाने में हिन्दी पूर्णतया समर्थ है और क्षेत्रीय भाषाएं अपने-अपने प्रदेश की राज भाषा का काम कर सकती हैं। इससे देश को एक प्रकार का द्विभाषी होना होगा। संघ सरकार के जो कार्यालय राज्यों में स्थित हैं, उन्हें हिन्दी और क्षेत्रीय भाषा दोनों का प्रयोग करना होगा।’’
कुछ लोग और समुदाय द्वारा हिन्दी का विरोध करने पर जब उनसे इस संबंध में प्रश्न पूछे गए तो उन्होंने बताया (आर्गनाइजर, गणतंत्र दिवस विशेषांक, 1965) कि यह एक प्रकार का ‘पुनरावृत्त घृणा’ फैलाने का भाव है। ऐसे लोगों को समझाना और आश्वस्त करना कठिन हो जाता है। ऐसे लोगों को उन्होंने दो वर्गों में विभाजित किया। पहले वर्ग के लोग एक राष्ट्र, एक संस्कृति, और एक भाषा की अवधारणा के विरोधी होते हैं। इसलिए उनका प्रश्न हमेशा यही रहता है कि हिन्दी ही अकेले क्यों? वस्तुत: वे भारत का एक और विभाजन चाहते हैं और इसलिए वे हिन्दी को भारतीयों पर साम्राज्यवादी शासन का उपकरण मानते हैं। यह उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा है। आप उन्हें तब तक आश्वस्त नहीं कर सकते जब तक उन्हें अलगाववादी महत्वाकांक्षा के व्यर्थ और दुर्बल पक्षों के बारे में आश्वस्त नहीं कर लेते। इसलिए हमें इस बारे में संकल्प लेना होगा और प्रयास करना होगा ताकि वे सही दिशा की ओर उन्मुख हो सकें। समझौते के लिए यदि उनकी शर्तें मान ली जाएं तो उन्हें बल मिलेगा, क्योंकि हरेक को प्रसन्न करने की नीति से काम नहीं चलेगा, बल्कि उससे उनकी भूख और बढ़ेगी। अत: उनके साथ संघर्ष करना पड़ेगा और उनके इरादों को कुचलना होगा।
पंडित जी ने विरोध करने वाले दूसरे वर्ग की बात करते हुए कहा कि ये लोग पूर्णतया राष्ट्रवादी हैं। वे संस्कृत भाषा की वकालत करते हैं। उनका यह मत सही भी हो सकता है, लेकिन उन्हें यह मालूम नहीं कि हिन्दी का विरोध करने और उसके प्रयोग में बाधा डालने से संस्कृत का भाला नहीं होगा। यदि अंग्रेजी को जारी रखा गया और उसका वर्चस्व बना रहा तो संस्कृत बहुत पीछे रह जाएगी।
राष्ट्र का निर्माण जनता ही करती है। इसलिए वही भाषा अपनाई जाए जो सरकार में निर्णायक भूमिका निभा सके और वह हो सकती है जनता की ही भाषा। उनका यह मत है कि भाषा शून्यता में नहीं पनपती। सरकारी फाइलों में विकसित नहीं होती। हमें अपनी भाषा का प्रयोग स्वयं करना होगा। सरकार का अनुकरण जनता नहीं करती, सरकार को जनता का अनुकरण करना होगा। यदि सरकार ऐसा करने से इनकार करती है तो वह अपनी जड़ें खो देती है। अगर भाषा के मामले में सरकार की चलती तो बहुत पहले ही फारसी देश की भाषा होती। मुस्लिम शासकों का संदर्भा देते हुए वे कहते हैं कि दिल्ली के मुस्लिम शासकों ने शताब्दियों तक अपना राजकाज फारसी भाषा में किया लेकिन जनता अपनी भाषाओं में ही अपना काम करती रही। अंत में मुगल शासकों को जनता की भाषा खड़ी बोली को अपनाना पड़ा। बाद में अदालतों में हिन्दी की एक विशिष्ट शैली उर्दू का विकास भी हुआ, लेकिन सरकारी और अदालती भाषा उर्दू को जनभाषा का दर्जा नहीं मिल सका। सूरदास और तुलसीदास ने जनता की भाषा ब्रज और अवधी को ही प्राथमिकता देकर काव्य-रचना की। उर्दू की साहित्यिक महत्ता का उल्लेख करते हुए वे कहते हैं, ‘‘साहित्य में उर्दू का विशेष योगदान होने के बावजूद यह राष्ट्रीय पुनर्जागरण की माध्यम भाषा नहीं बन पाई। जनभाषा हिन्दी ही राष्ट्रीय पुनर्जागरण का नैसर्गिक चुनाव थी। यह हमारे स्वतंत्रता-संग्राम की भाषा बन गई है, स्वतंत्रता-संग्राम का प्रतीक बन गई और साथ ही स्वतंत्रता-सेनानियों के रचनात्मक कार्यक्रमों की अभिव्यक्ति बन गई।’’
उपाध्याय जी ब्रिटिश साम्राज्य पूर्व के इतिहास पर अपनी दृष्टि डालते हुए कहते हैं, ‘‘हिन्दी न केवल ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध हो रहे संघर्ष तक ही सीमित थी, बल्कि उससे पहले मुगल शासकों के विरुद्ध भी अपनी भूमिका निभा रही थी। शिवाजी के दरबार में भूषण जैसे कवियों ने हिन्दी में वीर रस की कविताओं से इसमें योगदान किया।’’
स्वतंत्रता के बाद हमारी जो लोकतांत्रिक सरकार स्थापित हुई, उसे पंडित जी जनता की सरकार मानते हैं। अगर जनता अपनी भाषा की उपेक्षा करती है तो कोई भी सरकार उस भाषा की न तो रक्षा कर पाएगी और न ही उसे प्रोत्साहन देगी। इस बात की ओर भी वे ध्यान दिलाते हैं कि जिस भाषा का विकास सरकार के संरक्षण में होता है, वह भाषा जनता की भाषा का गौरव खो बैठती है। इसलिए पंडित जी उस भाषा में जनता का प्रतिबिंब देखते हैं जो अपने-आप में जीवंत होती है और उसका साहित्य समृद्ध होता है। हिन्दी साहित्य के रीति काल में उनकी यह मान्यता संपुष्ट हो जाती है जिस काल में ब्रज भाषा सामंतों और राजाओं के संरक्षण में ही विकसित हुई थी और उसके साहित्य में जन भावना दिखाई नहीं देती।
विद्यालयों में त्रिभाषा सूत्र में अंग्रेजी भाषा को सम्मिलित करने में उपाध्याय जी सहमत नहीं थे। त्रिभाषासूत्र लागू करने पर उनका मत है कि इस त्रिभाषा सूत्र में अगर हिन्दी, अंग्रेजी और क्षेत्रीय भाषा लागू होगी तो उससे संस्कृत को बाहर कर दिया जाएगा, जो क्षेत्रीय भाषाओं के लिए भी हानिकारक होगा। यदि हिन्दी को लिया जाता है तो अंग्रेजी का वर्चस्व नहीं हो पाएगा और उसका स्तर भी ऊंचा नहीं हो पाएगा। अंग्रेजी को विषय के रूप में पढ़ाने के बारे में उनका कथन है कि क्षेत्रीय भाषाओं के साथ-साथ हिन्दी एवं संस्कृत भाषाओं को साझे रूप में रखना भारतीय शिक्षा प्रणाली के लिए उचित नहीं है। तत्कालीन सरकार की ढीली-ढाली और विवादास्पद भाषा-नीति से पता चलता है कि सरकार का हिन्दी के प्रति उदासीन रवैया स्पष्ट झलकता है और इसी कारण हिन्दी को बहुत नुकसान पहुंचा है। इसलिए हिन्दी को अब सक्रियता की भाषा बनाना है और विदेशी भाषा अंग्रेजी को बनाए रखने की सरकार की जो नीति है, वह एक षड्यंत्र है जिसका विरोध जनता को लोकतांत्रिक तरीके से करना होगा।
इस प्रकार उपाध्याय जी के भाषा संबंधी विचार गंभीर, सुलझे हुए और विद्वतापूर्ण हैं। ऐसा लगता है कि उन्होंने इस विषय पर गहन चिंतन कर अपने विचार व्यक्त किए हैं। भारतीय संस्कृति और परंपरा की दृष्टि से भारत की प्रगति हो सकती है और वह भी केवल अपनी भाषाओं में हो सकती है। वे संस्कृत, हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं के प्रबल समर्थक रहे हैं। वे अपनी भाषाओ के विकास और संवर्धन में ही राष्ट्र का विकास और संवर्धन मानते थे। उनकी यही आकांक्षा थी कि हिन्दी और भारतीय भाषाएं हमारी राष्ट्रीय अस्मिता, राष्ट्रीय एकता, राष्ट्रीय संघर्ष और राष्ट्रीय उपलब्धि की प्रतीक बनी रहें। स्वतंत्रता संग्राम में हिन्दी संघर्ष और विरोध की भाषा रही है। अब यह विकास, संवर्धन और गत्यात्मकता की भाषा रहे।
(लेख पाञ्चजन्य आर्काइव से लिया है।)
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