प्रो. भगवती प्रकाश
शासन की प्राचीन वैदिक व शास्त्रोक्त मर्यादाएं आज के ‘रूल आॅफ लॉ’ से भी कहीं अधिक व्यापक कठोर, सुस्थिर व दीर्घकालिक होती थीं। प्राचीन राज्य विधान में विधि के शासन, लोककल्याण, सामाजिक सुरक्षा एवं प्रजा रक्षण के उन्नत सिद्धांत आज के सिद्धांतों से भी अधिक सुपरिभाषित हैं
संविधान की मौलिक संरचना के अपरिवर्तनीय होने पर भी उसमें 124 संशोधन किये गए हैं। लेकिन, प्राचीन ग्रन्थों यथा गौतम स्मृति आदि में शासन मर्यादाओं में संशोधन को निषिद्ध व राजा के अधिकारों से बाहर बतलाया गया है।
गौतम (9/19/25) ने लिखा है कि राजा को निम्नलिखित शास्त्र विधानों के आधार पर नियम बनाने चाहिए-(1) वेद, धर्मशास्त्र, वेदांग (यथा व्याकरण, छन्द आदि), उपवेद, पुराण; (2) देश, जाति एवं कुलों की रीतियां; (3) कृषकों, व्यापारियों, महाजनों (ऋण देने वालों), शिल्पकारों आदि की रूढ़ियां, (4) तर्क शास्त्र एवं (5) तीनों वेदों के पण्डित लोगों की सभा द्वारा निर्णित सम्मतियां, प्रचलित रूढ़ियों, परम्पराओं, रीतियों के प्रमाण के विषय न्याय कार्य में भी लागू होते थे, जो कालान्तर में नियमों के रूप में बंध गये। इनके विधेयन में परिषदों (विद्वत परिषदों) की भूमिका होती थी। (याज्ञवल्क्य- 1/9) एवं शंख ने भी परिषद् (विद्वानों की सभा) को शासन विधान व राजधर्म सहित धर्म निर्धारण में इन्हें प्रमाण माना है।
श्लोक : तस्य च व्यवहारो वेदो धर्मशास्त्राण्यङ्गान्युपवेदा: पुराणम्। देशजातिकुलधर्माश्चाम्नायैर विरुद्धा:
प्रमाणम्। कर्षक वणिक्पशुपालकुसी दिकारव: स्वे स्वे वर्गे। न्यायाधिगमे तर्कोभ्युपाय:। विप्रतिपत्तौ त्रेविद्यवृद्धभ्ये: प्रत्यवहृत्य निष्ठां गमयेत् तथा ह्यस्य नि:श्रेयसं भवति। (गौतम स्मृति 9/19-25)
अशोक के शासन में लागू कई बातें उनके शिला-स्तम्भों पर लिखित हैं। गौतम स्मृति (11/15-17) व याज्ञवल्क्य (1/308) के अनुसार राजा को पुरोहित से प्राप्त निष्पक्ष परामर्श के आधार पर धर्म रक्षार्थ सन्नद्ध रहना चाहिए। पक्षपात रहित रह कर लौकिक व व्यावहारिक कार्य सम्पन्न करने चाहिए। राजा के लौकिक कार्यों में राष्ट्र की सम्पत्ति बढ़ाना, अकाल व अन्य विपत्तियों के समय प्रजा रक्षा करना, न्याय की दृष्टि में सबको समान जानना, चोरों व आक्रमणों से जन एवं धन की रक्षा करना हैं। (पाण्डुरंग वामन 621)। राजा की दृष्टि में सभी पंथों के समान आदर का कलिंग नरेश के ईसा पूर्व हाथी गुम्फा का शिलालेख सर्वपंथ समादर भाव का हिन्दू परम्परा का उत्कृष्ट उदाहरण है।
राजा पर शास्त्र विधानों का नियन्त्रण
आज के संवैधानिक लोकतंत्र से भी अधिक कठोर नियम व नीति विधानों से राजा की प्रतिबद्धता के विधिनिर्देश प्राचीन ग्रन्थों में हैं। राजा को इनमें संशोधन का अधिकार नहीं था। इन नियमों में पौर, जनपद, राज्य की विद्वत सभाएं, समितियां, विष या ग्रामाधिप आदि कर सकते थे। पाण्डुरंग वामन काणे (पृष्ठ 620) के अनुसार राजा पर कुछ ऐसे नियन्त्रणों से वह मनमानी नहीं कर सकता था। नारद संहिता व गौतम स्मृति मन्त्र 9/2 की टीका में हरदत्त एवं मेधातिथि व राजनीति प्रकाश (पृष्ठ 23-24) के अनुसार राजा शास्त्रों के विरोध में नहीं जा सकता था व नियमों को शिथिल नहीं कर सकता था। मेधातिथि (मनुस्मृति 7/13) के अनुसार ‘‘…राजा प्रभवति, स्मृत्यन्तरविरोध प्रसंगात, अविरोधे चस्मिन् विषये वचनस्यार्थवच्वात।’’
शुक्रनीतिसार (1/312-313) के अनुसार राजा को नियमों को स्पष्टत: प्रसारित करना चाहिए। शुक्रनीति (1/292-311) के अनुसार ‘‘चौकीदारों को चाहिए कि वे प्रति चार घटिका (डेढ़ घंटे) पर सड़कों पर घूम-घूमकर चोरों एवं लंपटों को रोकें; दासों, नौकरों, पत्नी, पुत्र या शिष्य को लोग न तो गाली दें और न पीटें; नाप-तौल के बटखरों, सिक्कों, धातुओं, घृत, मधु, दूध, मांस, आटा आदि के विषय में कपटाचरण नहीं होना चाहिए; राज कर्मचारियों द्वारा घूस नहीं ली जानी चाहिए और न उन्हें घूस देनी चाहिए; बलपूर्वक कोई लेख-प्रमाण नहीं लेना चाहिए; दुष्ट चरित्रों, चोरों, छिछोरों, राजद्र्रोहियों एवं शत्रुओं को शरण नहीं देनी चाहिए; माता-पिता, सम्मानयोग्य लोगों, विद्वानों, अच्छे चरित्र वालों का असम्मान नहीं होना चाहिए और न ही उनकी खिल्ली उड़ाई जानी चाहिए; पति-पत्नी, स्वामी-भृत्य, भाई-भाई, गुरु-शिष्य, पिता-पुत्र में कलह के बीज नहीं बोने चाहिए; कूपों, उपवनों, चहारदीवारियों, धर्मशालाओं, मन्दिरों, सड़कों तथा लूले-लंगड़ों के मार्ग में बाधा या नियन्त्रण नहीं खड़ा करना चाहिए, बिना राजाज्ञा के जुआ, आसव-विक्रय, मृगया, अस्त्र-वहन, क्रय-विक्रय (हाथी, घोड़ा, भैंस, दास, अचल सम्पत्ति, सोना, चांदी, रत्न, आसव, विष, औषध आदि के), वैद्यक कार्य आदि-आदि नहीं करने चाहिए।’’ मेघातिथि (मनु 8/399) का कहना है कि अकाल के समय राजा भोजन-सामग्री का निर्यात रोक सकता है।
प्रजा के उत्कर्ष व संरक्षण के विधान
आपस्तम्ब धर्मसूत्र, महाभारत (अनुशासनपर्व 39/10-11), (द्र्रोणपर्व 6/1) वाल्मीकी रामायण (2/100/14) आदि में राज्य, राष्ट्र व प्रजा की समृद्धि के प्रचुर प्रावधान हैं। श्रीराम के उपाध्याय सुधन्वा के अर्थशास्त्र से पुनरावृत्ति करते हुए चाणक्य ने लिखा है कि, राज्य के लिए भूमि व उस भूमि-खण्ड पर प्रजा के सुखपूर्वक विहार की निम्न 4 बातों की पूर्त्ति राजा का सर्वोपरि कर्तव्य है- (क) अलब्ध की प्राप्ति (कक) लब्ध का परिरक्षण, (ककक) रक्षित का विवर्धन या बढ़ोतरी और (कश्) विवर्धित का सुपात्रों में विभाजन।
राजा को अवयस्कों का रक्षक एवं अभिभावक माना जाता था। गौतम (10/48-49) एवं मनु (8/27) के अनुसार लड़का वयस्क न हो जाए या गुरुकुल से लौटकर न आ जाये, तब तक राजा को उसकी सम्पत्ति की रक्षा करनी चाहिए। बौधायन धर्मसूत्र (2/2/43) वशिष्ठ (16/8-9), विष्णुधर्मसूत्र (3/65), शंख-लिखित आदि का भी यही मत है। नारद (ऋणादान, 35) के अनुसार 16 वर्षों तक अवयस्कता रहती है। मनु (8/28-29), विष्णुधर्मसूत्र (3/65) के अनुसार राजा को वन्ध्या, पुत्रहीन और कुलहीन स्त्रियों एवं रोगियों की सुरक्षा का प्रबन्ध करना चाहिए। नारद के अनुसार किसी स्त्री के पति या पिता के कुल में कोई न हो तो राजा को चाहिए कि वह उसकी सुरक्षा का प्रबन्ध करे। कौटिल्य (2-1) के अनुसार ग्राम के गुरुजनों का कर्त्तव्य है कि वे बालों (अवयस्कों) एवं मन्दिरों के धन की वृद्धि का प्रबन्ध करें।
श्लोक: रक्ष्यं बालधनमा व्यवहार प्रापणात्। समावृत्तेर्वा। गौतम स्मृति 10/48-49; रक्षेद्राजा बालानां धनान्यप्राप्तव्यवहाराणां श्रोतियवीरपत्नीनाम्। शंख-लिखित विवादरत्नाकर पृष्ठ 598 । बालधनं राज्ञा श्स्वधनवत्परिपालनीयम्। अन्यथा पितृव्यादिबान्धवा भयेदं रक्षणीयं मयेदं रक्षणीयमिति विवदेरन्। मेधातिथि
(मनु 8/27)।
मेधातिथि ने मनु (8/28) की व्याख्या में कहा है-
य: कश्चिदनाथस्तस्य सर्वस्य धनं राजा यथावत् परिरक्षेत्।
तथा चोदाहरणमात्रं वशादय:।
विनियोगात्मरक्षासु भरणे च स ईश्वर:। परिक्षीण पतिकुले निर्मनुष्ये निराश्रये।। तत्सपिण्डेषु वासत्सु पितृपक्ष: प्रभु: स्त्रिया:। पक्षद्वयावसाने तु राजा भर्ता प्रभु: स्त्रिया:।।
मेघातिथि द्वारा मनु (5/3/28) की व्याख्या।
बालद्र्रव्यं ग्रामवृद्धा वर्धयेयुराव्यवहारप्रापणात्।
देवदव्यं च। कौटिल्य (2/1) ।
राजा यह देखे कि राज्य में उचित मान के नाप-तोल के बटखरे प्रयोग में लाए जाएं। कौटिल्य (2/19) ने नाप-तोल के बटखरों के अध्यक्ष की चर्चा की है। वशिष्ठ (19/13) एवं मनु
(8/240) के अनुसार नाप-तोल के यन्त्रों एवं बटखरों पर राज्य की मुहर लगनी चाहिए, जिनकी प्रति छमाही पर उनकी पुन: जांच होनी चाहिए जिससे गृहस्थों को व्यापारी घोखा न दें। याज्ञवल्क्य (2/240) एवं विष्णुधर्मसूत्र (5/122) ने नाप-तोल के बटखरों, सिक्कों आदि में गड़बड़ी या उन्हें अनधिकृत ढंग से बनाने पर कठिनातिकठिन दण्ड की व्यवस्था दी है। नीतिवाक्यामृत (पृष्ठ 98) ने 11वीं शताब्दी के बटखरों की चर्चा की है।
राजा का एक प्रमुख उत्तरदायित्व चोरों से रक्षा है। कैकेयराज अश्वपति के राज्य में चोर, कृपण या कोई शराबी नहीं था (छान्दोग्योपनिषद् 5/11/5)। आपस्तम्बधर्मसूत्र (2/10/26/
6-8) के अनुसार राजकर्मचारियों पर चोरों से नगर की एक योजन तक व ग्राम सीमा के एक कोस तक सुरक्षा व चोरी की क्षतिपूर्त्ति का दायित्व होता था। इस प्रकार भारत में प्राचीन राज्य विधान आज के ‘रूल आॅफ लॉ’ से विस्तृत, व्यापक व दृढ़मूल रहा है। सहस्राब्दियों पूर्व विधि के शासन और लोक कल्याण, सामाजिक सुरक्षा एवं प्रजा रक्षण के उन्नत सिद्धान्त आज से भी अधिक सुपरिभाषित हैं।
(लेखक गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय, ग्रेटर नोएडा के कुलपति हैं)
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