डॉ. क्षिप्रा माथुर
हमारे घर-आंगन-खेतों में पहले से मौजूद हैं मटके, मिट्टी, फसल- बस इन्हीं सबमें छिपा विज्ञान हमारे आने वाले कल के बारे में हमें आश्वस्त करता है। किसानों और कुम्हारों की जुगलबन्दी है, उस समाज में मिट्टी और पानी को दूषित होने से बचाए रखने की आदतें भी समाई हैं। पर बन्धन, भाव को गाढ़ा करना सामाजिक और राजनीतिक नेतृत्व का दायित्व है
पानी को लेकर तमाम फिक्र में ‘तकनीक’ हमें कहीं दूर आरथी-पालथी मारे बैठी दिखती है। जटिलता को बौद्धिक दुनिया के हथियार की तरह इस्तेमाल करना समाज के लिए कभी हितकारी नहीं रहा। विज्ञान-तकनीक के आम जीवन में घुलने-मिलने के रास्ते जब सिकुड़े रहते हैं तो मतान्धता, अन्धविश्वास और भय आसन जमा लेते हैं। अकादमिक संस्थानों के शोध के जमीनी कम, कागजी ज्यादा होने का खामियाजा भी लोक समाज ने ही भुगता है, जिसके पास सदियों की परखी हुई सम्पदा भी थी और कुदरत के पैमानों पर खरी साबित हो चुकी वैज्ञानिकता भी। 2018 में माशेलकर समिति ने पानी की चुनौतियों का समाधान करने वाली कारगर नवाचार तकनीक का दस्तावेज तैयार किया था। अटल टिंकरिंग मैराथन ने छोटे, सरल और सस्ते तकनीकी समाधानों की पहचान की जो पानी को साफ करने और समुदाय की पानी की मुश्किलों को आसान करने में कामयाब रहे। इसमें पानी के ऐसे फिल्टर भी शामिल थे जो बिना बिजली की खपत के बिना छह महीने में करीब 90 किलोलीटर पानी को फिल्टर करने का दावा करते हैं।
लेकिन हमारी परम्पराओं और खांटी हुनर को समृद्ध करने वाले शोध को हम इस तर्क पर आसानी से खारिज कर देते हैं कि यह तो आजमाया हुआ तरीका है, नवाचार नहीं। हमें अपनी जेब पर भारी जादुई और हवाई दावों में समाज आगे बढ़ता महसूस होता है भले ही धरातल की जमीन कितनी ही खिसकती रहे। फिर कितनी ही नीतियां आ जाएं, विकास बोर्ड बन जाएं, शोध में निवेश बढ़ जाए मगर हमारी दुश्वारियां कम नहीं होतीं, न ही उनसे निकलने का कोई रास्ता हमें सूझ पाता है। साफ पानी की जरूरत इतनी बड़ी है कि गांवों में रह रही बड़ी आबादी के लिए स्थानीय और टिकाऊ समाधान की तलाश के कोई संगठित नीतिगत और सामुदायिक प्रयास नजर नहीं आते। इधर शहरों में भी पानी बचाने और उसे साफ करने की समझ और व्यवहार दोनों नदारद हैं। आरओ के छलावे ने शहरी घरों पर कब्जा कर रखा है। जो फिल्टर समुद्र के पानी को छानने और व्यावसायिक उपयोग के लिए बने थे, उन्हें बाजार की भूख ने घर-घर पहुंचा दिया। जो तकनीक सेहत के लिहाज से प्रामाणिक नहीं उसके विकल्प के लिए जुटने के सिवाय हमारे पास अब कोई चारा नहीं है।
नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन और अटल इनोवेशन सेंटर ने मिलकर देश में पानी सम्बन्धी तकनीक की स्थिति का खाका पेश किया है। इस अध्ययन से पता चलता है कि देश के 25 अग्रणी तकनीकी संस्थानों ने पानी के अलग-अलग आयामों पर करीब 22,000 शोध पत्र प्रकाशित किए हैं। इन शोध कार्यों के लिए उन्हें विकसित देशों की मदद भी मिली और सरकारी सहायता भी। ‘वाटर रिलेटेड टेक्नोलॉजी लैण्डस्केप इन इण्डिया’ नामक यह अध्ययन तकनीक से हुई तब्दीलियों को दर्ज करने में नाकाम दिखता है मगर देश के अव्वल संस्थानों के पानी को लेकर हो रहे अकादमिक प्रयासों पर बात करते हुए अपने अन्तिम वक्तव्य में यह खुलासा करता है कि इन सबके बावजूद देश में जल-सुरक्षा का रास्ता नहीं निकला है।
जल चेतन समुदाय और चेतावनी
देश में पानी को लेकर फिक्र पचास के दशक से ही जारी है। 1954 में बने केन्द्रीय जल आयोग से शुरू होकर 2017 में बने ‘डीसेलीनेशन’ के राष्ट्रीय मिशन तक पहुंचकर हमने देखा कि भूगर्भीय जल की स्थिति में बेहतरी के लिए ठोस कदम उठाने अभी बाकी हैं। मनरेगा के काम में जलाशयों की सफाई, नहरों की खुदाई जैसे काम हो रहे हैं लेकिन इसका कोई आकलन हमारे सामने है क्या कि इससे कितने तालाब जी उठे हैं। कितने गांवों ने कितने शहरों का बोझ उठाया है। कितनी नहरों में पानी की आवक है। यदि जवाब नहीं हैं तो उन कामों की ओर देखना होगा जो असल तब्दीलियां कर रहे हैं। छोटे-बड़े सारे काम जिनमें तकनीक और परम्पराएं गुंथी हुई हैं। एक काम राजस्थान के जोधपुर जिले में स्थित आईआईटी संस्थान की टीम का नजर में आया जो प्रयोगशाला से निकलकर कुम्हार के चाक तक पहुंच रहा है। समुदाय की भागीदारी इस काम की सबसे बड़ी खूबी है।
स्वामी विवेकानन्द ने एक मौके पर कहा था कि यदि पढ़ा- लिखा तबका गांवों में निवास करे और विज्ञान की समझ बांटे तो छोटे-मोटे पिछड़े गांव भी अच्छे हो जाएं। तकनीकी और उच्च शिक्षण संस्थानों में समुदाय के बीच काम करने की कई व्यवस्थाएं हैं, जिसका सही इस्तेमाल सिर्फ वहीं संभव है जहां दिल और दिमाग में देश की मिट्टी से लगाव और साझी उन्नति का भाव गहरा है। बात सिर्फ पानी के नीचे पैरने और नदियों के भराव की ही नहीं है बल्कि यह भी है कि जहां पानी इतना बरसता है कि समाए नहीं समाता तो उनका क्या किया जाए। सूखा, बाढ़ और जलवायु के कहर का हम कैसे सामना करें जो हमारे आधुनिक जाग्रत समाज की अहमियत स्थापित करे। और अपने अस्तित्व की लड़ाई में किसका चुनाव करें— विज्ञान या आस्था का? तकनीक या पारम्परिक ज्ञान का? आन्दोलित समाज या फिर सब्र वाली सोच का? विज्ञान के पास ढेरों सवाल हैं सुलझाने को, लेकिन लोक-समाज को साथ लिए बगैर और उसके बीच में उतरे बगैर पानी जैसे मसलों का स्थायी समाधान कोरी कल्पना बना रहेगा। आज शहर नियोजन में नागरिक अपने आपको शामिल न समझें लेकिन गांवों की मूल संरचना ही ऐसी है कि वहां किसान, कुम्हार, लुहार, कारीगर, कलाकार, मोची, सुनार, बढ़ई, रंगसाज, नाई, दर्जी सबके सब अपने मूल स्वरूप में मौजूद हैं। हालांकि इस सामाजिक ढांचे का बिखराव लगातार जारी है क्योंकि अब इन पुश्तैनी कामों में नई पीढ़ी रस नहीं तलाश पा रही। लेकिन जहां भी पीढ़ियों का सहेजा हुआ अनुभव है और युवाओं ने उसे थाम कर नए तौर-तरीकों में ढाल लिया है वहां खुला बाजार भी उसके पीछे भाग रहा है।
घड़े में तकनीक का भराव
इस क्रम में तकनीक के एक प्रयोग ने कुम्हारों के हुनर को मांजने का बीड़ा उठाया जिसे बड़े पैमाने पर फैलाने की जरूरत है। करीब सात राज्यों में समुदाय के बीच जाकर किए जा रहे इस काम की शुरुआत के पीछे सोच यह है कि यदि भारत जैसा समृद्ध देश अपने जमीनी मसलों को सुलझाने में अपनी ऊर्जा नहीं खपाएगा तो बाहर की दुनिया के बाजार उसके दिलो-दिमाग पर हावी होकर उसे अपनी जड़ों से दूर करने में कामयाब हो जाएंगे। धरातल से जुड़ी समस्याओं का समाधान बाहर की दुनिया से नहीं बल्कि हमारे आस-पास से ही निकलना चाहिए। यही टिकाऊ विकास की अवधारणा का मूल है जिस पर दुनिया भर का खूब जु़बानी खर्च होता है। और हमारे यहां समस्या सिर्फ पानी की उपलब्धता की नहीं बल्कि उसे पीने लायक बनाने वाले साफ- सफाई के मानदण्डों की भी है। अध्ययन बताते हैं कि दूर-दराज से पानी ढोकर लाने के मुकाबले बेकार बहने वाले या गन्दले पानी को शुद्ध करना सस्ता सौदा है।
अमेरिका के प्रतिष्ठित एमआईटी संस्थान से देश लौटे डॉ. आनन्द कृष्णन ने आईआईटी में रहते हुए पानी छानने की तकनीक, वैटलैण्ड में पानी के समीकरण और ग्रामीण सिंचाई को कारगर बनाने के लिए बेजोड़ काम किया है। पारम्परिक व्यवस्थाओं की खूबियों की पहचान रखने वाले हर भारतीय की तरह उन्हें भी लगा कि कुछ जटिल समस्याओं का समाधान करने में घड़े को तकनीकी तौर पर परखा और संवारा जा सकता है। यहीं से उनके प्रयोग शुरू हुए और कुम्हारों को अपने कार्य का केन्द्र बनाकर उन्होंने जो काम खड़ा किया है, वह आज सात राज्यों में दस्तक दे चुका है। पिछले दस साल से जारी और शोधार्थियों और विद्यार्थियों की फौज के जरिए मुहैया होने वाले प्रशिक्षण के जरिए घरों में रोजमर्रा काम आने वाले घड़ों की मिट्टी और उसमें बुरादे के मिश्रण के प्रयोगों ने ही सारी कहानी बदल दी। जल-कार्यों का विकेन्द्रीकरण करके स्थानीय फसलों से निकले भूसे या खल को मिट्टी के साथ एकाकार करके एक निश्चित दाब पर पकाए जा रहे ये घड़े पानी की जो गुणवत्ता दे रहे हैं, वह डब्ल्यूएचओ के मानकों पर खरी है।
यह खरापन इस बात में ज्यादा है कि हमारे घर-आंगन-खेतों में पहले से मौजूद मटकों, मिट्टी, फसलों आदि में छिपा विज्ञान हमारे आने वाले कल के बारे में हमें आश्वस्त करता है। बात यह भी खरी है कि जहां किसान और कुम्हार की जुगलबन्दी है, उस समाज में मिट्टी और पानी को दूषित होने से बचाए रखने की आदतें भी समाई हैं। इस बन्धन और भाव को गाढ़ा करना सामाजिक और राजनीतिक नेतृत्व का दायित्व है। कुम्हारों की आजीविका को नए आयाम देकर तकनीक की दुनिया ने सरल और सहज जीवन की मान्यता को फिर से उजागर करने का साहस किया है। अब इसे सराहने भर से काम नहीं चलेगा। विज्ञान-प्रोद्यौगिकी विभाग ने विज्ञान और विरासत को साथ लेकर चलने के लिए श्री परियोजना चालू की है जो थोड़ी आस जगाती है लेकिन इसके नतीजे सालों में नजर आएंगे। इधर यह ध्यान देना भी जरूरी है कि राज्यों में माटी कला बोर्ड नाम की संस्थाएं भी हैं जिनके नामो-निशां तलाशे नहीं मिलते। मिट्टी के रखवाले हमारे जल-जागरण का चाक भी तेजी से घुमा पाएं, इसके लिए व्यवस्थागत प्रक्रियाएं भी अमल में रहें तो बेहतर है। सारे सिरों के मिलने से पानी के काम प्राथमिकता पर होंगे, ऐसी उम्मीद लगाने के लिए व्यवस्थाओं पर काबिज लोगों के मन को बदलने का काम भी साथ-साथ होता दिखना चाहिए। महलों, किलों या हवेलियों में बने तालाबों और कुंडों को बनाने की अभियांत्रिकी हो, समुदाय के साझे ओरण और चारागाहों के बने जल-स्रोत या घरों में पानी को सहेजने के लिए बने टांके, सीढ़ीदार कुएं-बावड़ियां या पानी को दीवारों के बीच भरकर ठण्डा रखने की नायाब भवन-तकनीक, जमीन के नीचे पानी की मौजूदगी को पहचानने वाले अनूठे लोग या फिर घड़ों को इस्तेमाल करके बूंद- बूंद सिंचाई करने की पारम्परिक प्रणालियां। ये तमाम नमूने हमारी प्राचीन जल-विरासत हैं जिन्हें आधुनिक प्रयोगशालाएं चाहें तो फिर से जीवन्त कर सकती हैं।
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