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हिन्दू अफगानिस्तान का इस्लामी अधिग्रहण

by WEB DESK
Sep 9, 2021, 12:07 pm IST
in भारत, विश्व, दिल्ली
काबुल का हिन्दू शाही एकमुखी शिवलिंग (9वीं शताब्दी)/ संध्या वंदन करता हुआ हिंदू-काबुल से प्राप्त मूर्ति

काबुल का हिन्दू शाही एकमुखी शिवलिंग (9वीं शताब्दी)/ संध्या वंदन करता हुआ हिंदू-काबुल से प्राप्त मूर्ति

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डॉ. धर्मचन्द चौबे


अफगानिस्तान का उल्लेख ऋग्वैदिक काल से मिलता है। आधुनिक काल में यूनानियों के यहां आकर सनातन धर्म अपनाने से यह क्षेत्र कला परंपराओं में काफी समृद्ध हुआ। आठवीं सदी से इस्लामी आक्रमण प्रारंभ हुआ परंतु हिंदू राजाओं ने 300 वर्ष तक इन्हें आगे नहीं बढ़ने दिया। हिंदू राजाओं के बंटे होने से यह क्षेत्र इस्लामी शक्तियों के हाथ में चला गया


इस्लाम कोई धर्म नहीं, बल्कि एक विस्तारवादी पंथ है जो दुनिया को गुलाम बनाना चाहता है। खलीफा नामक एक ऐसा पद था जिसने पैगंबर मुहम्मद के बच्चों तक को मार डाला। यह एक वर्चस्ववादी प्रवृत्ति है जो लोगों और क्षेत्रों को गुलाम बनाना चाहती है और जो अपने जन्म के समय से ही अमानवीय है।

दूसरी बार अफगानिस्तान के ‘तालिबानी टेकओवर’ में थोड़ा पीछे मुड़कर देखना जरूरी हो जाता है कि किन परिस्थितियों में इसका पहला ‘इस्लामिक टेकओवर’ हुआ था और इससे हम हिन्दू क्या सबक ले सकते हैं क्योंकि ‘लम्हों ने खता की थी, सदियों ने सजा पाई’ का विषय है।

रामायण और महाभारत काल में आज के अफगानिस्तान और पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के मध्य कैकेय देश स्थित था जिसमें रामायण के समय अश्वपित राजा थे। रावण की माता कैकसी और भरत की माता कैकेयी इसी देश की राजकुमारियां थी। महाभारत काल में कैकेय देश की सेना ने दो भागों में बंटकर पांडवों और कौरवों की ओर से धर्मयुद्ध में भाग लिया था। राम के भाई भरत के वंशधरों का कई शताब्दियों तक बैक्ट्रिया और खोतान में शासन रहा था। आर्य वैरोचन अपने को भरतवंशी कहते थे।

वृष्नी वंशी कृष्ण और उनके पुत्रों ने गांधार देश को जीता था। शकुनि के बाद इस क्षेत्र को एक बार अर्जुन और उनके पौत्र जनमेजय ने जीता था और वहां के राजा तक्षक को मृत्युदंड दिया था।

ऋग्वैदिक समुदाय
प्रारम्भ में ऋग्वैदिक समुदायों में पक्थ और भलानस सबसे प्रभावशाली थे। इन्ही पक्थों से ये पख्तून (ज्यादातर तालिबानी) निकले और हिन्दू धर्म के प्रबल शत्रु हैं। जिम्मर ने लिखा है कि ये पक्थ आज के पख्तूनिस्तान में काबुल नदी के उत्तर-पूर्व में बसते थे। (एन्शिएंट पाकिस्तान, वाल्यूम 3, यूनिवर्सिटी आॅफ पेशावर, 1967, पृ. 23)
दक्षिणी-पूर्वी अफगानिस्तान को, गांधार देश कहा जाता था जिसकी राजधानी तक्षशिला थी (पाकिस्तान) और यह क्षेत्र प्राचीन पुरुषपुर और आधुनिक पेशावर जिला है। गांधार देश काबुल घाटी (वर्तमान काबुल) तक फैला हुआ था।

ऐतिहासिक कला परंपराएं : यहां का राजा आंभिक था जिसने सिकन्दर की अधीनता स्वीकार कर ली थी। कुषाण काल में ढेर सारे श्वेतवर्णी शकों और यूनानियों का इस क्षेत्र में जमना प्रारम्भ हुआ था और भारत-यूनानी और शक कला परम्पराओं ने मिलकर अद्भुत सूर्य, शिव, पार्वती, गणेश, विष्णु, ब्रह्मा और बुद्ध की प्रतिमाएं बनार्इं। ऐसी प्रतिमाएं किसी भी संस्कृति और परम्परा में बाद में नहीं बनाई जा सकीं। गांधार देश (अफगानिस्तान) से होकर भारतीय धर्म और संस्कृति पूरे एशिया में प्रसारित हुई। इस पूरे क्षेत्र में हिन्दू और तत्पश्चात बौद्ध और सिख रहते थे पर क्रूर मुस्लिम आक्रमण ने इन्हें आज वहां लुप्तप्राय बना दिया है।

काबुल में हिन्दू मन्दिरों के ध्वस्त अवशेष बहुत जगह देखे गए थे। अफगानिस्तान के पख्तिया प्रांत से गर्देज गणेश की मूर्ति प्राप्त हुई है। इतिहासकारों की मान्यता है कि हिन्दूकुश के दोनों तरफ हिन्दू मतावलम्बी बसे हुए थे। गांधारी और मूरिस्तानी सनातनी लोग थे। इन क्षेत्रों से सूर्य, शिव, महिषासुरमर्दिनी दुर्गा, विष्णु और गौतम बुद्ध की असंख्य अभिराम मूर्तियां प्राप्त हुई हैं। सिकन्दर के आक्रमण के बाद से यहां हिन्दू-यूनानी समाज का उद्भव हुआ जो सत्य सनातन के अनुगामी और उच्च कोटि के मूर्तिकार सिद्ध हुए। 921 ई. में ईरानी इतिहासकार इश्तकरी हिन्दू काबुल की चर्चा करता है (एच.एम. इलियट, दी हिन्दू काबुल, 1877, पृ.)

इस्लामी आक्रमण
इस क्षेत्र पर आक्रमण करने वाला प्रथम आक्रमणकारी कुत्यब अल मुस्लिम था (705-715ई.) किंतु 9वीं शताब्दी तक इन्हें काबुल की ओर बढ़ने में सफलता नहीं मिली। पर पश्चिमोत्तर अफगानिस्तान में ये जमने लगे थे। जबुलिस्तान के जुंबिल्स और काबुल के हिन्दूशाही ने 300 वर्षों तक अरब आक्रमणकारियों को रोके रखा। परिणामस्वरूप ये भारत की सिंधु घाटी की ओर नहीं बढ़ सके। 712 ई.में मुहम्मद कासिम के सिंध आक्रमण के बाद मेवाड़ के गुहिलों, गुजरात के सोलंकियों और कन्नौज के गुर्जर प्रतिहारों ने भी इन्हें काबुल से आगे नहीं बढ़ने दिया। 865 ईस्वी में याकूब बिन लेथ ने हिन्दू जुंबिल राजा को पराजित किया और जबुलिस्तान उनके हाथ में चला गया। बाद में हिन्दू सैनिकों की भर्ती कर मसूद अलप्तगीन और महमूद गजनी हिन्दू शाहियों से लड़ने लगे। भारत छोटे-छोटे राज्यों में विभाजित होने के बाद भी इनका कड़ा प्रतिरोध करता रहा और भारत में इनकी सत्ता भी दुर्योग से स्थापित होने में आगे 300 वर्ष लगे। शाही प्रतिहारों के कमजोर होते ही अफगानिस्तान पर गजनी के तुर्कों का दबाव बढ़ गया। 10वीं शताब्दी के अंत से इधर लगातार अरबों और ईरानियों के आक्रमण शुरू हो गए। 870 ई. के बाद सफारिद्स ने हिन्दू शाही साम्राज्य को छोड़कर सम्पूर्ण अफगानिस्तान को जीत लिया। 982 ई. में नगरधर का राजा अपनी 30 पत्नियों के साथ मुसलमान बन गया। 10वीं शताब्दी के बाद से तुर्की वंश ने बुखारा और समरकंद को अपना केन्द्र बनाकर साम्राज्य विस्तार प्रारम्भ किया जो हिन्दू शाहियों के लिए घातक सिद्ध हुआ। मूल भारत छोटे-छोटे संघर्षशील राज्यों में बंटकर और हिन्दू शाही अलग-थलग पड़कर पराजित हुए। महमूद गजनी (998-1030 ई.) ने गांधार से एक-एक हिन्दू राजा को पराजित कर भागने पर मजबूर किया, वह काफिरों को खत्म कर गाजी बनना चाहता था। उसके शासन काल में गांधार से पंजाब तक लाखों लोग बलात् मुस्लिम बनाए गए। सिस्तान और मुल्तान की ओर से अरबी मुसलमान अफगानिस्तान की ओर बढ़े। फलत: अरबी मजहब और भाषा का प्रभाव अफगानिस्तान पर पड़ने लगा। महमूद अफगानियों, समरकंदियों, गांधारों और पख्तूनियों को मुसलमान बनाने पर आमादा था। वह मूर्तियों को तोड़ता हुआ सोमनाथ, कन्नौज और काशी तक पहुंच गया। किन्तु सिन्धु के इस पार उसे कड़ा प्रतिरोध मिला, फलत: उसके पांव इधर नहीं जम सके। जाटों के लोकनायकों ने उसे कई बार खदेड़ा।
राजपूताना, पंजाब और पेशावर से निकलकर वह गजनी और गौर चला गया। काबुल का शाही वंश अपने को पांडववंशी मानता रहा। जयपाल, आनन्दपाल और त्रिलोचनपाल ने तुर्कों को 50 वर्ष तक रोके रखा। किन्तु कन्नौज में शाही प्रतिहारों के पतन से उनका मनोबल टूट गया। मुहम्मद गौरी के सत्तासीन होने तक अफगानिस्तान और पख्तूनिस्तान को इस्लाम ने निगल लिया। फिर भी वहां हिन्दू स्थानों की भरमार थी।

अफगानिस्तान के दक्षिण-पूर्व में भारतीय कश्मीर से लगता हुआ काफिरिस्तान था जो 19वीं शताब्दी तक हिन्दू और लोक धर्म को मानता था। दोनों तरफ से हिन्दूकुश से आवृत्त दुर्गम क्षेत्र था जिसके आस-पास मुस्लिम आबादी थी।यह जनपद काल में भारत के कपिशा जनपद के नाम से जाना जाता था (आर.सी. जैन, दी कल्चरल हेरिटेज आॅफ इंडिया, 1936, पृ. 151; भगवान सिंह सूयवंशी, ज्योग्राफी आॅफ महाभारत, 1986,
पृ. 198)

सनातनी कलश समुदाय
फाहियान और ह्वेनसांग लिखते है कि इसके क्षत्रिय राजा का आसपास के लम्पक, नगरहार, गांधार और बन्नू जैसे 10 राज्यों पर आधिपत्य है। कपिशा शाही राजवंश की दूसरी राजधानी था। बहुत सम्पन्न प्रदेश था ( कैम्ब्रिज हिस्ट्री आॅफ इंडिया वॉल्यूम 1,पृ.587 ) पाकिस्तान के निचले चित्राल के क्षेत्र के कलश समुदाय काफिरिस्तान के अन्तिम अवशेष वंशधर है। सहस्राब्दियां निकल गई पर इन्होंने सनातन धर्म को नहीं त्यागा। नमन है ऐसे धर्म धुरन्धरों को। आज तक इन्होंने अपनी भाषा भी नहीं त्यागी है। पाकिस्तान बनने के बाद कई बार इन्हें जबर्दस्ती मुस्लमान बनाया गया किन्तु इस्लामी और सरकारी दबाव हटते ही ये अपने हैन्दव और सैंधव लोक देवताओं को पूजने लगते हैं। दुनिया का यह दुर्लभ हिन्दू समुदाय है। उनका धर्म हिंदू धर्म का एक रूप है जो कई देवताओं और आत्माओं को पहचानता है और प्राचीन हैंदव और यूनानी धर्म से संबंधित है, जो पौराणिक कथाओं के अनुसार कलश समुदाय के पूर्वज हैं।

उनकी आर्य भाषा और संस्कृति को देखते हुए इसकी अधिक संभावना है कि कलश समुदाय का धर्म हिंदू धर्म से बहुत अधिक निकटता से जुड़ा हुआ है। सिकंदर महान और उसकी हिन्दू और यूनानी सेना के लोग यहां बस गए थे, क्योंकि दुनिया के 5 खूबसूरत स्थानों में से यह एक स्थान है। इनकी नृजातीयता हिन्द-यूनानी है। वे यूनानी जिन्होंने हिन्द में आकर हिन्दू धर्म को अपना लिया था, वह कलश समुदाय है। ये चित्राल जिले के खैबर-पख्तूनख्वा के क्षेत्र में आज भी जमे हुए हैं (दी इंडियन एक्सप्रेस, 4 अप्रैल, 2017)। आज के अफगानिस्तान का नूरिस्तान जिला कलश समुदाय का वास स्थान था।
आज तालिबानी ‘टेकओवर’ से वो पुरानी दास्तां याद आ गई। सामाजिक और क्षेत्रीय विखंडन ने पश्चिमोत्तर हिन्दुस्तान को इस्लाम का गढ़ बना दिया।
(लेखक भरतपुर, राजस्थान में इतिहास के सह आचार्य और इतिहास संकलन समिति के संगठन सचिव हैं)

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