शक्ति सिन्हा
अटलजी एक कट्टर देशभक्त थे जिनका स्पष्ट मत था कि सदियों से चली आ रही वंचना और अपमान की स्थिति को उलटाते हुए भारत को पुन: विश्व के अग्रणी देशों में गिना जाना चाहिए। यह चीज उनके बिल्कुल शुरुआती लेखन और भाषणों से ही देखी जा सकती है।
मार्च, 1998 में जब अटलजी लोकसभा में बहुमत के समर्थन के साथ सरकार का नेतृत्व करते हुए प्रधानमंत्री बने, तो क्लिंटन प्रशासन की रुचि यह जानने में थी कि क्या वह ''बम बनाने की दिशा में'' बढ़ेंगे। इसी तरह के प्रश्न कहीं और भी पूछे गए थे। आखिर नवम्बर 1995 में नरसिम्हा राव सरकार परमाणु परीक्षण करने के लिए पूरी तैयारी कर चुकी थी, लेकिन उन्हें पैर पीछे खींचने पड़े थे। विनय सीतापति की बहुत ही प्रामाणिक नरसिम्हा राव की जीवनी के अनुसार, तत्कालीन अमेरिकी राजदूत पोखरण साइट की उपग्रह से खींची गई तस्वीरें ले कर आए थे, जिनमें परमाणु परीक्षण की तैयारी होती दिखाई गई थी। बाद में राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने नरसिम्हा राव को फोन करके पूछा था कि क्या हो रहा है। उनको जवाब यह दिया गया था कि नियमित रखरखाव किया जा रहा था। भारत को ताड़ लिया गया था, लिहाजा परीक्षण नहीं किए जा सकते थे।
वास्तव में, जब मई 1996 में अटलजी पहली बार प्रधानमंत्री बने थे, तो शीघ्र ही उनका ध्यान भारत की परमाणु क्षमताओं का परीक्षण करने और इसकी घोषणा दुनिया में करने के मुद्दे पर गया था। राव ने उन्हें तैयारी की स्थिति के बारे में जानकारी दी थी। उसके बाद वैज्ञानिकों को बुलाया गया था, लेकिन यह स्पष्ट था कि जितना समय उपलब्ध था, जो कि दो हफ्तों से भी कम था, वह तैयारी पूरी करने की दृष्टि से बहुत कम समय था। यह प्रश्न प्रासंगिक है कि अटलजी भारत के परमाणु शक्तिसंपन्न देश बनने के लिए इतने उत्सुक क्यों थे? और यह कि सभी पश्चिमी विशेषज्ञों ने उनका यह गलत आकलन क्यों किया था, जिनका मत था कि (अटलजी) परमाणु परीक्षण नहीं करेंगे, क्योंकि इसकी संभावित लागत – भारतीय अर्थव्यवस्था पर पश्चिमी प्रतिबंध – देश के लिए लगभग असहनीय होगी?
अटलजी एक कट्टर देशभक्त थे जिनका स्पष्ट मत था कि सदियों से चली आ रही वंचना और अपमान की स्थिति को उलटाते हुए भारत को पुन: विश्व के अग्रणी देशों में गिना जाना चाहिए। यह चीज उनके बिल्कुल शुरुआती लेखन और भाषणों से ही देखी जा सकती है। यह दृढ़ संकल्प कि देश को पुन: अपमान का सामना न करना पड़े, उनके मन-मस्तिष्क पर हावी रहता था। अगर किसी प्रमाण की आवश्यकता हो तो, 1962 का युद्ध और 1964 के चीन के परमाणु परीक्षण प्रमाण थे कि देश को अपनी प्राथमिकताओं पर पुन: ध्यान देने की आवश्यकता थी; एक सैन्य दृष्टि से सशक्त भारत एक ऐसा विचार था, जिसका क्रियान्वयन करने में अब जरा भी देरी नहीं की जा सकती थी।
जब वह विपक्ष में होते थे, तो वह सरकार के कार्यों की सराहना करने वाले पहले व्यक्ति होते थे, भले ही इससे उनकी अपनी पार्टी के लोगों को अटपटा लगता हो। जब वह सत्ता में थे, तो उन्होंने यह सुनिश्चित करने के लिए अपने पूरे प्रयास किए कि भारत की सुरक्षा संरचना भारत के हितों की रक्षा करने में सक्षम हो।
प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने भारत के सुरक्षा ढांचों को बेहतर बनाने के लिए निरंतर काम किया और उसे स्पष्ट दिशा-निर्देश और एक आधुनिक संस्थागत ढांचा देने का प्रयास किया। प्रधानमंत्री के रूप में उनके कार्यकाल से दो विशिष्ट उदाहरण इस बात को अभिरेखित करते हैं। चूंकि राष्ट्रीय सुरक्षा के विभिन्न पहलुओं में कई मंत्रालय और एजेंसियां शामिल हैं, इसलिए भारतीय राजनीतिक नेतृत्व को हमेशा एक ऐसे अंतिम स्रोत व्यक्ति की आवश्यकता महसूस होती रही है, जो राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दों पर प्रधानमंत्री को सलाह दे सकता हो। अल्पकाल तक चली वी.पी. सिंह सरकार ने राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद गठित की थी, लेकिन वह इसे आगे नहीं ले जा सकी। विपक्ष में रहते हुए अटलजी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) के लिए लंबे समय से मांग करते आ रहे थे, लेकिन सत्ता संभालने के बाद इस दिशा में आगे बढ़ने में कुछ समय लगा। वह इस बात को लेकर दुविधा में थे कि क्या प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव को एनएसए होना चाहिए, लेकिन अंतत: इस तर्क से सहमत हो गए और फिर इस दिशा में आगे बढ़े। इसकी आलोचना यह कह कर की गई कि इससे सत्ता का केन्द्रीकरण होता है, लेकिन मेरा अनुमान है कि उन्होंने यह स्वीकार किया था कि शुरूआती दिनों में एनएसए को शीर्ष स्तर से समर्थन की आवश्यकता थी। बाद में, कारगिल युद्ध के दौरान और उसके बाद, शुरूआती आलोचकों में से कई ने सुझाव दिया कि अटलजी की एक ही व्यक्ति को प्रधान सचिव और एनएसए बनाने की व्यवस्था इन परिस्थितियों में सही साबित हुई।
कारगिल युद्ध का संचालन करने के दौरान भी, अटलजी ने राजनीतिक नेतृत्व की ओर से सशस्त्र बलों को स्पष्ट निर्देश देने की आवश्यकता का भी प्रदर्शन किया, सशस्त्र बलों के नेतृत्व को उनकी बात कहने की अनुमति दी, लेकिन अंतत: निर्णय लेने का अधिकार राजनीतिक नेतृत्व के हाथों में रखा।
अटलजी को यह भी अहसास था कि एक शक्तिशाली भारत का अर्थ सिर्फ एक मजबूत सुरक्षा व्यवस्था का नहीं था, बल्कि इसका अर्थ एक समृद्ध भारत भी था जिसमें गरीबी एक बीती बात हो। अटलजी यह स्वीकार करते थे कि अर्थव्यवस्था में सरकार की भूमिका होती है, लेकिन स्वभाव से वह आर्थिक सुधारों में विश्वास करते थे। उदारीकरण में उनका यह विश्वास 1990-91 के आर्थिक संकट के परिणामस्वरूप नहीं था, जिसने कई समाजवादियों को बाजार समर्थकों में परिवर्तित कर दिया था। बल्कि उनका यह विश्वास राज्य और अर्थव्यवस्था की प्रकृति के बारे में भारतीय चिंतन की गहराई से उत्पन्न हुआ था।
वाल्मीकि से लेकर कौटिल्य तक और गांधी से लेकर दीन दयाल उपाध्याय तक भारतीय संतों, दार्शनिकों और लेखकों ने इस आवश्यकता पर बल दिया है कि राजा को न्याय सुनिश्चित करना चाहिए, लेकिन सामाजिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। इस बात का विस्तार अर्थव्यवस्था में करें, तो इसका अर्थ होता है कि निवेश और इसी प्रकार के अन्य पहलुओं पर निर्णय उन लोगों पर छोड़ दिया जाना चाहिए, जो ऐसा करने में सबसे अधिक सक्षम हों। इसका अर्थ यह नहीं था कि गरीबों और वंचित लोगों को उनके हाल पर छोड़ दिया जाए। अर्थव्यवस्था में उनकी भागीदारी विशेष योजनाओं के माध्यम से और उन्हें सशक्त बनाने के माध्यम से सुनिश्चित की जानी थी। लेकिन सरकार को उत्पादनकारी शक्तियों पर एक अवरोध के रूप में कार्य नहीं करना चाहिए। वास्तविक नीति में, उदाहरण के लिए इसका अर्थ था – किसानों के लिए क्रेडिट कार्ड, महिलाओं के लिए स्वयं सहायता समूह, सार्वजनिक क्षेत्र के कारखानों का निजीकरण और राजमार्गों और ग्रामीण सड़कों के निर्माण के लिए एक विशाल कार्ययोजना। अंतिम लक्ष्य एक ऐसा भारत, जो गरीबी से मुक्त हो, एक ऐसा भारत जो एक आर्थिक शक्तिपुंज हो।
विदेशी विश्लेषकों के लिए अटलजी को समझने में कठिनाई होने का जो कारण था – और जिस कारण भारत को समझने में उनकी कठिनाई जारी रही, वह यह था कि उन्होंने अटलजी को उदारवादी के रूप में तो ठीक देखा था, लेकिन वे यह नहीं समझ सके थे कि अटलजी के उदारवाद की जड़ें भारत में, भारत की परंपराओं में और भारत की विश्वास प्रणालियों में समाई हुईं थी। देश सबसे पहले है और हालांकि व्यक्ति के अधिकारों का सम्मान किया जाना चाहिए, लेकिन यदि खुद भारत ही खतरे में होगा, या उस पर ही हमला होगा, तो इन अधिकारों का मूल्य क्या रह जाएगा? देश को सशक्त होना ही होगा ताकि नागरिक अपना सिर ऊंचा रख सकें और दूसरों से डरे बिना या दूसरों को डराए बिना अपने जीवन में सुधार करने के लिए प्रयास कर सकें।
(लेखक अटल जी के प्रधानमंत्रित्व काल में प्रधानमंत्री कार्यालय में कार्यरत थे। लेख पाञ्चजन्य आर्काइव से है।)
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