अजातशत्रु। जननायक। शिखर-पुरुष…कितने ही विशेषणों से संबोधित कर सकते हैं हम भारतीय राजनीतिक-साहित्यिक-सामाजिक जगत की महाविभूति मुदितमना अटल बिहारी वाजपेयी को
हितेश शंकर
एक लंबा संघर्षमय, समाज-हितमय जीवन। भारतीय राजनीति के फलक पर संसदीय मर्यादा के उच्चतम प्रतिमानों को जीने वाले चंद राजनेताओं में से एक अटल जी को सिर्फ एक राजनीतिक व्यक्तित्व के रूप में नहीं देखा जा सकता। कई आयाम समेटे हुए थे वे अपने भीतर। छुटपन से ही मेधा की झलक दिखाने वाले बालक अटल की शिक्षा एक संस्कारित शिक्षक परिवार से शुरू हुई थी। स्वतंत्रता-पूर्व के उस कालखंड में देश को आजाद कराने के आंदोलन में यथाशक्ति आहुति डालने वाले अटल अपनी ओजपूर्ण वाणी के कारण जल्दी ही साथियों में प्रसिद्ध हो गए, आर्य समाज से प्रभावित हो, उसके सक्रिय सदस्य बने और फिर रा. स्व. संघ के वरिष्ठ प्रचारक बाबासाहेब आप्टे के मार्गदर्शन में संघ के स्वयंसेवक ही नहीं बने बल्कि संघ शिक्षा वर्ग में तृतीय वर्ष शिक्षण पूरा करके उत्तर प्रदेश में विस्तारक हुए। कौन जानता था कि इसी उत्तर प्रदेश में उनके भावी विशद जीवन की लीक पड़ने वाली थी। पारखी थे भाऊराव देवरस, जिन्होंने अटल की प्रतिभा को परख कर उन्हें प्रचारक के दायित्व के साथ ही ’राष्ट्रधर्म’ और फिर ‘पाञ्चजन्य’ के संपादन का काम सौंपा। पं. दीनदयाल उपाध्याय जैसे युगद्रष्टा का साथ पाकर एक साहित्यकार, पत्रकार के नाते अटल बिहारी अपनी लेखनी से देश को दिशा दिखाने में जुट गए। भारत की नेहरू राज में दुरावस्था, भ्रष्ट राजनीतियों, विदेश संबंधों पर जहां उनके तीखे आलेखों ने सत्ता को झकझोरा तो वहीं उनके छंदों, कवित्तों, कविताओं ने ओजपूर्ण भाव के साथ युवा पीढ़ी में जोश का संचार किया।
पं. दीनदयाल और डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के सान्निध्य में युवा अटल ने राजनीति के क्षेत्र में कदम रखा और लोकसभा सांसद के रूप में ’62 की लड़ाई में चीन से हारने के बाद लोकसभा में सरकार को श्वेत पत्र रखने को बाध्य कर दिया। भाषण की उनकी शैली और विषय पर पकड़ देखकर नेहरू जी भी यह कहने से अपने को रोक न सके कि वाजपेयी आने वाले कल में प्रधानमंत्री हो सकते हैं।
…और ’77 में इंदिरा राज के ढहने के बाद जनता पार्टी का शासन आने पर वाजपेयी भारत के विदेश मंत्री बनकर सत्ता का हिस्सा तो बने पर वह प्रयोग सफल नहीं रहा, जनता पार्टी से इस्तीफा देकर जनसंघ के सभी नेताओं ने लंबे विचार-विमर्श के बाद राष्ट्रनिष्ठ राजनीति का अभियान जारी रखने का फैसला किया। 1980 में मुम्बई के आजाद मैदान में भारतीय जनता पार्टी के नाम से नए बने दल के संस्थापन में अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी ने मुख्य भूमिका निभाई। जनता पार्टी के कड़वे अनुभव से कार्यकर्ताओं में उपजी निराशा को दूर करने के लिए उस वक्त अटल जी ने जो कविता लिखी, उससे निश्चित जोश का संचार हुआ था-
गीत नया गाता हूं…
टूटे हुए तारों से फूटे बासंती स्वर , पत्थर की छाती में उग आया नव अंकुर, झरे सब पीले पात, कोयल की कूक रात, प्राची में अरुणिमा की रेख देख पाता हूं।
गीत नया गाता हूं…
…टूटे हुए सपनों की सुने कौन सिसकी?
अंतर को चीर व्यथा पलकों पर ठिठकी।
हार नहीं मानूंगा, रार नई ठानूंगा,
काल के कपाल पर लिखता मिटाता हूं।
गीत नया गाता हूं।
वाजपेयी जी ने इस नए दल को सबल बनाया और ऐसी ऊंचाइयों तक पहुंचाया कि सत्ता के केन्द्र में आ पहुंचे। पहले 13 दिन, फिर 13 महीने और उसके बाद 1999 से 2004 तक पहली बार देश के एक गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री के नाते कार्यकाल पूरा कर उन्होंने संसदीय राजनीति में एक नया अध्याय जोड़ा। उन्होंने न केवल बड़ा दिल दिखाते हुए पड़ोसी देशों के साथ संबंधों पर बल दिया बल्कि विकास और विश्वास का एक सिलसिला भी कायम किया। पोखरण विस्फोट से भारत को आण्विक शक्ति संपन्न देश बनाया, अमेरिका के साथ रिश्तों में नए आयाम जोड़े और संयुक्त राष्ट्र में भारत का कद बढ़ाया।
उधर उम्र अपनी रफ्तार से बढ़ते हुए कुछ शारीरिक व्याधियां साथ ले आई और 2006 में उन्होंने सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लिया। पर देशवासियों के दिल में उनके प्रति प्यार पहले जैसा ही बरकरार रहा और…16 अगस्त, 2018 को उनके शरीर त्यागने के बाद राजधानी दिल्ली की सड़कों पर उन्हें श्रद्धाञ्जलि देने उमड़ा जन-सागर मानो तटबंध तोड़कर निरलस बहने को उतावला था!
क्योंकि…अटल बिहारी वाजपेयी सिर्फ एक राजनेता का नाम नहीं है, सिर्फ किसी कवि-हृदय जनसेवक का नाम नहीं है, सिर्फ एक कुशल प्रशासक का नाम नहीं है, सिर्फ संघ के एक तपोनिष्ठ कार्यकर्ता का नाम नहीं है, सिर्फ ग्वालियर के साहित्य परिकर के किसी सदस्य का नाम नहीं है…यह नाम अपने जीवनकाल में ही एक संस्थान बन गई उस विभूति का है…जो अपनी मंद मुस्कराहट से मिलने वाले का दिल जीत लेती थी.
@HiteshShankar
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