कटारपुर गांव में बना शहीद स्मारक
18 सितंबर, 1918 को कटारपुर (हरिद्वार) और उसके आसपास के गांवों के सैकड़ों हिंदू नवयुवक गोमाता और मातृभूमि की रक्षा के लिए खुद को मिटाने के लिए निकल पड़े थे। इनमें से 135 को कालेपानी की सजा और चार को फांसी की सजा दी गई थी
अरुण कुमार सिंह
हरिद्वार से लगभग 10 किलोमीटर दूर लक्सर मार्ग पर कटारपुर नामक एक गांव है। यहां हर वर्ष 8 फरवरी को गोभक्त स्वतंत्रता सेनानियों की याद में एक विशेष आयोजन होता है। इस दिन सभी लोग कटारपुर गांव के शहीद स्मारक पर अपने पुरखों की याद में शीश नवाते हैं और वहीं बगल में स्थित इमली के पेड़ की पूजा करते हैं।
उल्लेखनीय है कि 8 फरवरी,1920 को इस इलाके के चार गोभक्त स्वतंत्रता सेनानियों को अंग्रेजों ने फांसी पर चढ़ा दिया था। यही कारण है कि कटारपुर के अलावा कनखल, ज्वालापुर, राणीमाजरा, फेरुपुर, चांदपुर, जियपोता, धनुपरा, बहादुरपुर, रामकुंडी, खेलड़ी, मिश्रपुर, अजीतपुर, रोहालकी, भोगपुर, घीसूपुरा, जगजीतपुर, शाहपुर, मीरपुर, सराय, बिशनुपर, पंजनहेड़ी आदि गांवों और हरिद्वार के लोग भी 8 फरवरी को एक महोत्सव के रूप में मनाते हैं।
कटारपुर में ‘कटारपुर गोतीर्थ विकास समिति’ के तत्वावधान में हर वर्ष कार्यक्रम का आयोजन होता है। समिति के अध्यक्ष डॉ. श्याम सिंह आर्य ने बताया, ‘‘17 सितंबर, 1918 को गांव के मुसलमानों ने ईदुल्ल जुहा पर सार्वजनिक गोहत्या की घोषणा की। उस क्षेत्र में कभी ऐसा हुआ नहीं था। अत: हिंदुओं ने ज्वालापुर थाने में शिकायत की, पर उनकी सुनी नहीं गई। दरअसल, वहां के थानेदार मसीउल्लाह तथा अंग्रेज प्रशासन की शह पर ही यह हो रहा था। लेकिन हरिद्वार के थानेदार शिवदयाल सिंह ने हिंदुओं को पूरा सहयोग देने का वचन दिया। इसके बाद हिंदुओं ने कहा कि वे किसी भी सूरत में गोहत्या नहीं होने देंगे।
इस विरोध के कारण उस दिन तो कुछ नहीं हुआ, लेकिन अगले दिन मुसलमानों ने पांच गायों का जुलूस निकालकर उन्हें इमली के पेड़ से बांध दिया। वे भड़कीले नारे भी लगा रहे थे। महंत रामपुरी जी के नेतृत्व में आसपास के अनेक गांवों के हिंदू युवकों ने धावा बोलकर सभी गायें छुड़ा लीं। इस संघर्ष में लगभग 30 मुसलमान मारे गए। कई हिंदू भी बुरी तरह घायल हुए। महंत रामपुरी जी का भी बलिदान हुआ। इसके बाद पुलिस ने 176 हिंदुओं को पकड़ लिया।’’ उन्होंने यह भी बताया, ‘‘पुलिस के आतंक से डरकर हिंदुओं ने गांव छोड़ दिया। अगले आठ वर्ष तक कटारपुर के खेतों में बुआई नहीं हुई। भाई कहीं, बहन कहीं। इसलिए रक्षाबंधन पर्व मनाना छोड़ दिया। अब कुछ परिवार रक्षाबंधन मनाने लगे हैं, लेकिन ज्यादातर परिवार अभी भी यह पर्व नहीं मनाते।’’
डॉ. आर्य के अनुसार, ‘‘लगभग एक साल तक मुकदमा चला और 8 अगस्त, 1919 को 135 लोगों को कालेपानी की सजा देकर अंदमान भेज दिया गया। आठ लोगों को फांसी की सजा सुनाई गई, लेकिन इनमें से चार को माफी देकर 10 वर्ष की सजा दी गई और दो लोगों को सात वर्ष की सजा सुनाई गई। शेष को बरी कर दिया गया।’’ जिन लोगों को फांसी की सजा दी गई, वे थे- 45 वर्षीय महंत ब्रह्मदास जी महाराज, 60 वर्षीय चौधरी जानकी दास, 32 वर्षीय डॉ. पूर्ण प्रसाद और 22 वर्षीय मुक्खा सिंह चौहान। इन चारों को 8 फरवरी, 1920 को फांसी पर लटका दिया गया। महंत ब्रह्मदास जी महाराज और चौधरी जानकी दास को प्रयाग, डॉ. पूर्ण प्रसाद को लखनऊ और मुक्खा सिंह चौहान को बनारस में फांसी दी गई।
चारों वीर ‘गोमाता की जय’ कहकर फांसी पर झूल गए। इस घटना से मातृभूमि और गोमाता के प्रति हिंदुओं में भारी जागृति आई। महान गोभक्त लाला हरदेव सहाय ने प्रतिवर्ष आठ फरवरी को कटारपुर में ‘गोभक्त बलिदान दिवस’ मनाने की प्रथा शुरू की। शहीद मुक्खा सिंह के पड़पोते सचिन चौहान ने बताया, ‘‘आजादी के बाद लाहौर से मीठाराम बाली इस गांव में आए। वे मुकदमे से जुड़े कागजातों को गांव तक लाए और ग्रामीणों को शहीद स्मारक बनाने के लिए प्रेरित किया। 1959 में उन्होंने ही स्मारक की नींव रखी और तभी से हर वर्ष यहां बलिदानियों की स्मृति में कार्यक्रम होते हैं।’’
इतना ही नहीं, गांव से बाहर रहने वाले ग्रामीण और गांव की बहू-बेटियां भी इस दिन यहां सपरिवार पहुंचती हैं। ऐसी ही एक बहू हैं रानी चौहान, जो दिल्ली में रहती हैं। वे शहीद राम सिंह के परिवार की बहू हैं। वे कहती हैं, ‘‘इस कार्यक्रम का इंतजार तो पूरे साल रहता है। दस काम छोड़कर भी यहां आने का मन करता है। सौभाग्य है कि मेरा विवाह एक बलिदानी परिवार में हुआ है।’’
ऐसी ही भावनाओं के कारण कटारपुर का शहीद स्मारक आज किसी मंदिर से कम पवित्र नहीं है। इस मंदिर के देवता हैं, वे स्वतंत्रता सेनानी और गोभक्त, जिन्होंने अपनी मातृभूमि और संस्कृति की रक्षा के लिए अपने सिर तक कटवा दिए।
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