अटल जी अपनी सोच से कभी नहीं डिगे और बेझिझक उन्होंने अपनी बातों को रखा। उन्होंने परिणामों की अधिक चिंता कभी नहीं की
अटल जी के बारे में बहुत कुछ लिखा जा चुका है, लिखा भी जा रहा है मगर जो सबसे महत्वपूर्ण बात उन्हें औरों से अलग करती है वह यह है कि एक इंसान 11 वर्ष से अस्वस्थ रहा, राजनीति में सक्रिय नहीं, न वह कोई ब्लॉग लिख रहे थे, न सोशल मीडिया-फेसबुक-ट्विटर पर सक्रिय था और फिर भी उसकी लोकप्रियता लगातार चरम सीमा पर है, और वह उस युवा पीढ़ी में भी बेहद लोकप्रिय है जिसने उनको प्रत्यक्ष देखा या सुना तक नहीं।
वे प्रधानमंत्री पद से हटने के बाद लगभग 2004 से ही नेपथ्य में थे। पर उनका करिश्मा देखिए, पूरा भारत उनके स्वागत में पलक पांवड़े बिछाए था। प्रधानमंत्री समेत लाखों लोग उन्हें अंतिम विदाई देने के लिये पैदल नहीं चल रहे थे बल्कि मानों उनके दिखाये हुए रास्ते पर चल रहे थे।
इस व्यक्ति ने वैसे ही पूरी दुनिया से अपना लोहा मनवाया जैसे गांधी ने अहिंसा के रास्ते देश को आजादी दिलवाई और अंग्रेजों को झुकने पर मजबूर कर दिया। उसने अपने विरोधियों को पराजित भी किया मगर उनका दिल भी टूटने नहीं दिया। कारण उन्होंने कभी किसी पर व्यक्तिगत हमले नहीं किए। उन्हें जब भी कुछ बात चुभी तो उन्होंने उसका माकूल जवाब भी दिया। अपनी भावनाओं को कभी छुपाया नहीं। उनमें धैर्य था। वे नियति पर विश्वास रखते थे। कोई भी बात बोलने से पहले और कोई भी कदम उठाने से पहले वे दस बार सोचते थे। व्यर्थ की बातों में उलझते नहीं थे। इसके कितने ही उदाहरण हैं मेरे पास। इन उदाहरणों में मुझे याद आता है कि एक बार प्रधानमंत्री अटलजी को अपने किसी एक सरकारी कार्यक्रम में जाना था। कार्यक्रम में जाने और जजों के कोर्ट में जाने का वही समय और रास्ता था।
उन्होंने तत्काल कहा, पहले जजों को जाने दें, हम अपना समय बदल लेंगे। इसी प्रकार एक बार छत्तीसगढ़ के तत्कालीन मुख्यमंत्री अजीत जोगी विधायकों के साथ बिना समय लिये प्रधानमंत्री से मिलने की जिद करने लगे। प्रधानमंत्री कार्यालय में मंत्री होने के नाते हम लोग कह रहे थे कि उनको नहीं मिलना चाहिए। परन्तु उन्होंने कहा, आने दो। तीसरा उदाहरण है जब जून, 2002 में 'टाईम मैगजीन' उनके स्वास्थ्य को लेकर अशोभनीय टिप्पणी की तब हम सब गुस्सा थे, पर उन्होंने संयम रखा। जब पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति मुशर्रफ ने जुलाई 2001 में भारत में एक संवाददाता सम्मेलन में भारत के लिए उल्टा-सीधा कहा तब अटलजी पर दवाब था कि वह मुंहतोड़ जवाब दें परन्तु उन्होंने कोई जल्दबाजी नहीं दिखाई। राजनीति से हटकर अलग कार्यक्रमों में उन्हें आनंद आता था पर वे कार्यक्रमों में आने के लिए पहले ना-ना जरूर करते थे। मैं भी उनके स्वभाव से परिचित था इसलिए कई बार जिद कर लेता था और वे आते थे। उन्होंने मेरे आग्रह पर कई नाटक देखे। पुरानी फिल्मों में 'बंदिनी', 'तीसरी कसम' उन्हें बहुत पसंद थी। एक बार आडवाणी जी को एक फिल्म के लिए आना था पर वे नहीं आ पा रहे थे। हमने अटलजी को निमंत्रित किया, वे तुरन्त राजी हो गये।
राजनीति ने उनके ठहाके छीन लिए। 72 साल की उम्र में प्रधानमंत्री के पद तक पहुंचने के लिए उन्होंने कभी किसी शॉर्ट-कट की नहीं सोची। उनका तो एक ही लक्ष्य था कि देश को कैसे उन्नति पर ले जाना है। देश के लिए उनके मन में बहुत सपने थे। कम उम्र और अच्छा स्वास्थ्य उनके बहुत से और सपनों को पूरा कर सकता था।
अपनी सोच से वह कभी नहीं डिगे और बेझिझक उन्होंने अपनी बातों को रखा भी। उन्होंने परिणामों की अधिक चिंता नहीं की। जब 1984 के दंगों में सिखों का कत्लेआम हुआ तब वह सबसे पहले आवाज उठाने वाले थे। यहां तक कि वे अपने निवास रायसीना रोड़ के बाहर टैक्सी स्टैंड पर रहने वाले सिखों को बचाने के लिए स्वयं बाहर निकले। अयोध्या में विवादित ढांचे को गिराए जाने पर उन्होंने उसे दुर्भाग्यपूर्ण कहा। ऐसे कई उदाहरण हैं।
मैंने देखा कि उन जैसी परिपक्वता अक्सर कम नेताओं में होती है। संसद पर 2001 में जब हमला हुआ तब वे ईश्वर कृपा से घर से संसद के लिए निकल ही रहे थे। मैं संसद में था। मैंने उनको तुरंत खबर दी। बाद में मैं जब घर गया तो मैंने कहा कि मैंने तो सोचा था कि 'आप तुरंत कोई वार-ग्रुप की मीटिंग बुलाएंगे।' उन्होंने कहा 'अगर मैं सबकी बैठक बुलाता तो जिन लोगों को ऐक्शन करना था वे अपना काम कैसे करते।' पर वे सारे घटनाक्रम पर नजर रखे हुए थे।
वे स्पष्टता और आलोचना को बुरा नहीं समझते थे। कम से कम मैंने तो कभी नहीं देखा। जब वे नए-नए प्रधानमंत्री बने तो सालभर बाद उन्होंने मुझसे पूछा कि 'लोग क्या कह रहे हैं, सरकार कैसे चल रही है।' डरते-डरते मैंने कहा ''लोग कह रहे हैं कि सरकार चल ही कहां रही है।'' इस पर उन्होंने जोर का ठहाका मारा। उनको मालूम था कि सरकार की नीतियों के परिणाम एकदम से नहीं आते।
मन से तो वे कवि थे। कविताओं में डूबना चाहते थे। कविता उनकी कमजोरी थी, किसी के आग्रह पर भी कविता सुना देते थे।
आपातकाल में, मैं और मेरे पिताजी चरतीलाल गोयल जी दोनों जेल में थे।
प्रधानमंत्री कार्यालय में मंत्री होने के नाते अक्सर मुझे उनके साथ विशेष विमान से यात्रा में साथ जाने का मौका मिलता था। उस सफर का भी बहुत आनंद था क्योंकि वे अक्सर हास्य-विनोद करते थे। अक्सर लोग पूछते हैं 'वाजपेयी की विरासत को कौन संभालेगा।' मेरा जवाब होता है 'संभालेगा नहीं, संभाल रहा है। और वह हैं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी।' अटल बिहारी वाजपेयी मन, कर्म और वचन से राष्ट्र के प्रति पूर्णत: समर्पित नेता थे। हर दल में उनके प्रशंसक हैं। विरोधी भी उनकी प्रतिभा के कायल थे। ओजस्वी वक्ता, साहित्यकार, कवि, कुशल प्रशासक व जननायक अटलजी के गुणों की चर्चा उनके उठाए गए हर कदम से होती है।
(लेखक भाजपा के वरिष्ठ नेता एवं पूर्व केंद्रीय मंत्री हैं। लेख पाञ्चजन्य आर्काइव से है।)
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