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शिक्षा यानी संस्कृति से सुसंगता

by WEB DESK
Aug 2, 2021, 11:15 am IST
in दिल्ली
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प्रो. भगवती प्रकाश शर्मा


संस्कृति-हीन शिक्षा के कारण ही आज अनेक प्रकार की समस्याएं खड़ी हो रही हैं। शिक्षा में नवोन्मेष जितना आवश्यक है, उतना ही जरूरी है उसे संस्कृति से जोड़ना। इन दोनों के समन्वय से ही कोई देश हर क्षेत्र में आगे बढ़ सकता है। सौभाग्य से नई शिक्षा नीति में इसी पर जोर दिया गया है


किसी भी देश व समाज का विकास वहां की शिक्षा की दिशा व गुणवत्ता पर निर्भर करता है। शिक्षा और अनुसंधानों की गुणवत्ता व नवोन्मेष जहां किसी भी देश की समृद्धि का आधार है, वहीं भारत जैसे देश में शिक्षा का देश व समाज के इतिहास व लोकाचार से सुसंगत होना एवं प्राचीन सांस्कृतिक विरासत से अनुप्राणित होना भी परम आवश्यक है। छात्र-छात्राओं के आचार-विचार एवं व्यवहार में नैतिकता व उच्च जीवन मूल्यों के प्रस्फुटन व उन्हें सुदृढ़ करने में सक्षम होना भी महत्वपूर्ण है। स्वाधीनता के बाद शिक्षा के इन चारों ही आधारों के प्रति उपेक्षा रही है। उसे नव अनुमोदित राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020’ से पूर्ण करने के प्रयास किए गए हैं। राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 में इन्हीं कमियों को दूर करने के लिए जहां शिक्षा में राष्ट्रीय आचार-विचार, हमारे प्राचीन ज्ञान-विज्ञान एवं पारम्परिक जीवन-मूल्यों के समावेश पर बल दिया गया है, वहीं उच्च गुणवत्ता व नवोन्मेष पर भी पूरा बल दिया है। अतएव राष्ट्रीय शिक्षा नीति के माध्यम से स्वाधीनता के बाद से शिक्षा में चली आ रही अधोलिखित न्यूनताओं का निवारण आवश्यक है-

संस्कृति से सुसंगतता अनिवार्य
हमारे अब तक चले आ रहे पाठ्यक्रमों में आज के आधुनिक पुरातात्विक अन्वेषणों, वैदिक, वेदोत्तर इतिहास, सिन्धु घाटी सभ्यता, महाभारत व रामायण का काल निर्धारण आदि सभी दोषपूर्ण हैं। मुस्लिम आक्रमणों के पहले का हमारा उत्तर वैदिक इतिहास भी आज के पाठ्यक्रमों में नहीं के बराबर है। इतिहास को केवल बाहरी आक्रान्ताओं व उनके वंशों के इतिहास तक ही परिमित कर दिया गया है। विगत 5,000 वर्ष की शासन व्यवस्थाओं पर सामग्री का नितान्त अभाव है। वैदिक कालक्रम पर चर्चा का सर्वथा अभाव ही है। विश्व के प्राचीनतम ग्रंथ माने जाने वाले ग्रंथों में ऋग्वेद की हाल ही में 1800 से 1500 ईसा पूर्व अर्थात् आज से 3,800-3,500 वर्ष प्राचीन 30 पाण्डुलिपियों को यूनेस्को ने भी विश्व विरासत में सम्मिलित किया है। शारदा लिपि व देवनागरी लिपि में लिखी इन पाण्डुलिपियों में एक बर्च की छाल पर व 29 कागज पर लिखी हुई हैं। ऋग्वेद के 1028 सूक्त व 10,582 श्लोकों से युक्त इतनी प्राचीन व अक्षुण्ण पाण्डुलिपियों की उपलब्धता, पाण्डुलिपि संरक्षण के इतिहास में विश्व में कहीं भी दुर्लभ ही नहीं, कल्पनातीत है। वेदों की 28,000 पाण्डुलिपियां तो पुणे के अकेले भण्डारकर ओरिएण्टल रिसर्च इंस्टीट्यूट में ही संग्रहीत हैं। भारतीय ज्ञान परम्परा में शीर्ष स्थान वेदों का ही है। चारों वेदों के साथ ब्राह्मण ग्रंथों, आरण्यकों, उपनिषदों, सूत्र ग्रंथों, संहिताओं व इतिहास ग्रंथों रामायण व महाभारत का भी विशिष्ट स्थान है। यजुर्वेद के ब्राह्मण ग्रंथ शतपथ में सर्वत्र कृत्तिका नक्षत्र में बसन्त सम्पात के उदय का वर्णन आता है। आधुनिक खगोल गणनाओं के अनुसार कृतिकाओं में वसन्त सम्पात का काल ईसा से 3,000 वर्ष पहले अर्थात् 5,000 वर्ष प्राचीन है। ऐतरेय ब्राह्मण में मिथुन में वसन्त सम्पात की चर्चा से वह खगोलीय मान से 10,500 वर्ष प्राचीन सिद्ध होता है। अधुनिक खगोल गणनाओं के अनुसार न्यूनतम 5,000 व 10,500 वर्ष प्राचीन ग्रंथों क्रमश: शतपथ व ऐतरेय ब्राह्मण ग्रंथों में अनेक स्थानों पर आज के अत्यन्त उन्नत विज्ञान के प्रचुर सन्दर्भ हैं।

पारम्परिक ज्ञान व विज्ञान का समावेश  
भारतीय ज्ञान परम्परा में ज्ञान-विज्ञान के प्रचुर आधुनिक सन्दर्भ विद्यमान हैं। वेद, वेदांग, उपवेद, पुराण, आरण्यक, ब्राह्मण ग्रंथ, उपनिषद्, संहिताएं एवं सूत्र ग्रंथ आदि बहुतांश में पंथनिरपेक्ष ज्ञान से युक्त एवं आज के कई एकान्तवादी मत-पंथ व सम्प्रदायों के उद्गम (यथा ईसाइयत व इस्लाम) से कहीं प्राचीन हैं। इनमें सन्निहित भौतिक विज्ञान, स्वास्थ्य रक्षा, शरीर विज्ञान, चिकित्सा शास्त्र, सामाजिक विज्ञान, खगोल, गणित आदि का उन्नत ज्ञान समाहित है। यह किसी भी उपासना मत से सर्वथा निरपेक्ष है एवं आज के उन्नत आधुनिक अनुसंधानों से भी पुष्ट होता जा रहा है। तथापि, स्वाधीनता के उपरान्त पंथनिरपेक्षता के नाम पर इन ग्रंथों को हमारे औपचारिक पाठ्यक्रमों व पाठ्य पुस्तकों से बाहर रखने से आज की युवा पीढ़ी इस प्राचीन ज्ञान की विरासत से वंचित ही रह गई और इन ग्रंथों का ज्ञान भी उत्तरोत्तर विलोपित होता चला गया जिसकी पुनर्प्रतिष्ठा अत्यन्त कठिन है।

 नैतिकता व जीवन मूल्यों का विकास
 देश को अच्छे नागरिक प्रदान करने के लिए चरित्र निर्माण में प्रभावी बोधकथाओं, सम्यक शिक्षण विधियों, समालोचनात्क क्षमताओं के विकास के लिए उपयुक्त विधियों का उपयोग आवश्यक है।

गुणवत्ता व नवोन्मेष की समस्या  
भारत की पूर्व वर्णित सभी महाद्वीपीय विशिष्टताओं के उपरान्त भी वैश्विक नवोन्मेष सूचकांक (ग्लोबल इनोवेशन इण्डेक्स) में भारत का 48वां स्थान है। आज सोलर पैनल से लिथियम बैटरीज तक हम अनगिनत उत्पादों के लिए चीन पर आश्रित हैं। देश आज 58 ऐसे उच्च प्रौद्योगिकी आधारित उत्पादों की शत प्रतिशत पूर्ति व 358 उत्पादों की 80 प्रतिशत आपूर्ति के लिए चीन पर आश्रित है।

हमारी शिक्षा के सम्मुख उपस्थित नवोन्मेष की समस्या के आकलन हेतु आज की उदीयमान प्रौद्योगिकी (सनराइज टैक्नोलॉजी) पर दृष्टिपात करें तो कृत्रिम बुद्धिमत्ता (आर्टिफिशियल इण्टेलिजेन्स) के क्षेत्र के 64.8 प्रतिशत वैश्विक पेटेंट चीन व 19.8 प्रतिशत अमेरिका ने प्राप्त किए हैं। भारत का इस क्षेत्र में शीर्ष 20 देशों में कोई स्थान नहीं है। पेटेंट व औद्योगिक डिजाइन के पंजीयन के आंकडेÞ देखें तो हमें शिक्षा में नवोन्मेष को पहली प्राथमिकता देनी होगी। (देखें बॉक्स) शिक्षा व अनुसंधानों की गुणवत्ता के आधार पर ही चीन आज विश्व का क्रमांक एक का उत्पादक देश, सबसे बड़ा निर्यातक देश व उच्च प्रौद्योगिकी आधारित निर्यातों में क्रमांक एक पर है। इसलिए शिक्षा की गुणवत्ता व नवोन्मेष विकास की पहली आवश्यकता है।

हमारे विश्वविद्यालयों में उच्च गुणवत्ता, अनुसंधान व नवोन्मेष का वातावरण विकसित करना अनिवार्य है। आज विश्व के लगभग 100 विश्वविद्यालय ऐसे हैं जिनके नोबेल पुरस्कार विजेताओं की संख्या दोहरे अंकों में है। इस्राएल जैसे छोटे से देश का एक विश्वविद्यालय विश्व के उन दस विश्वविद्यालयों में है, जिसके शोधार्थियों-शिक्षकों को 2001 से दसवें स्थान पर सर्वाधिक नोबेल पुरस्कार प्राप्ति का श्रेय मिला है। भारत के किसी शोधार्थी को भारत में अनुसंधान पर 1930 में भारतरत्न सी़ वी़ रमन के बाद आज तक कोई नोबेल प्राप्त नहीं हुआ है। राष्टÑीय शिक्षा नीति में राष्टÑीय शोध व विकास फाउण्डेशन की स्थापना, अन्तर्विषयक अनुसंधानों को बढ़ावा देने, उदीयमान विषयों के समावेश और हमारे प्राचीन ज्ञान-विज्ञान के पाठ्यक्रम में समावेश जैसे अनेक प्रस्ताव हैं। इनसे भारत अपने ज्ञान के प्राचीन गौरव को लौटाने में समर्थ होगा।

ज्ञान की विरासत से दूरी के कारण
वर्तमान शिक्षा के भटकाव के कारणों पर विचार करें तो उसका अहम कारण पंथनिरपेक्षता के छद्म तर्क पर राष्टÑीय लोकाचार, इस्लामी आक्रमणों से इतर शेष इतिहास, संस्कृति, प्राचीन भारतीय वाङ्मय-वेद, वेदांग, पुराण, ब्राह्मण ग्रंथ, आरण्यक, उपनिषदों, सूत्र ग्रंथों में सन्निहित ज्ञान-विज्ञान को छद्म पंथनिरपेक्षता के नाम पर अछूत बना देना रहा है। ये ग्रंथ पंथनिरपेक्ष ज्ञान व विज्ञान से ओत-प्रोत हैं। ऋग्वेद विश्व की प्राचीनतम पुस्तक है। ऋग्वेद सहित विविध वेदों, वेदांगों व अन्य प्राचीन ग्रंथों में आज इक्कीसवीं सदी के आधुनिक ज्ञान का भी अक्षय भण्डार है। आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की दृष्टि से चाहे वह श्याम ऊर्जा के अन्वेषणों का विमर्श हो अथवा हृदय की कार्य-पद्धति से लेकर सौर मण्डल, गुरुत्वाकर्षण व प्रकाश की गति के आकलन, खगोलशास्त्र और लोकतांत्रिक चुनाव, गणराज्य जैसे विविधता पूर्ण ज्ञान के अनगिनत संदर्भ हमारे प्राचीन वाङ्मय में संकलित हैं।

देश के प्रथम शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आजाद, जो 11 वर्ष शिक्षा मंत्री रहे, आधुनिक उच्च शिक्षा से रहित मदरसा शिक्षा से निकले मौलाना थे। प्रथम शिक्षा मंत्री सहित केवल डॉ. कालू लाल श्रीमाली को छोड़कर 1947 से 1973 तक डॉ. फखरुद्दीन अली अहमद का कार्यकाल पूरा होने तक सभी शिक्षा मंत्री प्राचीन भारतीय वाङ्मय से अपरिचित थे। उसके बाद भी बहुसंख्य शिक्षा मंत्री हमारे प्राचीन वाङ्मय की गहराइयों से अपरिचित ही थे। दुर्भाग्य से प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू भारतीय या हिन्दू पुनर्जागरण के विरोधी थे। सरदार पटेल की मृत्यु के बाद सोमनाथ मन्दिर के कार्यों को पूरा करने का विरोध करते हुए उन्होंने अपने मंत्रिमण्डलीय सहयोगी कन्हैयालाल माणिक्य लाल मुुुंशी पर भी हिन्दू पुनर्जागरण का आरोप मढ़ दिया था। स्वतंत्र भारत में तो भारतीयता व हिन्दुत्व के पुनर्जागरण की पहली प्राथमिकता होनी थी। हिन्दुत्व से आशय यहां हमारे अनादि ज्ञान-विज्ञान व विश्व मंगल की प्रेरणा से है।

भारतीय वाङ्मय मानवता की साझी निधि
भारतीय वाङ्मय की प्राचीनता एवं उसमें संग्रहीत ज्ञान-विज्ञान की उपादेयता का आकलन कठिन है। वस्तुत: ईस्वी व हिजरी कालगणना के पूर्ववर्ती हमारे वेद आदि से युक्त प्राचीन वाङ्मय को विश्व मानव की साझी निधि कहा जा सकता है। इन ग्रंथों की केवल प्राचीनता के आधार पर ही नहीं वरन इनमें संकलित सूत्रबद्ध ज्ञान-विज्ञान, आज के उन्नत अनुसंधानों से हो रही पुष्टि के आधार पर मानवता की साझी निधि कहा जाना तर्कसम्मत है और उनका व्यवस्थित पठन-पाठन आवश्यक है।

प्राचीन गौरव को लौटाने का साधन
राष्टÑीय शिक्षा नीति-2020 में जहां गुणवत्ता व नवोन्मेष पर बल दिया गया है, वहीं दूसरी ओर हमारे उन्नत ज्ञान-विज्ञान के प्राचीन स्रोतों, सत्यतापूर्ण इतिहास एवं प्राचीन वाङ्मय के अध्ययन व शोध को प्रोत्साहन देने की भी बात कही गई है। साथ ही हमारे राष्टÑीय आचार-विचार और उच्च नैतिकता व मूल्य परकता के शिक्षा में प्रभावी समावेश पर भी बल दिया गया है। सभी महाद्वीपीय लक्षणों से युक्त हमारे प्राचीन राष्टÑ भारत की 135 करोड़ जनसंख्या यूरोप के 50 व लैटिन अमेरिका के 26 देशों की संयुक्त जनसंख्या से अधिक है। हमारा शिक्षण तंत्र विश्व के विशालतम शिक्षण तंत्रों में से एक है। हमारे 35 करोड़ विद्यालयीन छात्र पूरे संयुक्त राज्य अमेरिका की जनसंख्या, 3़5 करोड़ उच्च शिक्षारत छात्र कनाडा की जनसंख्या के तुल्य और एक करोड़ शिक्षक विश्व के उन 150 देशों में से प्रत्येक की कुल जनसंख्या से अधिक है, जिनकी जनसंख्या 1 करोड़ या इससे कम है। भारत के पास विश्व की सर्वाधिक 18 करोड़ हेक्टर कृषि योग्य भूमि है इसीलिए मत्स्यादि अनेक पुराणों व निरुक्त  में भारत शब्द का निर्वचन सम्पूर्ण विश्व की प्रजा का भरण-पोषण करने में सक्षम देश बताकर किया गया है। यथा:-

भरणात् प्रजानाच्चैव मनुर्भरत उच्यते।
निरुक्त यवचनैश्चैव वर्ष तद् भारत स्मृतम् ॥ (मत्स्य पुराण)
भरणात् प्रजानां सर्वेमहीयां शुश्रूषणं तदैव भारत अस उच्यते॥ (निरुक्त)

इन पौराणिक उक्तियों के अनुरूप अविभाजित भारत अर्थात् भारत, बांग्लादेश, पाकिस्तान व अफगानिस्तान को मिला कर हम सम्पूर्ण विश्व का पोषण कर सकते थे। विश्व के सकल उत्पाद में 1500 ईस्वी तक भारत का अंश 34 प्रतिशत रहा है। ब्रिटिश आर्थिक इतिहास लेखक एंगस मेडीसन द्वारा लिखित पुस्तक ‘वर्ल्ड इकानामिक हिस्टरी- ए मिलेनियम पर्सपेक्टिव’ के अनुसार वर्ष 1 ईस्वी से 1500 ईस्वी तक, वैश्विक उत्पादन में भारत का 34 प्रतिशत अंश होने का उल्लेख है। लेकिन आज वैश्विक उत्पादन में हमारा अनुपात घट कर मात्र 3 प्रतिशत हो जाने से अब इस स्थिति को उत्कृष्ट शिक्षा से ही उलटना सम्भव है।
(लेखक गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय, ग्रेटर नोएडा के कुलपति हैं)

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