अमृतसर के अंग्रेजपरस्त परिवार में जन्मे मदनलाल धींगरा जब इंजीनियरिंग पढ़ने लंदन पहुंचे तो सावरकर के एक भाषण से प्रभावित होकर उन्होंने देश की स्वतंत्रता के लिए बलिवेदी पर चढ़ने का मन बना लिया। अंग्रेज अफसर कर्जन वायली की नीतियां क्रांतिकारियों का दमन कर रही थीं। धींगरा ने भरी सभा में कर्जन वायली पर दमनादन 5 गोलियां चला उसका काम तमाम कर दिया। 17 अगस्त, 1909 को अंग्रेज सरकार ने धींगरा को फांसी दे दी।
डॉ. अरविंद कुमार शुक्ल
एक नौजवान 1906 में इंजीनियरिंग की शिक्षा के लिए भारत से इंग्लैंड जाता है और धनाढ्य परिवार से ताल्लुक रखने के बावजूद यह नौजवान निश्चय करता है कि वह अपने श्रम से उपार्जित धन के द्वारा अपनी पढ़ाई पूरी करेगा। परंतु यह नौजवान अपने अध्ययन के मार्ग से विचलित हो जाता है। यह विचलन मामूली विचलन नहीं था यह एक पवित्र और महाविचलन था। यह नौजवान अपने बालों को बड़ा करीने से संवारता था, वस्त्रों पर इत्र लगाना इसकी दिनचर्या का हिस्सा था और सड़कों पर मस्ती भरे अंदाज में घूमना इस नौजवान को खूब पसंद था। इसके अंदाज को देखकर कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था कि यह नौजवान देशभक्ति के महापथ का पथिक बनेगा, मां भारती के चरणों में सर्वस्व समर्पण कर देगा और भारत के घर-घर में इस नौजवान की चर्चा होगी तथा आने वाली पीढ़ियां इस नौजवान को अपना पूज्य बनाएंगी।
सावरकर ने बदल दी जिंदगी
सड़कों पर मस्ती से घूमने वाले मेधावी छात्र मदन लाल धींगरा को देशभक्त धींगरा बनाने के लिए लंदन का इंडिया हाउस को श्रेय जाता है। मदनलाल एक दिन घूमते-घूमते इंडिया हाउस पहुंचते हैं और संयोग ऐसा कि उस दिन इंडिया हाउस में विनायक दामोदर सावरकर का भाषण चल रहा था। उस भाषण के बाद मदनलाल का हाल वही हो गया जो तिलक का लेख "शिवाजी ने अफजल खान का वध क्यों किया" पढ़कर चाफेकर बंधुओं का हो गया था। हृदय में देश भक्ति भावनाएं उबाल लेने लगीं और मस्तिष्क इन भावनाओं के क्रियान्वयन की योजना बनाने लगा। इस इस भावनापूर्ण ह्रदय और क्रियाशील मस्तिष्क से टकराना आग को छूना था। वर्ष 1908 में सावरकर जी 1857 की स्मृति में निश्चय करते हैं कि भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम उल्लास ही नहीं, बल्कि उत्साह के संचार का पर्व बना दिया जाए।
देशभक्ति के महान संचारक सावरकर के विचारों से अभिभूत होकर भारत पर शासन करने वाली ब्रितानी हुकूमत की राजधानी की सड़कों पर भारतीय नौजवानों का हुजूम निकल पड़ता है। सबके हृदय स्थल पर प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के स्मृति का बिल्ला लटक रहा होता है, मदनलाल के आकर्षक व्यक्तित्व से मिलकर यह बिल्ला और दीप्त हो रहा था और इस दीप्ति को उनका एक अंग्रेज मित्र बर्दाश्त नहीं कर पाता है। उसके हाथ बिल्ले की ओर बढ़े ही थे कि मदनलाल के एक झटके से वह जमीन पर चित्त पड़ा चाकू की नोक पर था। भारत माता की जय बोलकर उसे जीवनदान प्राप्त होता है। वही इंडिया हाउस जो प्रेरणा का प्रांगण बना था, आज परीक्षा का प्रस्ताव लेकर आया था। एक हाथ मेज पर टिका होता है और एक तकुआ उस हाथ की हथेली को आर-पार कर देता है लेकिन चेहरे पर शिकन तक नहीं।
मदनलाल धींगरा का जन्म 1883 में अमृतसर के एक अंग्रेजपरस्त परिवार के डॉक्टर साहिब दत्त के पुत्र के रूप में हुआ था। इसलिए इस परिवार का कोई लाल मां भारती के लाल के रूप में जगत विख्यात होगा, अपेक्षा नहीं की जाती थी। किंतु विधाता की लीला अपरंपार है। इसी डॉक्टर दत्त के मित्र भारत सचिव एडीसी सर विलियम कर्जन वायली की नीतियां भारत के क्रांतिकारियों का दमन कर रही थीं। पितृभक्ति पर राष्ट्रभक्ति भारी पड़ने वाली थी और भयंकर रूप से भारी पड़ने वाली थी।
5 गोलियां और गिर पड़ा वायली
विनायक दामोदर सावरकर के समक्ष एक प्रश्न आता है कि क्या बलिवेदी तैयार है, सावरकर जी कहते हैं कि भारत माता और समय दोनों त्याग का आह्वान कर रहे और इसके प्रत्युत्तर का गवाह बनता है लंदन के इंपीरियल इंस्टीट्यूट का जहांगीर हॉल। यहां चमक-दमक अपने उत्कर्ष पर था, अंग्रेज और भारतीयों से हाल खचाखच भरा हुआ था। पिता के मित्र वायली से मदनलाल धींगरा की आंखें मिलती हैं, वायली उत्सुकता का इजहार करता है किंतु नियति ने उसके लिए न्याय का दिन तय कर दिया था। मदनलाल धींगरा के रिवाल्वर से दनादन 5 गोलियां निकलती हैं और ब्रितानी हुकूमत का सबसे प्रिय पात्र वायली जमीन पर गिर पड़ता है। मदन लाल धींगरा को पकड़ने के लिए कई एक बढ़ते हैं, उनमें से एक रिवाल्वर की अंतिम गोली का शिकार हो जाता है। गोलियां खत्म, तमंचा खाली किंतु अनेक मदनलाल धींगरा के तमाचे का शिकार होकर जमीन पर लोट जाते हैं। इस नौजवान में कोई अफरा-तफरी नहीं, कोई भय नहीं। पुलिस आगे बढ़ती है तो कहता है, मेरा कार्य पूर्ण हुआ अब तुम अपना काम करो। पूरा लंदन इस घटना से कांप उठता है।
इसी घटना को लेकर एक निंदा सभा कुछ अंग्रेजपरस्तों द्वारा आयोजित की जाती है, और मदन लाल धींगरा के कार्य की निंदा में प्रस्ताव पढ़ा जाता है कि सर्वसम्मति से यह सभा मदनलाल धींगरा के कार्यों की निंदा करती है। तभी एक कड़कती हुई आवाज निकलती है, सर्वसम्मति से नहीं। यह वीर सावरकर की आवाज थी और सावरकर पर अंग्रेजपरस्त हमलावर होते हैं किंतु एक भारतीय उन्हें भारतीय कोड़े का रसास्वादन करा देता है और प्रस्ताव पारित नहीं हो पाता है।
फांसी की सजा और पत्र
25 जुलाई 1909 को विक्रस्टन जेल में बंद मदनलाल को फांसी की सजा सुना दी जाती है। 17 अगस्त 1909 को फांसी का दिन नियत किया जाता है, और इसी बीच सावरकर जी के अदम्य साहस और प्रयास से वह पत्र अखबार में प्रकाशित होता है जिसे मदन लाल धींगरा ने कर्जन वायली को मारने से पहले लिखकर अपनी जेब में रखा था और अंग्रेज सरकार ने वह पत्र छिपा लिया था। मदन लाल धींगरा जेल में अपने लिखे वक्तव्य को पढ़ते हैं "मैं एक हिंदू हूं, मेरे राष्ट्र का अपमान मेरे देवता का अपमान है। मातृभूमि की सेवा मेरे लिए श्रीराम और श्रीकृष्ण की सेवा है। मैं बार-बार एक भारतीय के रूप में जन्म लेना चाहता हूं और भारत की स्वतंत्रता के लिए बलिवेदी पर चढ़ना चाहता हूं। ईश्वर मेरी इच्छा पूर्ण करें। वंदे मातरम!
17 अगस्त 1909 मां भारती का यह अमर सपूत फांसी के तख्ते से यह संदेश देता है हम रहें या ना रहें, क्रांति की ज्वाला आजादी तक निरंतर जलती रहनी चाहिए।
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