इंदुशेखर तत्पुरु
भारत की सीमाएं किसी सम्राट के अश्वमेध, सुल्तान या वायसराय की विजय यात्रा से नहीं बनी हैं। यह मानचित्र बना है इस देश की सभ्यता और संस्कृति से। जब भारत में इस्लाम की आंधी एक दुर्दम्य राजनीतिक सत्ता के रूप में आई,तब इस आंधी के प्रतिरोध का साहस और सामान संतों-भक्तों के साहित्य ने ही जुटाया था और राजनतिक चेतना से ऊपर राष्ट्रीय चेतना की लौ जलाए रखी।
हिंदी के हजार वर्ष के इतिहास में भक्तिकाल को स्वर्ण युग माना जाता है। हिंदी साहित्य के मूर्धन्य आलोचक आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भक्तिकाल का निर्धारण वि. संवत् 1375 से संवत् 1700 तक किया है। इस तरह भक्तिकाल की व्याप्ति तीन शताब्दियों से कुछ अधिक अवधि तक बैठती है। देश-विदेश के अधिकतर विद्वानों ने इस कालखंड को साहित्य सृजन की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ माना है।
हिंदी के ही एक अन्य प्रखर आलोचक डॉं. रामस्वरूप चतुर्वेदी लिखते हैं कि, ‘‘भक्ति काव्य को हिंदी कविता का स्वर्ण युग कहने का सीधा तात्पर्य होता है कि यहां काव्य की रचनात्मक क्षमता अपने श्रेष्ठतम रूप में है। पर इस काव्य का एक अन्य स्तर पर जो वैशिष्ट्य है, उसकी ओर ध्यान प्राय: नहीं जाता। भक्ति काव्य हिंदी समाज की उदारतम चेतना का दस्तावेज है। कबीर, जायसी, सूर, तुलसी, मीरा इस युग के श्रेष्ठ कवि हैं, यह मान्यता सर्वस्वीकृत है। इसका निहितार्थ है कि यहां हिंदू-मुसलमान, ब्राह्मण-दलित, पुरुष-स्त्री व समाज के सभी वर्गों का यह साझा रचना कर्म है।’’
भक्तिकाल पर विचार करते हुए आचार्य शुक्ल ने इसकी जो पृष्ठभूमि बताई है, वह हमें ध्यान से पढ़नी चाहिए। तत्कालीन देश-दशा का वर्णन करते हुए वे लिखते हैं- ‘‘देश में मुसलमानों का राज्य प्रतिष्ठित हो जाने पर हिंदू जनता के हृदय में गौरव, गर्व और उत्साह के लिए वह अवकाश न रह गया। उसके सामने ही उसके देव मंदिर गिराए जाते थे, देवमूर्तियां तोड़ी जाती थीं और पूज्य पुरुषों का अपमान होता था और वे कुछ भी नहीं कर सकते थे। ऐसी दशा में अपनी वीरता के गीत न तो वे गा ही सकते थे और न बिना लज्जित हुए सुन ही सकते थे। आगे चलकर जब मुस्लिम साम्राज्य दूर तक स्थापित हो गया तब परस्पर लड़ने वाले स्वतंत्र राज्य भी नहीं रह गए। इतने भारी राजनीतिक उलटफेर के कारण हिंदू जनसमुदाय पर बहुत दिनों तक उदासी छाई रही। अपने पौरुष से हताश जाति के लिए भगवान की शक्ति और करुणा की ओर ध्यान जाने के अतिरिक्त दूसरा मार्ग ही क्या था।’’
इस्लाम की आंधी का प्रतिरोध
वस्तुत: भारतीय इतिहास का यह वह कालखंड है जब भारत में इस्लाम की आंधी एक दुर्दम्य राजनीतिक सत्ता के रूप में आई और सारे देश को ढक लिया। यह आंधी कितनी जबरदस्त थी, इसका अनुमान हम इस बात से लगा सकते हैं कि जिस-जिस देश में यह आंधी गई, उस देश के अधिकांश भाग का इस्लामीकरण हो गया। किंतु यह कम आश्चर्य की बात नहीं कि भारत की अपराजेय राष्ट्रीय चेतना चट्टान की तरह अडिग रही। भारत, हिंदू भारत ही बना रहा।
दरअसल देश ने इस आंधी के प्रतिरोध का साहस और सामान इन संतों-भक्तों के साहित्य से ही जुटाया था। हजारों वर्षों की सनातन धार्मिक परंपरा का सत्त्व और कबीर, तुलसी, जायसी, सूरदास, रैदास, नानक, मीरा जैसे भक्तों की वाणी नहीं होती तो भारत-राष्ट्र कभी का इस्लामीकरण की चपेट में आकर चपटा हो गया होता। सामने इस्लाम की रक्तस्नात तलवार थी, कन्वर्जन का खुला मैदान था; तो दूसरी ओर स्वामी रामानंद का दिया राम नाम का बीजमंत्र था, सूर के भजन थे, तुलसी की चौपाई थी, कबीर के सबद थे, मीरा का इकतारा था, रैदास की कठौती थी, नानक के पंथ की ढाल थी। भारत का सारा भक्ति साहित्य इस्लामी शक्ति के लगने से मूर्च्छित हुए भारतीय प्राणों के लिए संजीवनी की तरह जीवनदायी सिद्ध हुआ। यह इन सन्त कवियों का ही प्रभाव था कि उसने राजनैतिक या सामाजिक दृष्टि से पददलित समाज की आस्था को डिगने नहीं दिया। भारत की राष्ट्रीय चेतना को बुझने नहीं दिया।
राजनीति से ऊपर राष्ट्रीय चेतना
यहां एक बड़ा प्रश्न खड़ा होता है कि जो कालखण्ड राजनैतिक दृष्टि से भारत के पतन का काल था, वह साहित्य का स्वर्णकाल कैसे हो गया? यह विचित्र विपर्यय कैसे घट गया?
इस प्रश्न का उत्तर हमें इस बात से मिलेगा कि राष्ट्रीय चेतना से हमारा अभिप्राय क्या है? इसे समझना बहुत जरूरी है। यह इसलिए जरूरी है कि अक्सर राजनैतिक चेतना को ही राष्ट्रीय चेतना का पर्याय समझ लिया जाता है। जबकि वह इसका एक आयाम मात्र है। वस्तुत: हम जिसे राष्ट्रीय चेतना कहते हैं वह अपनी समग्रता में राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक आदि अनेकविध चेतनाओं से निर्मित होती है। जब हम यह कहते हैं कि राष्ट्रीयता एक ‘भू-जन-सांस्कृतिक’ इकाई होती है और भारत एक राजनीतिक राष्ट्र नहीं, अपितु सांस्कृतिक राष्ट्र है, तब इसके अंतर को समझना बहुत आवश्यक हो जाता है। अन्यथा हम गलत और भ्रामक निष्कर्षों से नहीं बच सकते।
उदाहरण के लिए स्वतंत्रता आंदोलन के प्रारंभिक दिनों में तिलक के समय जिस तरह राष्ट्रीय चेतना अपनी समग्रता में मिलती है, परवर्ती काल में यह उस तरह नहीं मिलती। उसका राजनीतिक स्वरूप अधिक उभरता गया, सांस्कृतिक चेतना लुप्त होती गई। और स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद तो राष्ट्रीय चेतना के नाम पर राजनैतिक चेतना ही पूरी तरह हावी हो गई। राष्ट्रीयता के सांस्कृतिक पक्ष की घोर उपेक्षा की गई। यह इस सीमा तक हुआ कि राजनीति के लिए सांस्कृतिक उन्मूलन से भी परहेज नहीं किया गया।
अस्तु, भक्तिकाल में, जबकि मुस्लिम आक्रांताओं का राजनैतिक प्रतिकार नहीं हो पा रहा था, देश की राष्ट्रीय चेतना, सांस्कृतिक और धार्मिक आयामों में मुखरित होकर एक अभेद्य रक्षा-कवच प्रदान कर रही थी।
वर्तमान में राष्ट्र के साथ धर्मनिरपेक्षता के अप्राकृतिक और अनैतिक संबंध को थोपकर खुश होने वाले मूढ़मतियों को यह बात समझ में नहीं आती कि उस महाविपत्ति काल में इस धार्मिक चेतना ने ही भारत की रक्षा की थी। हिंदी साहित्य का भक्तिकाल इसी ठोस यथार्थ की पुष्टि करता है।
भक्ति आंदोलन
हिंदी के विद्वानों ने भक्ति काव्य को दो भागों में बांटा है। एक निर्गुण भक्ति, दूसरी सगुण भक्ति। निर्गुण भक्ति की पुन: दो शाखाएं हैं। एक, ज्ञानाश्रयी और दूसरी, प्रेमाश्रयी। इसी तरह सगुण भक्ति भी दो शाखाओं में विभक्त है-एक रामाश्रयी शाखा, दूसरी कृष्णाश्रयी शाखा। इस तरह मोटे तौर पर हम देखते हैं कि भक्ति आंदोलन की चार शाखाएं हैं, एक-ज्ञानाश्रयी, दूसरी-प्रेमाश्रयी, तीसरी-रामाश्रयी, चौथी-कृष्णाश्रयी। और इन शाखाओं के श्रेष्ठतम प्रतिनिधि कवि क्रमश: कबीर, जायसी, तुलसीदास और सूरदास हैं।
उरामानंद त्तर भारत में भक्ति आन्दोलन के पुरोधा थे। उन्होंने भक्ति का यह मार्ग समाज के सभी वर्गों और जातियों के लिए खोल दिया। उनकी प्रसिद्ध उक्ति है, ‘जात-पांत पूछे नहीं कोई। हरि को भजे सो हरि का होई।’
इस उद्घोषणा के प्रभाव में शास्त्रों में बंधा हुआ संकरा मार्ग अब संपूर्ण हिंदू समाज का राजमार्ग बन गया, जिस पर राजा से लेकर रंक तक, साध्वी से लेकर गणिका तक, पंडित से लेकर अछूत तक, कोई भी बेधड़क चल सकता था। उन्होंने अपनी रचनाओं और उपदेशों में संस्कृत के स्थान पर लोकभाषा का प्रयोग कर भक्ति आंदोलन को लोकोन्मुखी बनाया। उनके शिष्यों-प्रशिष्यों ने भी उनकी इसी परंपरा को आगे बढ़ाया। कबीर, रैदास, पीपा, धन्ना, तुलसीदास, दादू दयाल आदि इसी परंपरा के कवि थे। रामानंद के इस लोकधर्मी अध्यात्म ने भक्ति पंथ को एक नई संजीवनी प्रदान की जिसे इन सन्त कवियों ने जन-जन में बांटा।
रामचरितमानस इसी परंपरा में निपजा वह प्रकाश स्तम्भ है जिसने भारत की राष्ट्रीय चेतना को सुदूर विश्व में भी प्रकाशित किया। इंडोनेशिया, बाली, जावा, सुमात्रा, कंबोडिया आदि देशों में आज भी जो भारतीय छाप दिखाई पड़ती है, वह मानस की ही देन है। इन देशों में खेती कराने के लिए जब अंग्रेज भारतीय मजदूरों को जबरन दास बना कर ले गए, तो इस पवित्र जन्मभूमि से बिछड़े उन लोगों के थैले में लोटा, थाली,अंगोछा के अतिरिक्त अगर कुछ था, तो तुलसी बाबा का यह गुटका था। यही उनका इतिहास, यही उनका धर्म और यही उनकी स्मृति थी, जो आज भी अमिट और जीवंत है।
इस्लामी बर्बरता : हरिनाम चेतना
इधर कृष्णाश्रयी चेतना के पुरोधा वल्लभाचार्य थे, जिन्होंने कृष्ण भक्ति के रंग में रंगा जो वातावरण तैयार किया, उसने संकट और अवसाद के दिनों में राष्ट्र की जीवनज्योति को द्युतिमान बनाए रखा।? वल्लभाचार्य का जन्म संवत् 1535 में हुआ था। उस समय संपूर्ण देश में इस्लाम की बर्बरता बढ़ती जा रही थी। मंदिर तोड़े जा रहे थे और हिंदुओं को बलपूर्वक मुसलमान बनाया जा रहा था। पूजा-अर्चना के केंद्र नष्ट हो रहे थे। ऐसे संकटकाल में आचार्य वल्लभ ने पुष्टिमार्ग के माध्यम से समाज को ‘हरि नाम’ के तार से जोड़ा। उनका संदेश था कि यदि पूजा, विधि-विधान, कर्मकांड आदि संपन्न न किए जा सकें तो कहीं भी बैठकर निष्ठापूर्वक हरिनाम का स्मरण करें। ‘हरेर्नाम हरेर्नाम हरेनार्मेव केवलम्।’ आचार्य वल्लभ ने अपने ‘कृष्णाश्रय’ स्तोत्र में देश की दुर्दशा का जो वर्णन किया है, वह एक ऐतिहासिक साक्ष्य है-
‘म्लेच्छाक्रान्तेषु देशेषु पापैकनिलयेषु च ।
सत्पीडाव्यग्रलोकेषु कृष्ण एव गतिर्मम ।।
गंगादितीर्थवयेर्षु दुष्टैरेवावृतेष्विह ।
तिरोहिताधिदैवेषु कृष्ण एव गतिर्मम ।।’
अर्थात्-समस्त देश म्लेच्छों द्वारा आक्रान्त हो गया और पाप का निवास-स्थान बन गया; सत्पुरुष पीड़ित हैं, लोग व्यग्र हो रहे हैं, अब श्रीकृष्ण ही मेरे रक्षक हैं। गंगा जैसे श्रेष्ठ तीर्थों पर दुष्ट लोगों के छा जाने से के वहां के देव-अधिदेव तिरोहित हो गये हैं। अब तो कृष्ण ही मेरे रक्षक हैं।
पुष्टिमार्ग में भक्ति का द्वार स्त्री, पुरुष, द्विज, शूद्र्र सभी के लिए खुला था। आचार्य वल्लभ के शिष्यों में सूरदास, कुंभनदास, परमानंददास, कृष्णदास, नंददास, चतुर्भुजदास, गोविंदस्वामी और छीत स्वामी प्रमुख हैं। इन कवियों को ‘अष्टछाप के कवि’ कहा जाता है। महाकवि सूरदास के पद भारत के गांव-गांव और घर-घर में गाये जाने लगे। इसी परंपरा का एक प्रखर कवि कुंभनदास मुगल दरबार के आमंत्रण को ठुकरा कर कह उठा-
‘संतन को कहा सीकरी सों काम?
आवत जात पनहियां टूटी, बिसरि गयो हरि नाम।।
जिनको मुख देखे दुख उपजत, तिनको करिबे परी सलाम।।
कुभंनदास लाल गिरिधर बिनु, और सबै बेकाम।।’
राजनीति, सत्ता और सिंहासन को ठुकरा देने वाला भक्तिकाल के कवि का यह उत्तर था। इन कृष्णभक्ति मार्ग के महत्व पर आचार्य शुक्ल ने लिखा है कि, (यह) ‘उस समय यह नैराश्य के कारण जनता के हृदय में जीवन के प्रति एक प्रकार की जो अरुचि सी उत्पन्न हो रही थी, उसे हटाने में यह उपयोगी हुआ। मनुष्यता के सौंदर्यपूर्ण और माधुर्यपूर्ण पक्ष को दिखाकर इन कृष्ण उपासक वैष्णव कवियों ने जीवन के प्रति अनुराग जगाया या कम से कम जीने की चाहत बनी
रहने दी।’
राष्ट्रीय चेतना की बात करते समय हमें हिंदी के मनीषी आलोचक डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी की यह बात स्मरण रखनी चाहिए कि भारत राष्ट्र की सीमाएं किसी सम्राट के अश्वमेध, सुल्तान या वायसराय की विजय-यात्रा से नहीं बनी हैं। यह मानचित्र बना है इस देश की सभ्यता और संस्कृति से, जो इतिहास के काल विशेष में पूर्वी द्वीपों में भी फैली, जिन्हें स्नेह का नाम मिला वृहत्तर भारत। सचाई यही है कि सांस्कृतिक यात्राओं और सभ्यता के वृत्तों से भारत का स्वरूप निर्धारित होता है जिसमें वैदिक काल से लेकर भक्ति काल तक के सभी ऋषियों, मुनियों, संतों का योगदान है। ये साधु-संत कवि भी थे और तीर्थयात्री भी। इसलिए जहां एक ओर कविता रची गई, वहीं दूसरी ओर धर्म, संस्कृति और सभ्यता का प्रसार होता गया। अकारण नहीं है कि डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी की दृष्टि में भक्ति काव्य ‘हिंदी समाज की अनेक रूढ़ियों के बावजूद उसकी प्रबल जीवनी शक्ति का गतिशील और उज्ज्वल साक्ष्य’ है और उसकी राष्ट्रीय चेतना का मधुर स्वर है
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(लेखक राजस्थान साहित्य अकादमी के पूर्व अध्यक्ष हैं)
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