वनवासियों की परम्पराओं में वृक्ष पूजन की बड़ी महत्ता है। ये लोग वृक्षों को "देवता" मानते हैं। वृक्षों की पूजा करते हैं, इन्हें काटना पाप मानते हैं। न सिर्फ तार्किक अपितु वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी वनवासियों की इन वन परम्पराओं की उपयोगिता सिद्ध होती है
विकास की आधुनिक सुविधाओं और शिक्षा के प्रचार प्रसार के अभाव के चलते भले ही वनवासी समाज को पिछड़ा माना जाता हो लेकिन सृष्टि के पंचतत्वों की जैसी समझ और अरण्य संस्कृति के प्रति जो संवेदना वनवासियों में दिखती है, वह अन्यत्र कहीं नहीं। उनके जनजीवन, संस्कृति, परम्पराओं, पर्वों और त्योहारों में पर्यावरण संरक्षण के ऐसे अनूठे तत्व समाहित हैं जो प्रदूषण की मार से छीजती इंसानी सेहत और जहरीली होती कुदरत दोनों को नयी संजीवनी देने की ताकत रखते हैं। वनवासी परम्पराओं में सामूहिक जीवन, सामूहिक उत्तरदायित्व और भावनात्मक संबंध कूट-कूटकर भरे हुए हैं। ये लोग सहज-सरल प्राकृतिक जीवन जीते हैं जो पर्यावरण संरक्षण का सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारक है। वनवासियों की परम्पराओं में वृक्ष पूजन की बड़ी महत्ता है। ये लोग वृक्षों को "देवता" मानते हैं। वृक्षों की पूजा करते हैं, इन्हें काटना पाप मानते हैं। न सिर्फ तार्किक अपितु वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी वनवासियों की इन वन परम्पराओं की उपयोगिता सिद्ध होती है। जरा सोचिए कि हमारी धरती के आदि निवासियों ने यदि वृक्ष वनस्पतियों के संरक्षण की इन परम्पराओं को संजोया न होता तो क्या हम इनके देवोपम गुणों से लाभान्वित हो पाते!
छाल निकालने के पहले वृक्ष की पूजा
मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के बैगा वनवासी देश भर में जड़ी-बूटी व वनौषधियों के सबसे अच्छे जानकार माने जाते हैं। उनके जंगल से जड़ी-बूटी निकालने के तौर तरीकों को जानने के बाद यह अहसास होता है कि जंगल के प्रति उनके मन में कितना आदर व संरक्षण करने की भावना है। बैगा वनवासी जचकी (प्रसव) के दौरान कल्ले की छाल का उपयोग करते हैं। छाल निकालने के पहले वे वृक्ष को न्यौतते हैं, फिर विधि-विधान से उसकी पूजा और प्रार्थना करते हैं। फिर उसके बाद एक बार में कुल्हाड़ी के वार से जितनी छाल निकलती है, उतनी ही दवा के रूप में उपयोग करते हैं। बैगाओं के मुताबिक इस तरीके से छाल कम निकलती है। वे मानते हैं कि अगर बिना किसी नियम के छाल निकालने की छूट मिल जाए तो लोग मनमाने ढंग से छाल निकालने लगेंगे और इससे वन संपदा का नुकसान होगा। यह नियम इसीलिए बनाया गया है। बैगा आदिवासी अलग-अलग बीमारियों में अलग-अलग छाल या जड़ व फूल फल और पत्तों का इस्तेमाल करते हैं किंतु प्रत्येक के इस्तेमाल का तरीका, नियम और विधि अलग-अलग होते हैं। लेकिन यह जरूर है कि किसी वृक्ष वनस्पति के इस्तेमाल से पूर्व ये आदिवासी उन्हें दाल, चावल का न्यौता देना, धूप से पूजा करना तथा वनस्पति देव की प्रार्थना करना नहीं भूलते। धूप से पूजा करने के पीछे बैगाओं की मान्यता यह है कि इससे सूर्यदेव की कृपा से वृक्ष में दवा वाले औषधीय गुण सक्रिय हो जाते हैं। भले की आदिवासी जनजीवन की इन परम्पराओं को आधुनिक समय के सुशिक्षित लोग उनका अंधविश्वास मानें तथा इससे वृक्ष वनस्पतियों के औषधीय गुण प्रभावित होने के तर्क को अस्वीकृत कर दें किन्तु इनके पीछे निहित वनवासियों की पेड़ पौधों के प्रति आत्मीय संवेदना को नकार नहीं सकते।
विकास की मुख्यधारा से कटे होने के बावजूद इन वनवासियों की जीवन दृष्टि सचमुच बेहद उत्कृष्ट है। सच बात है कि जो चीज आसानी से मिल जाती है, उसका जरूरत से ज्यादा दोहन होने लगता है और अंततः उस वस्तु पर विलुप्त होने का खतरा मंडराने लगता है। हम सुशिक्षित व तथाकथित सभ्य लोग आज यही तो कर रहे हैं। लेकिन धरती से जुड़े इन संवेदनशील लोगों का मानना है कि जो जंगल भोजन और दवा देकर हमारी सुरक्षा करता है तो हमारा भी तो फर्ज है कि हम अपनी इस जीवनदायी वनसम्पदा को सुरक्षित रखें। वनवासियों की यही भावना जंगलों के संरक्षण का मुख्य आधार है।
वन्य प्राणियों के प्रति असीम श्रद्धा
आदिवासियों के मन में वन्य प्राणियों के प्रति असीम श्रद्धा होती है। आज दुनिया भर में बाघों के संरक्षण के लिए तमाम प्रोजेक्ट चलाए जा रहे हैं। लेकिन बैगा वनवासियों के में बाघ संरक्षण के प्रति जो भाव है, वैसा कहीं और नहीं दिखता। उनकी मान्यता है कि बाघ जंगल का राजा है, वह इंसानों पर कभी अकारण हमला नहीं करता; अगर बाघ किसी बैगा वनवासी पर हमला कर दे तो माना जाता है कि उस व्यक्ति से कोई बड़ी गलती हुई होगी या या उसने कोई जघन्य पाप किया होगा तभी वनराज ने उसे दंड दिया है। ऐसे व्यक्ति की गलती को पूरा बैगा वनवासी अपने समुदाय की गलती मानकर बाघ देव की पूजा करते हैं। फिर ऐसी गलती न दोहराने का संकल्प लेते हैं।
आदिवासियों का तीर्थ ‘‘सरना’’
छत्तीसगढ़ में सरना के जंगल आदिवासियों का तीर्थ स्थान है, जहां से एक पत्ता भी तोड़ना पाप माना जाता है। इसी तरह मध्य प्रदेश में बैतूल, छिंदवाड़ा जिलों में कोरकू, गोंड आदिवासी "खंडेराज बाबा" की पूजा करते हैं। अपने इस आराध्य के प्रतीक रूप में वनवासी गांव के बीच में लकड़ी के तीन बड़े-बड़े खंभे स्थापित करते हैं। यहां होली के बाद पूजा होती है और मेला लगता है। हर 10-12 साल में इन खंभों की जगह नए खंभे लगाए जाते हैं। इन के खंभों के स्थपित करने के तरीकों में भी जंगल के प्रति आदिवासियों का सम्मान, श्रद्धा और लेन-देन की सोच दिखाई देती है।
आधुनिक समाज की सोच ने आज जीवन को लाभ की वस्तु बना दिया है; लेकिन वनवासियों के लिए जंगल सिर्फ उनकी आजीविका का साधन ही नहीं वरन समग्र जीवनशैली है। उनका अस्तित्व ही नहीं वरन सभ्यता व संस्कृति वनों पर टिकी है। वन संरक्षण में आदिवासियों का दृष्टिकोण व्यापक व महत्वपूर्ण है। यदि हम वन संरक्षण की दिशा में इन वनवासी परम्पराओं का पालन करें तो अधिक सफल हो सकेंगे। वनवासी अपने जरूरत के अनुसार जंगल से जितना लेते हैं, बदले में उसे उतना लौटाने का प्रयत्न भी करते हैं। इनकी इसी भावना और जंगल के प्रति उनके आदर से ही आज वन बचे हुए हैं। जंगल का उपयोग करने में वनवासियों के तरीके और नियम को ध्यान से देखें तो महसूस होगा कि वन संरक्षण में उनकी सोच कितनी टिकाऊ और महत्वपूर्ण है। अगर आने वाली पीढ़ी के लिए हमें जंगल की विरासत रखनी है तो जंगल को लाभ के लिए नहीं, बल्कि जीवन के लिए बचाने की सोच विकसित करनी होगी। अपनी सोच व संस्कृति में बदलाव लाना होगा
वनवासियों की टोटका संस्कृति
जानना दिलचस्प हो कि आदिवासी समाज वृक्ष वनस्पतियों को सुरक्षित व संरक्षित रखने के लिए तरह तरह के टोटकों का उपयोग करते हैं। वनवासियों का इन टोटकों के साथ गहन अनुवांशिक रिश्ता होता है। पशु-पक्षी, वृक्ष-वनस्पतियों व नदी, पहाड़, पत्थर व झील, झरनों से जुड़े से जुड़ी इस टोटका संस्कृति के प्रति आदिवासी समाज घनी श्रद्धा, विश्वास, भक्ति और आदरभाव रखता है। वे मानते हैं कि उनकी आस्था के इन प्रतीकों से जुड़े विभिन्न टोटकों पर यदि कोई विपत्ति आती है तो यह विपत्ति संबंधित जनजाति पर भी विपत्ति आने का संकेत होती है। इन टोटकों से जुड़ा आदिवासियों का अटूट विश्वास वस्तुतः प्रकृति के प्रति उनके सामंजस्यपूर्ण जीवन के प्रति उनके व्यापक सरोकारों की ही अभिव्यक्ति मानी जानी चाहिए। यह मानव और प्रकृति के आपसी सामंजस्य का अतुलनीय उदाहरण है। ऐसा अन्योयाश्रित संबंध सिर्फ वनवासी समाज में ही संभव है। आदिवासियों के मुकाबिक प्रकृति संरक्षण का मूल आधार है जीव-जगत व प्रकृति से गहरा लगाव और प्रेम जो जैविक संतुलन में अहम भूमिका निभाता है। जिस तरह हम जिस पशु को पालते हैं, उससे हमारा लगाव हो जाता है, जिस प्रकार हम अपने द्वारा रोपे गए पौधों को नहीं काटते; उसी तरह प्रकृति व व पर्यावरण को सुरक्षित और संरक्षित रहने का पाठ हमें इन वनवासियों से सीखने की जरूरत है।
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