सोनाली मिश्रा
भारत में वामपंथी और कट्टर इस्लामी महिलाओं का एक वर्ग ऐसा है, जो सोशल मीडिया की आड़ लेकर किसी न किसी तरीके से देश को बांटने में लगा रहता है। ओलंपिक खेल में उन्होंने उत्तर को पूर्व और महिला को पुरुष से लड़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। सोशल मीडिया पर उन्होंने खूब करतब किए पर सफल नहीं हुईं। उल्टे उनकी असलियत खुलकर सामने आ गई
ओलंपिक में नीरज चोपड़ा के स्वर्ण पदक जीतते ही भारत के लिए एक ऐसा गर्व का क्षण आया, जिसकी प्रतीक्षा भारत न जाने कब से कर रहा था। मगर जैसे ही नीरज चोपड़ा ने स्वर्ण जीता, और वह भी भाला फेंकने की प्रतिस्पर्धा में, वैसे ही भारत में फेमिनिस्ट महिलाओं का एक वर्ग पूरी तरह से विरोध में उतर आया। उनकी आपत्तियां कई बातों को लेकर थीं। हालांकि पिछले कई दिनों से जब से मीरा बाई चानू से लेकर महिला हॉकी टीम सेमीफाइनल में पहुंची थी, तब तक वह इन महिलाओं की जीत की छद्म प्रसन्नता मनाती हुई, अपना एक नया ही एजेंडा स्थापित करने में लगी हुई थीं।
मीराबाई चानू और लवलीना बोरगोहेन के पदक जीतते ही यह एजेंडा चलाया जाने लगा था कि दोनों ही पदक पूर्वोत्तर भारत की लड़कियों ने जीते हैं और उनसे उत्तर भारत के परिवारों को सीखे जाने की जरूरत है। उत्तर भारत में अभी भी पितृसत्ता का साम्राज्य है आदि आदि। जब यह लोग उत्तर भारत और पूर्वोत्तर भारत में विभाजन की हर चाल चल रही थीं, तभी भारत की हॉकी टीम जिसमें हर प्रान्त की लड़कियां शामिल थीं, वह भारत के लिए कई रिकॉर्ड की ओर कदम बढ़ा रही थीं।
दरअसल मीराबाई चानू के रजत पदक जीतने के बाद फेमिनिस्ट इस गर्व के क्षण से कोई शर्म का क्षण नहीं निकाल पाई थीं, बल्कि कुछ तो विशेष विचारधारा होने के नाते मीराबाई के नाम से ही जैसे हतप्रभ हो गयी थीं। उन्हें यह समझ नहीं आ रहा था कि एक कहाँ मेवाड़ में जन्मी मीराबाई और कहां पूर्वोत्तर तक इस नाम का सिरा और महत्व गया है। मीराबाई के नाम से कईयों के एजेंडे खंडित हो गए। और फिर दूसरा एजेंडा खंडित हुआ, जैसे ही मीराबाई चानू की हनुमान भक्त होने की ख़बर और तस्वीरें सोशल मीडिया पर प्रसारित होने लगीं। वामपंथी हनुमान जी को स्त्री विरोधी ठहराते हैं और कहते हैं कि यह भेदभाव होता है कि स्त्रियां हनुमान जी की पूजा नहीं कर सकतीं। पर चानू के चलते यह उनका मिथ्या प्रचार टूट रहा था।
उसके बाद पीवी सिन्धु, जिन्हें अपनी हिन्दू पहचान को गर्व से दिखाने में तनिक भी लज्जा नहीं आती है, उनके पदक के साथ भी कोई ऐसा एजेंडा चलाया जा सके, ऐसा हुआ नहीं। हाँ, बॉक्सर लवलीना बोरगोहेन को लेकर भी केवल यही एजेंडा चलाने का कुप्रयास किया जा सका कि एक पूर्वोत्तर से ही दूसरा पदक आया। लवलीना की जीत पर भी उतनी ही बधाई ट्विटर पर दी गयी जितनी कि चानू को दी गयी थीं और देश को वास्तव में प्रसन्नता हुई थी।
वाम फेमिनिज्म का समानता का झूठा एजेंडा
वाम फेमिनिस्ट का सबसे बड़ा एजेंडा स्त्री और पुरुषों में परस्पर फूट डालना और दोनों को दो खेमों में खड़ाकर परस्पर विरोधी बताने तक सीमित रह गया है, जैसा कि द फेमिनिस्ट लाई में बॉब लुईस लिखते हैं कि फेमिनिज्म इन दिनों केवल एक प्रोपेगंडा बनकर रह गया है और फेमिनिज्म पर कोई भी बात गाइनोसेंट्रीज्म अर्थात औरत केन्द्रित हुए बिना नहीं हो सकती है। इसका अर्थ हुआ “औरतों के हितों पर जोर देते हुए या फेमिनिन दृष्टिकोण से ही किसी घटना को देखना।” अर्थात उसमें से पुरुष और समाज के योगदान को पूरी तरह से मिटा देना। और पुरुषों को यह अनुभव कराना कि औरतों का अधिकार कुछ अधिक है या पहले है। जबकि हिन्दू दर्शन में ही मात्र अर्द्धनारीश्वर की अवधारणा है और जहां पश्चिम समानता की बात करता है, हिन्दू दर्शन स्त्री और पुरुष के मध्य परस्पर सम्पूरकता की बात करता है और यह मात्र दाम्पत्य जीवन में ही नहीं है बल्कि जीवन के हर क्षेत्र, हर सम्बन्ध में है।
जैसे जब मीराबाई चानू के पदक जीतने का समाचार आया, तो अचानक से ही स्त्री शक्ति की कहानियाँ उभरने लगीं। स्त्री तो स्वयं में ही शक्ति का नाम है, जो पुरुष के साथ मिलकर एक नई सृष्टि का निर्माण करती है। यहां पर मीराबाई चानू और उनके पुरुष कोच और मीराबाई के परिवार के पुरुषों ने परस्पर सम्पूरकता का सिद्धांत निभाते हुए इस प्रकार एक सभी को पूर्ण किया कि रजत पदक भारत की झोली में आ गिरा।
पश्चिम का वामपंथी फेमिनिज्म केवल मीराबाई चानू को ही देखता है, जबकि भारत का समग्र हिन्दू दर्शन है, वह मीराबाई चानू के साथ कोच, परिवार के श्रम, तपस्या को देखता है। वह पीवी सिन्धु के कोच का भी स्वागत करता है, वह भारत की बेटियों को हॉकी के सेमीफाइनल में पहुंचाने वाले कोच और उन सभी लड़कियों के परिवारों को समग्र रूप में देखता है। जहां वाम फेमिनिज्म misandry अर्थात पुरुषों के प्रति घृणा पर टिका है, वहीं हिन्दू धर्म अपनी स्त्रियों को पुरुषों के बिना और पुरुषों को स्त्री के बिना अपूर्ण मानता है।
यही कारण था कि जब फेमिनिस्ट अपनी विजयी नायिकाओं में किसी भी प्रकार का एजेंडा नहीं खोज पाईं तो अंतत: उन्होंने हॉकी खिलाड़ी रानी रामपाल के घर पर हुई एक व्यक्तिगत झड़प के विवरण में जाए बिना, मात्र मीडिया के खबर के आधार पर जातिगत भेदभाव की हवा बहानी चाही, जो बाद में आपसी झगड़ा निकला।
बेटियां न कहकर व्यक्ति मानें
जब कुछ भी इन फेमिनिस्ट को नहीं मिला तो कल कथित पत्रकार आरफा खानम शेरवानी ने पूरे भारत को शर्मिंदा कराते हुए कहा कि “खिलाड़ियों को बेटियां क्यों कहते हैं, उन्हें किसी रिश्ते से बाँधना पिछड़ेपन से बाँधना है और उन्हें केवल एक व्यक्ति ही रहने दें! आप पुरुष खिलाड़ी को तो बेटा नहीं कहते!”
आरफा का यह कहा जाना हिन्दू दर्शन का पालन करने वालों को निंदनीय लग सकता है। परन्तु वही आरफा खानम जिनके नाम में ही एक अलगाववाद की झलक होती है, और जिनके नाम में ही गुलामी का संकेत मिलता है, वह बेटियां शब्द का अर्थ बताने निकली हैं।
बहरहाल, उन्हें जान लेना चाहिए कि खानम का अर्थ है खान से सम्बन्धित औरतें! जो अपने नाम का प्रमाणपत्र अभी तक बाहरी और गुलाम विचारधारा से लेकर चलती हैं, वह हिन्दुओं में बेटियों का क्या स्थान होता है, समझ ही नहीं सकती हैं। जिस देश में पुत्री सीता का भी राजा जनक अपनी पुत्री से बढ़कर पालन—पोषण करते हैं और पुत्री सीता का विवाह उस समय सृष्टि के सर्वाधिक वीर एवं लोकप्रिय राजकुमार श्री राम से होता है! जिस देश की मिट्टी में बेटियों के लिए प्यार ही प्यार है, उस देश में खानम लगाकर अपनी पहचान बनाने वाली आरफा ही यह कह सकती हैं कि हॉकी में जीतने वाली लड़कियों को बेटियाँ न कहा जाए!
आरफा जैसी एजेंडाधारी महिलाएं दरअसल एक बेहद गुलामी मानसिकता का शिकार हैं, जो भारत में रहने वाले हिन्दू और मुसलमान दोनों से ही खुद को नहीं जोड़ती हैं। बल्कि वह खान जोड़कर खुद को यह दिखाने का प्रयास करती हैं कि वह श्रेष्ठ हैं, जबकि वह श्रेष्ठ नहीं है। वह गुलामी मानसिकता का सबसे बड़ा उदाहरण हैं। जो इस देश में अपनी ही मुस्लिम बेटियों और बहनों के साथ होने वाले अत्याचारों पर आवाज़ नहीं उठाती हैं।
वह कभी आवाज़ नहीं उठाती हैं कि हलाला, तीन तलाक, मुतहा जैसी कुरीतियां उनके मजहब से दूर हों। बहुविवाह बंद हो। अभी हाल ही में अमदाबाद में एक लड़की ने दहेज़ और अपने पति की बेवफाई से आजिज होकर आत्महत्या कर ली थी। यही आरफा जो नागरिकता संशोधन कानूनों को रद्द करने की बात कर रही थीं, वह यह नहीं कह पाईं कि दहेज़ विरोधी अधिनियम के दायरे में मुस्लिमों को भी ले आया जाए!
फिर आज समझ में आता है कि उनके लिए बेटियां नामक तो कोई रिश्ता होता ही नहीं है और आयशा के इस दर्द पर पूरा भारत इसलिए रोया था क्योंकि उस खुश चेहरे में उन्हें अपनी बेटी दिखी थी। पर आरफा को नहीं दिखी। इसलिए उन्होंने मांग नहीं की कि उनके मजहब में दहेज़ लेना बंद किया जाए!
ओलंपिक्स के इन मेडल्स ने एक बार फिर से इन वामी और कट्टर इस्लामी फेमिनिज्म का वास्तविक चेहरा दिखा दिया है।
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