दैनिक जीवन में शब्दों संकोचन को हर वक्त महसूस किया जा सकता है। दैनंदिन व्यवहार में आने वाले शब्द भी अब हम भूलते जा रहे हैं। अगर दिमाग पर जोर डालकर उन शब्दों की तलाश करें तो आपको पता चलेगा कि शब्दों के ज्ञान की दुनिया में कितनी कमी आ चुकी है।
कुछ वर्ष पहले राजधानी दिल्ली से सटे एक कॉलेज में एक मित्र को जाने का मौका मिला। जिस बिल्डिंग के उपरी माले पर स्थित दफ्तर में उन्हें जाना था, उसकी सीढ़ियों पर भारी संख्या में छात्र बैठे हुए थे। छात्रों ने सीढ़ी को ऐसा घेर रखा था कि वहां से चाह कर भी निकलना आसान नहीं था। लिहाजा एक जगह उन्होंने छात्रों से अनुरोध किया– अपना पैर बटोर कर बैठो दोस्त…लेकिन कोई प्रतिक्रिया छात्रों की ओर से नहीं मिली। बल्कि उल्टे उनकी प्रश्नवाचक निगाहें मित्र को घूरती रहीं। दस सेकंड में ही माजरा समझ में आ गया। तब उन्हें छात्रों से अनुरोध करना पड़ा कि अपने पैर समेट लो। राजधानी के नजदीक स्थित कॉलेज के उन छात्रों को बटोरना भले ही समझ में नहीं आया, लेकिन शुक्र है उन्हें समेटना पता था।
शहरी इलाकों में आए दिन हमें ऐसे वाकयों से दो-चार होना पड़ता है। हाल ही में मशहूर गीतकार प्रसून जोशी ने अपने साथ घटी एक घटना का भी जिक्र किया है। एक फिल्म के गीत की रिकॉर्डिंग के वक्त उन्हें भी कुछ ऐसा ही अनुभव हुआ। उस गीत में उन्होंने एक जगह सट-सटकर बैठने का जिक्र किया है। जोशी को हैरानी तब हुई, जब हिंदी फिल्मी दुनिया के संगीतकार, गायक और वहां मौजूद ज्यादातर साजिंदों को सट-सटकर बैठने का अर्थ ही नहीं समझ आ रहा था। हारकर उन्हें सटना की जगह पास-पास बैठने का प्रयोग करना पड़ा। लेकिन प्रसून जोशी को अफसोस है कि सट-सटकर बैठने जैसे शब्दों के प्रयोग से जो तपिश और ध्वनि निकलती है, वह पास-पास में कहां निकलती है। अब तक यह आरोप लगता रहा है कि शाब्दिक ज्ञान की दुनिया नई पीढ़ी में सिमट रही है। लेकिन यह प्रक्रिया तो सत्तर के दशक में ही शुरू हो गई थी, जब कथित तौर पर मांटेसरी और कान्वेंटस्कूलों की खेप गांवों तक पहुंचनी शुरू हुई थी। यह प्रक्रिया तो इन दिनों अपने चरम पर है। लेकिन सत्तर-अस्सी के दशक में शुरू हुए अधकचरे कान्वेंट की परंपरा ने जड़ जमा ली है और वहां से पढ़कर निकली पीढ़ी अब जवान हो गई है। वही पीढ़ी है, जिसे सट-सटकर बैठने का अर्थ अब समझ नहीं आता है।
इस पीढ़ी के सामने आपने खालिस हिंदी का प्रयोग किया तो आपको यह भी सुनने के लिए तैयार रहना होगा- क्या डिफिकल्ट हिंदी बोलते हैं आप। इस पूरी प्रक्रिया में भागीदार अपना मीडिया भी है। मीडिया के छात्रों और नवागंतुकों को एक ही चीज बताई-समझाई जाती है कि सरल – सहज भाषा में अपनी बात रखो। सहजता और सरलता की यह परंपरा इतनी गहरी हो गई है कि सामान्य हिंदी के शब्दों की बजायअंग्रेजी के शब्दों का धड़ल्ले से प्रयोग जारी है। दिल्ली में इन दिनों कॉमनवेल्थ गेम की बड़ी चर्चा है। दो-चार साल पहले तक हिंदी अखबार इसे राष्ट्रमंडल या राष्ट्रकुल खेल कहते नहीं अघाते थे। लेकिन अब वे भी इन शब्दों को भूल गए हैं। हमसे पहले की पीढ़ी ने भाषा का संस्कार और उसका पाठ अखबारों के जरिए ही सीखा है। लेकिन तब मीडिया संस्कारित करने की भूमिका भी निभाता था। लेकिन आज ऐसी हालत नहीं रही है। उसका तर्क है कि उसके पाठक जो पढ़ना चाहते हैं, वह उसे पढ़ाना चाहता है। मीडिया को अब हिंगलिश भाषा अच्छीनजर आने लगी है और यह सब हो रहा है नई पीढ़ी के नाम पर। तर्क तो यह भी दिया जाता है कि नई पीढ़ी को यही सब पसंद है। लेकिन यह तर्क देते वक्त हम यह भूल जाते हैं कि नई पीढ़ी तो सड़क पर ही जीवन की वर्जनाओं को तोड़ना चाहती है। क्या इसकी छूट दी जा सकती है। नई पीढ़ी को छेड़खानी और बदतमीजी में ही मजा आता है। क्या इसके लिए छूट दी जा सकती है। दरअसल मनुष्य स्वभाव से ही आदिम और जानवर होता है। उसे सलीका और शिष्टाचार का पाठ संस्कारों और शिक्षा के जरिए पढ़ाया जाता है। भाषा का संस्कार भी उसी प्रक्रिया की एक कड़ी है। लेकिन दुर्भाग्य से हमने उस परंपरा को तोड़ दिया है। 1853 में जब मैकाले की मिंट योजना के बाद देसी और प्राच्य शिक्षा को खत्म करके सिर्फ अंग्रेजी शिक्षा देने की ईस्ट इंडिया कंपनी की सरकार ने तैयारी की तो उसका जोरदार विरोध हुआ था। तब सवाल उठा था कि अपनी भाषाएं खत्म हो जाएंगी और भाषा खत्म होगी तो संस्कृति पर भी खतरा आएगा। मैकाले की योजना तब सफल तो नहीं हुई, लेकिन आजादी के बाद यह योजना सफल होती नजर आ रही है। जो काम विदेशी नहीं कर पाए, आजादी के बाद आई अपने लोगों की सरकार की नीतियों ने वह कर दिखाया है।
दैनिक जीवन में शब्दों संकोचन को हर वक्त महसूस किया जा सकता है। दैनंदिन व्यवहार में आने वाले शब्द भी अब हम भूलते जा रहे हैं। अगर दिमाग पर जोर डालकर उन शब्दों की तलाश करें तो आपको पता चलेगा कि शब्दों के ज्ञान की दुनिया में कितनी कमी आ चुकी है। हिंदी पखवाड़ा जारी है। हिंदी को कथित तौर पर विकसित करने का पाखंड जारी है। बेहतर तो होता कि हिंदी को अपने लपेटे में ले रही इस प्रवृत्ति पर भी विचार किया जाता। यहीं पर याद आता है भारतीय पत्रकारिता के अतीत में भाषा से किए गए सकारात्मक प्रयोग। सच्चिदानंद हीरालाल वात्सायन अज्ञेय के संपादन में निकली टाइम्स ऑफ इंडिया समूह की पत्रिका दिनमान ने अपनी तरह से भाषा को लेकर बहुत ही उम्दा और देसज प्रयोग किए थे। इस प्रयोग पर आज की पत्रकारिता की निगाह पड़नी जरूरी है।
दिनमान और नई भाषा
मेरा मानना है कि पत्रकारिता और साहित्य दोनों दो अलग-अलग विधाएं हैं। भाषा को छोड़ दें तो विषयवस्तु या विचार के स्तर पर किसी साहित्यकार संपादक ने हिंदी पत्रकारिता को कोई ज्यादा मजबूत किया है-मैं ऐसा नहीं मानता। सारी दुनिया में पत्रकारिता की भाषा को साहित्य ने अपनाया है। हमारे यहां उल्टी गंगा बहाने की कोशिश होती रही…….प्रिंट मीडिया के लिए भाषा और शैली की जरूरत है, पर इसका अर्थ ये नहीं कि किसी विद्वान पंडित साहित्यकार को संपादक बना दिया जाए.
हिंदी के शीर्षस्थ पत्रकार सुरेंद्र प्रताप सिंह ने 1997 में अपनी मौत से पहले एक साक्षात्कार में ये बात कही थी। बाद के दौर में सुरेंद्र प्रताप सिंह अकेले पत्रकार नहीं थे-जिन्होंने साहित्य और पत्रकारिता के आपसी रिश्ते को लेकर ऐसे सवाल उठाए हों। लेकिन ये भी सच है कि दिनमान ने भाषा के स्तर पर जो उंचाई हासिल की, उसमें उनके तीनों प्रारंभिक संपादकों का ज्यादा योगदान था। इसकी वजह भी यही थी कि चाहे अज्ञेय हों या फिर रघुवीर सहाय या कन्हैयालाल नंदन, तीनों मूलतः साहित्यकार रहे हैं । यही वजह है कि दिनमान में भाषा की रवानी बनी रही-लेकिन ये भी सच है कि इन लोगों ने भाषा की शुचिता को बरकार रखा। दिनमान के पृष्ठ इसके गवाह हैं।
हिंदी में इन दिनों आम आदमी को समझाने वाली भाषा के नाम पर हिंदी के साथ सफल छेड़छाड़ करने का चलन बढ़ गया है। उदारीकरण ने इस प्रक्रिया को अब इतना बढ़ा दिया है कि इस पर अब सवाल भी उठने बंद हो गए हें। अगर किसी ने भूले-भटके सवाल उठाने का साहस कर दिखाया तो उसे प्रहसन का पात्र बना दिया जाता है। लेकिन दिनमान की कहानी दूसरी रही। उसने हिंदी के साथ नए प्रयोग किए। दिनमान ही क्यों, उस दौर तक खासकर पत्रकारों में अपनी भाषा के साथ प्यार-दुलार और उसे आगे बढ़ाने की एक लालसा थी। एक वजह यह भी हो सकती है कि दिनमान के पत्रकारों ने हिंदी को आगे बढ़ाने में भूमिका निभाई। लेकिन सही मायने में कहें तो सरस्वती, मर्यादा,माधुरी और चांद जैसी पत्रिकाओं की परंपरा को दिनमान ने आगे बढ़ाया। शायद ये इसलिए संभव हो पाया कि दिनमान के शुरू के तीनों संपादक मशहूर साहित्यकार रहे और उनकी टीम में भी साहित्यिक जगत की हस्तियां का बोलबाला रहा। पहले संपादक अज्ञेय,बाद में आए रघुवीर सहाय और कन्हैयालाल नंदन का साहित्यकार रूप पत्रकार से कहीं ज्यादा बड़ा था। हालांकि रविवार शुरू करने वाले सुरेंद्र प्रताप सिंह पत्रकारिता में नए विषयों के समावेश में कमी के लिए हिंदी के लेखक पत्रकारों की परंपरा पर जगह-जगह सवाल उठाए हैं। लेकिन ये भी सच है कि अगर दिनमान में इन तीनों संपादकों के अलावा सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, श्रीकांत वर्मा, प्रयाग शुक्ल, विनोद भारद्वाज जैसे लोगों का होना कम से कम हिंदी भाषा को बचाए रखने और उसे आगे बढ़ाने की गारंटी था। सच तो यही है कि इन्हीं लोगों के जरिए दिनमान ने पत्रकारिता की नई भाषा गढ़ी थी।
दिनमान ने कई नए शब्दों को भी गढ़ा-ये बात और है कि इनमें से कई शब्द बाद के दौर में नहीं चल पाए। और तो और खुद दिनमान में भी इनका चलन बंद हो गया। दिनमान शुरूआती दिनों में वियतनाम को वीएतनाम लिखता था।इसी तरह तमिल की जगह तमिश् का प्रयोग होता था। जाहिर है आज का तमिलनाडु दिनमान के लिए तब तमिष्नाडु था। आज का हरियाणा, उस दौर में हरयाणा था। आज जिसे हम स्वतंत्र प्रजातांत्रिक गणतंत्र कहेंगे-तब दिनमान के लिए स्वाधीगण प्रजातंत्री था। 1971 में बांग्लादेश के उदय के बाद दिनमान ने मुजीबुर्रहमान के बयानों के आधार पर लिखा था कि बांग्लादेश स्वाधीगण प्रजातंत्री देश होगा। आज का हिंदमहासागर का द्वीप डियागो गार्सिया,दिनमान के पृष्ठों पर ज्यागो गार्सिया के तौर पर दर्ज़ होता था। इसी तरह रूस के यूराल पर्वत को उराल लिखा जाता था। भारतीय मूल के लेखक वी एस नायपॉल को दिनमान वी एस नैपाल लिखता था। इसी तरह दिनमान में हांगकांग को हांड.कांड.,इंडोनेशिया को इंदोनेशिया, थाईलैंड को थाईदेश,ट्रिनीडाड को त्रिनीदाद, कनाडा को कैनाडा, अर्जेंटीना को अर्हेंतीना, कंबोडिया को कंबुजिया और बाद में कंबोदिया, स्पेन को स्पान, मलयेशिया को मलयेसिया और कई जगह मलाया भी लिखा जाता था। आज जो तंजानिया है-उसे दिनमान के पृष्ठों पर तांजानिया के रूप में देखा जा सकता है। पोलैंड उन दिनो पोलस्का के रूप में दिनमान के पन्नों पर छाया रहता था। कुछ इसी अंदाज में इथियोपिया तब इथोपिया लिखा जाता था। स्पेन की कम्युनिस्ट पार्टी को स्पानी कम्युनिस्ट पार्टी, जर्मन विद्वान मैक्समूलर को मक्समूलर,स्वीडन की पार्टी को स्वीडी पार्टी,चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के वरिश्ठ नेता च्यांग काई शेक को च्यांड.काई शेक लिखा जाता था।
अज्ञेय के इन भाषाई प्रयोगों से साफ है कि उन्होंने संज्ञा पदों का भी हिंदीकरण करने की कोशिश की थी- अज्ञेय दरअसल हिंदी की टाइम मैगजीन निकाल रहे थे-इसलिए उनके सामने कहीं न कहीं हिंदी पत्रकारिता के सामने एक प्रतिमान रहा होगा और इसे सफल करने की कोशिशों के तहत उन्होंने इन विदेशी मूल के शब्दों का भी हिंदीकरण करने की कोशिश की। उन्होंने सोचा होगा कि ये शब्द हिंदी में चल जाएंगे। ये परंपरा उनके उत्तराधिकारी रघुवीर सहाय तक चलती रहती है-लेकिन 1977 के बाद दिनमान को लगता है कि हिंदीभाषी लोग इन्हें नहीं अपना पाएंगे और इन शब्दों का दिनमान में प्रयोग रोक दिया गया। आज के दौर में अज्ञेय और रघुवीर सहाय के ये प्रयोग अटपटे जरूर लग सकते हैं-लेकिन हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि ऐसे ही प्रयोगों से हिंदी आगे बढ़ी है। अज्ञेय अंग्रेजी के भी जानकार थे-रघुवीर सहाय ने तो अंग्रेजी में डिग्री ही ली थी। दोनों ने बरसों तक अपनी इसी योग्यता के दम पर आकाशवाणी में काम भी किया-लेकिन दोनों में अपनी हिंदी को आगे बढ़ाने की जोरदार लालसा थी। अंग्रेजी के प्रभुत्व वाले संस्थान में अपनी इस लालसा को पूरा करने के लिए दोनों ही संपादकों ने अनथक प्रयास किए। अगर ऐसा नहीं होता तो दिनमान 18 मार्च 1975 के अंक में ये ऐलान नहीं करता कि राष्ट्र की भाषा में राष्ट्र का आह्वान।
2006 में उत्तर प्रदेश के राज्यपाल टी वी राजेश्वर के एक कथन ने जोरदार बहस छेड़ दी थी। उन्होंने कहा था कि अंग्रेजी दुनिया को देखने की खिड़की है और उसकी पढ़ाई पर जोर दिया जाना चाहिए। दिनमान में सत्तर के दशक में भी ऐसी रिपोर्टें भी छपती रहीं हैं। इसके लिए दिनमान के एक फरवरी 1970 के अंक को देखना कहीं ज्यादा समीचीन होगा-जब उसके पृष्ठों पर अंग्रेजी के समर्थन में तब के दिल्ली के उपराज्यपाल आदिनाथ झा के आह्वान की रिपोर्ट छपी थी। आदिनाथ झा ने अंग्रेजी को बढ़ावा देने की ये अपील मशहूर दार्शनिक बंट्रेंड रसेल स्मृति व्याख्यान में की थी। इस व्याख्यान में उन्होंने भारतीय अंग्रेजी को बढ़ावा देने की बात कही थी। दिनमान और उसके यशस्वी संपादक चाहते तो इसे रोक सकते थे-लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
सच तो ये है कि दिनमान ने नए भाषिक शब्दों को गढ़ा और उन्हें प्रचलित करने की कोशिशें भी खूब कीं। लेकिन यदि वे शब्द चल नहीं पाए तो उनसे किनारा करने में दिनमान ने देर भी नहीं लगाई। उपरोक्त दिए गए शब्दों में से कई आज नहीं चलते। लेकिन हिंदी की अपनी रवानी को बनाए और बचाए रखते हुए दिनमान की टीम ने वह कर दिखाया-जिसकी सही मायने में हिंदी भाषा और पत्रकारिता को जरूरत थी। पूरी दुनिया में अपनी भाषाओं के लिए आज के दौर में भी एक खास तरह का आग्रह देखा जा रहा है। लेकिन कम से कम आज की हिंदी पत्रकारिता के लिए ऐसी सोच बिना वजह का विषय बन गई है। हिंदी की जगह आम बोलचाल की भाषा के नाम पर अंग्रेजी शब्दों का ना सिर्फ अनगढ़ प्रयोग बढ़ा है-बल्कि हिंदीकरण के नाम पर अंग्रेजी शब्दों को हिंदी के व्याकरण को दरकिनार करते हुए अपनाया जा रहा है। मसलन-नर्सेस आंदोलन पर हैं। या स्कूल बंद कर दिए गए हैं। लेकिन दिनमान के ये प्रयोग इनसे अलग थे और हिंदी की आत्मा के अनुकूल थे। ऐसे में ये कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि दिनमान के ये प्रयोग हिंदी की रवानी को ध्यान में रखते हुए किए गए थे। भाषाई स्तर पर दिनमान की इस भूमिका को गांधी के जीवन पर पहला गिरमिटिया जैसे मशहूर उपन्यास के लेखक और आईआईटी कानपुर के पूर्व रजिस्ट्रार गिरिराज किशोर ने भी समझा है। उनका कहना है- दिनमान ने उस समय जो राजनीतिक शब्दावली हिंदी को दी थी, राजनीतिक चरित्र के साथ उसमें रचनात्मक संस्कार भी था। व्यवसायिकता का ध्यान भी रखा गया था। अज्ञेय जी का मानना था कि हिंदी को जब तक हम बहुआयामी स्तर पर समृ़द्ध नहीं करेंगे,उसे एक संपूर्ण भाषा बनाने में कठिनाई होगी। आज इनका प्रयोग किया जाय तो प्रयोग करने वाले को दकियानूसी कहा जाएगा। सुरेंद्र प्रताप सिंह ने अपने आखिरी इंटरव्यू में एक तरह से इसी विचार को ही प्रतिपादित किया है। लेकिन दिनमान के भाषिक प्रयोगों पर ध्यान देने से ये बात साफ हो जाती है कि उसका मकसद हिंदी को गढ़ना, उसे आगे बढ़ाना और उसे नई शैली के साथ प्रचलित कराना भी था।
दरअसल दिनमान को अंग्रेजी की मशहूर पत्रिका टाइम का हिंदी संस्करण बनाना था। अज्ञेय ने नवंबर 1964 में जब दिनमान को बतौर हिंदी की टाइम मैगजीन निकालने की चुनौती स्वीकार की-तब उनके सामने दिनमान को गढ़ने की दृष्टि तो थी-उनके दिमाग में हिंदी की टाइम मैगजीन भी थी। लेकिन वे सुविधाएं नहीं थीं-जो टाइम्स समूह के दूसरे अंग्रेजी पत्रों और पत्रिकाओं को दी गई थी। अज्ञेय जानते थे कि सीमित संसाधनों में दिनमान बतौर टाइम मैगजीन कैसे निकाला जा सकता है। उन्हें पता था कि भाषाई स्तर पर दिनमान को कुछ खास कर दिखाना होगा। ये उनकी दृष्टि ही थी कि वे फणीश्वर नाथ रेणु से बिहार की परिस्थितियों पर रिपोर्ताज लिखवा सके। चाहे 1967 का सूखा हो या फिर बाद के दौर की भयानक बाढ़-रेणु जी ने दिनमान के लिए अप्रतिम रिपोर्ताज लिखे-जिन्हें बाद में ऋणजल-धनजल नाम से संकलित किया गया है। रेणु का ये लेखन उस दौर की पत्रकारिता ही थी-लेकिन ये पत्रकारिता आज हिंदी साहित्य की अनुपम निधि है। जिसे साहित्य जगत भी पूरे आदर के साथ देखता है। कहना ना होगा कि तब की ये पत्रकारिता आज के दौर में पत्रकारिता की बजाय साहित्यिक लेखन की तरह याद और समादृत की जाती है।
निर्वाक् दुख,शब्दातीत शोक – दिनमान के 14 जनवरी 1966 के अंक के कवर पर ये शीर्षक प्रकाशित हुआ है.तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री की मौत पर दिनमान ही ऐसा शीर्षक देने की हिम्मत कर सकता था- आज के दौर में किसी अखबार या पत्रिका में ऐसे शीर्षक की कल्पना ही बेमानी है। यहां पर मनोहर श्याम जोशी के शब्दों को उधार लेते हुए एक बार फिर कहना पड़ेगा कि ऐसा नहीं कि अज्ञेय दिनमान में खिलंदड़ भाषा का प्रयोग नहीं करते थे। ऐसा होता था-लेकिन वह सब जोशी जी के नाम पर होता। जिसे दिनमान के पृष्ठों पर बखूबी देखा जा सकता है। इसके लिए 10जनवरी 1971 के अंक में प्रकाशित एक शीर्षक को देखा जा सकता है- संगीत सम्मेलनों से कटता कानसेन। कितना जबरदस्त शीर्षक है। इसके तहत संगीत सम्मेलनों से गायब होते रसिक श्रोताओं पर टिप्पणी की गई है। लेकिन एक तथ्य साफ है कि दिनमान के पृष्ठों पर अगर गंभीर और मौन समझे जाने वाले अज्ञेय ने खिलंदड़ी भाषा का इस्तेमाल किया तो इसका खास मतलब है-मतलब ये कि वे खुद पत्रकारिता में भाषा की रवानी को स्वीकार करते थे।
(लेख पाञ्चजन्य आर्काइव से लिया है।)
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