संन्यासी, किसान व जनजातीय शौर्य की अकथ कथा

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पूनम नेगी


1857 के प्रथम स्वातंत्र्य समर से 87 वर्ष पूर्व 1770 में संन्यासियों ने अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध सशस्त्र आंदोलन छेड़ा था। विदेसी दासता से मुक्ति के लिए हुए इस आंदोलन के समर्थन में किसान और जनजातियां भी जाग्रत हुईं और इस दौरान अलग-अलग स्थानों पर 235 से अधिक क्रांतियां हुईं, जिन्होंने 1857 के स्वातंत्र्य समर की पूर्वपीठिका रची


15 अगस्त, 1947— भारत का सर्वोच्च राष्ट्रीय पर्व; भारतीय इतिहास की सर्वाधिक महत्वपूर्ण तिथि। प्रत्येक भारतवासी ऋणी है देश को विदेशी दासता के चंगुल से मुक्त कराने के लिए अपना सर्वस्व अर्पित कर देने वाले  क्रांतिवीरों का। इस बिंदु पर अलिखित इतिहास को गहरी नजर से देखने पर हम पाते हैं कि भारत की आध्यात्मिक धरती पर अंग्रेजी दासता के विरुद्ध क्रांति की पहली चिनगारी संन्यासियों ने ही सुलगाई थी। फिर किसानों और वनवासियों ने इसे और हवा दी थी। अंग्रेजों ने इन क्रांतियों को मात्र ‘दंगा’ करार दिया जबकि हमारे वाम इतिहासकारों ने तो अंग्रेजों की जी-हुजूरी करते हुए इन क्रांतियों को ‘षड्यंत्र’ और ‘सभ्यता एवं बर्बरता’ के संघर्ष की संज्ञा दी, जबकि वीर सावरकर ने साफ शब्दों में इसे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कहा।

सावरकर ने लिखा है कि आम जनता में इन क्रांतियों का नेतृत्व सदैव राष्ट्रीयता का प्रतीक और अंग्रेजों से संघर्ष  का प्रेरक बना रहा तथा उसने लोकगीतों, कथा, कहानियों और किस्सों-किंवदंतियों के जरिए राष्ट्रीय चेतना के जागरण के लिए इन संग्राम गाथाओं का भरपूर प्रयोग किया। बंकिमचन्द्र चटर्जी ने ‘आनंद मठ’, अमृतलाल नागर ने ‘गदर के फूल’ और वृंदावन लाल वर्मा ने ‘झांसी की रानी’ लिखकर जैसे क्रांति की कथा ही कह डाली। पिछले 30 साल में इस बाबत हुए ऐतिहासिक अनुसंधानों ने प्रमाणित कर दिया है कि ये क्रांतियां सामान्य नहीं थीं बल्कि उस चेतना की प्रतीक थीं, जो देश के किसानों में अंग्रेजी शासन व शोषण के खिलाफ जाग्रत हुई थीं। इतिहासकार रणजीत गुहा लिखते हैं -‘‘इन आंदोलनों में एक भी बात ऐसी नहीं थी, जो राष्ट्रीय न हो। किसान अपनी चेतना में साफतौर पर यह जानते थे कि वे अपने शोषकों की सत्ता को हटाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।’’ इतिहासकार प्रो. कपिल कुमार की मानें तो 1770 से लेकर 1857 तक पूरे देश में अंग्रेजों के खिलाफ हुर्इं संन्यासियों, किसानों और वनवासियों आदि की लगभग 235 क्रांतियों ने अंग्रेजी हुकूमत की नाक में दम करदिया था।

 
संन्यासी आंदोलन
उपलब्ध साक्ष्यों के अनुसार अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ इन प्रथम विद्रोहों की शुरुआत बंगाल के संन्यासी आन्दोलन (1763-1820) से मानी जाती है। बंकिमचन्द्र चटर्जी का उपन्यास ‘आनंद मठ’ इस आन्दोलन का प्रखर दस्तावेज है। इस उपन्यास के मुताबिक वारेन हेस्टिंग्स के 150 संन्यासियों और हिन्दू जनता के कत्लेआम से क्षुब्ध होकर देशभर का संन्यासी वर्ग जाग्रत हो गया था। आदि शंकराचार्य के दसनामी संप्रदाय ने एकजुट होकर बंगाल में तीर्थयात्रा पर प्रतिबंध व हिन्दुओं पर अत्याचार व कन्वर्जन के विरुद्ध इस आंदोलन की शुरुआत की थी। इन संन्यासियों ने शस्त्र युद्ध का बिगुल बजाकर जन सामान्य में क्रांति के बीज बो दिये थे। राष्ट्र गीत ‘वंदे मातरम्’ 1770 में हुए बंगाल के संन्यासी आंदोलन की ही उपज माना जाता है। उनके बाद आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती ने गुलामी से मुक्ति के लिए समूचे भारत में व्यापक जनजागरण किया। 1857 की क्रांति में उनका महत्वपूर्ण योगदान माना जाता है। लोकमान्य तिलक ने उन्हें ‘स्वराज के प्रथम संदेशवाहक’ की उपाधि दी थी। क्रांतिवीर भगत सिंह और चंद्र्रशेखर आजाद भी स्वामी दयानंद के विचारों से गहराई से प्रेरित थे। इसी तरह परम्परा व आधुनिकता के अदभुत सेतु स्वामी विवेकानंद का मानना था कि भारत में राष्ट्रवाद के पुनरुद्धार के बिना कोई राष्ट्रीय आंदोलन संभव नहीं है, इसी राष्ट्रवाद की चिनगारी उन्होंने भारतीयों में सुलगाई। बंगाल के महान क्रांतिकारी महर्षि अरविंद के आह्वान पर हजारों बंगाली युवकों ने देश की स्वतंत्रता के लिए हंसते-हंसते फांसी के फंदों को चूम लिया था। सशस्त्र क्रांति के पीछे उनकी ही प्रेरणा थी। अरविंद ने कहा था कि चाहे सरकार क्रांतिकारियों को जेल में बंद करे, फांसी दे या यातनाएं दे, हम यह सब सहन करेंगे लेकिन स्वतंत्रता का आंदोलन कभी रुकेगा नहीं। एक दिन अवश्य आएगा, जब अंग्रेजों को हिन्दुस्थान छोड़कर जाना होगा।

किसान आंदोलन
इस संन्यासी क्रांति के समर्थन में किसान, शिल्पी, जमींदार सभी उठ खड़े हुए। 'किसान आंदोलन' के जनक स्वामी सहजानंद सरस्वती (1889-1950) आदि शंकराचार्य संप्रदाय के 'दसनामी संन्यासी' अखाड़े के दंडी संन्यासी ही थे। यूं महात्मा गांधी ने चंपारण के किसानों को अंग्रेजी शोषण से बचाने के लिए आंदोलन छेड़ा था, लेकिन किसानों को अखिल भारतीय स्तर पर संगठित कर तथा इस आंदोलन के माध्यम से भारतमाता को गुलामी से मुक्त कराने का प्रभावी काम स्वामी सहजानंद ने ही किया। अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ इस राष्ट्रव्यापी किसान आंदोलन का ग्रामीण क्षेत्रों व जनजातीय अंचलों पर गहरा प्रभाव पड़ा और देखते ही देखते पूरे देश  में अंग्रेजों की अन्यायपूर्ण नीतियों के खिलाफ आक्रोश सुलग उठा। किसान और जुलाहे, छोटे जमींदार तथा जनजातीय लोग, सभी इस संघर्ष में एकजुट हो गए। फकीर मजनूं शाह से लेकर धीरन नारायण, भवानी पाठक और देवी चौधरानी आदि अनेक किसानों ने इस राष्ट्र युद्ध में अप्रतिम वीरता व देशभक्ति की अनूठी परिभाषा लिखी थी।

जनजातीय आंदोलन
जनजातीय क्षेत्रों में तिलका मांझी ने 1772 में जमीन व फसल पर परम्परागत अधिकार के लिए संघर्ष छेड़ा था। उन्होंने सुल्तानगंज की पहाड़ियों से छापामार युद्ध का नेतृत्व कर अपने तीरों से अंग्रेज सेना के नायक अगस्टीन क्लीवलैंड को घायल कर दिया था जिस कारण 1785 में तिलका को भागलपुर में फांसी दे दी गई थी। इसके बाद 1795-1800 तक तमाड़ क्रांति, 1797 में विष्णु मानकी के नेतृत्व में बुंडू में मुंडा क्रांति, 1798 में चुआड़ क्रांति, 1798-99 में मानभूम में भूमिज क्रांति और 1800 में पलामू में चेरो क्रांति ने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ विद्रोह की अग्नि सुलगा दी थी। झारखंड के विभिन्न जिलों में 1831 में हुई कोल क्रांति ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ संभवत: पहला विराट जनजातीय आंदोलन था। इसके बाद 1828 से 1832 तक बुधू भगत का ‘लरका आन्दोलन’ और 1855 में ‘सिद्धो-कान्हू क्रांति’ हुई।

इन्हीं आंदोलनों के अनुभव की कोख से 1857 का पहला मुक्ति संग्राम और भविष्य के सभी अभियान व आंदोलन जन्मे। 1857 के प्रथम स्वाधीनता समर से पहले ही अंग्रेजी शोषण के विरुद्ध भारतीय जनमानस में संघर्ष की ऐसी प्रखर मानसिकता ने जन्म ले लिया था, जिसे दबाने में अंग्रेजों को पसीना आ गया था।

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