लोकभारती की प्रेरणा से पौधारोपण करते लोग
पूनम नेगी
देश-दुनिया पर मंडरा रहे पर्यावरण संकट के घने बादल इस बात की चेतावनी दे रहे हैं कि अब इस दिशा में बरती गयी थोड़ी भी लापरवाही बहुत भारी पड़ सकती है। पर्यावरण की सुरक्षा आज हम सबका सबसे बड़ा राष्ट्रीय कर्त्तव्य है। ग्लोबल वार्मिंग, जलवायु परिवर्तन और कोरोना जैसी भयावह महामारी से जूझ रही आज की दुनिया में कुदरत का रौद्र रूप बार-बार हमें आगाह कर रहा है कि यदि हमने अपनी आदतें न बदलीं तो जल्द ही हमारा अस्तित्व भी ख़त्म हो जाएगा। कुछ इन्हीं संदेशों के साथ ‘लोकभारती’ संस्था पर्यावरण के प्रति लोगों को सजग कर रही है
हम भारतीय बहुत सौभाग्यशाली हैं कि हमारे महान पूर्वज सदियों पूर्व वैदिक वांग्यमय में प्रकृति संरक्षण की जो नियमावली हमें सौंप गए थे, उसके सूत्र आज भी प्रकृति को सुरक्षित रखने में पूर्ण समर्थ हैं। लोकमंगल गायक गोस्वामी तुलसीदास भी रामचरितमानस में ‘क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा, पंचतत्व यह रचित सरीरा’ लिखकर पंचभूत सृष्टि से निर्मित मानव को प्रकृति के संरक्षण का मर्म सूत्र रूप में समझा गए थे। लेकिन हम हतबुद्धि प्रगतिशीलता के नाम पर भौतिक चकाचौंध से भरी पाश्चात्य सभ्यता के अंधानुकरण में इस कदर डूबते चले गए कि आज खुद के विनाश के कगार आ खड़े हुए। खेद की बात है कि लम्बी गुलामी के उपरांत आजाद देश के नीति—नियंता भी प्रकृति संरक्षण के प्रति उदासीन ही बने रहे।
इस भूल को सुधारने का बीड़ा उठाया है ‘लोकभारती’ संस्था ने। यह संगठन बीते तीन दशक से देशवासियों के मन में पर्यावरण संरक्षण के प्रति जनचेतना जगाने के अभियान में जुटा हुआ है। संगठन के अखिल भारतीय संगठन मंत्री बृजेंद्रपाल सिंह कहते हैं कि संगठन का मूल लक्ष्य देशवासियों को भारतीय संस्कृति की उन उन्नत जीवनमूल्यों को अपनाने को प्रेरित करना है जिनके बल पर भारत विश्वगुरु बना था। पर्यावरण संरक्षण उनके इस अभियान की पहली पाठशाला है। भारत की सनातन दृष्टि सदा से प्रकृति पूजक रही है, उसका मूल सूत्र है –‘हम प्रकृति से हैं, प्रकृति हम से नहीं।’ वैदिक ऋषि कहते हैं कि कोई भी भौतिक विकास तभी सार्थक होता है, जब तक उसमें पर्यावरण और पारिस्थितिकी संतुलन पर किसी स्तर पर कोई प्रहार न हो। विकास की नीतियां बनाते समय आज इस सूत्र को अमलीजामा पहनाने की बेहद जरूरत है, वर्ना मानव जाति को कुदरत के कोप से कोई भी नहीं बचा सकेगा। इस कारण ‘लोकभारती’ लोगों को अपनी उन सनातन परम्पराओं को अपनाने को प्रेरित करती है, जो आधुनिक विज्ञान की कसौटी पर पूरी भी तरह खरी हैं। यह संगठन लोगों को समझाता है कि आधुनिक वैश्विक सभ्यता का रास्ता विध्वंस की ओर ले जाने वाला है, क्योंकि उनकी नीति ‘जीडीपी’ यानी अधिकतम उपभोग पर टिकी है, जबकि हमारी संस्कृति सीमित उपयोग पर। विदेशी विश्व को बाजार बनाना चाहते हैं और हम विश्व को परिवार। अपने इस अभियान के तहत लोकभारती ने ‘मंगल वाटिका’, ‘मंगल परिवार’ व ‘मंगल परिसर’ जैसे कई छोटे—छोटे कार्यक्रम चला रखे हैं जो व्यक्ति, परिवार व राष्ट्र निर्माण की दिशा में काफी सहायक सिद्ध हो रहे हैं।
मंगल वाटिका अभियान के द्वारा लोगों को हरियाली रोपण व स्वच्छता संवर्धन के प्रति जागरूक किया जाता है। हम कर्ज में न जिएं। हम प्रकृति से ऑक्सीजन लेते हैं, यह प्रकृति का कर्ज है। बकौल बृजेंद्रपाल, ''प्रकृति के इस कर्ज को उतारने के लिए लोकभारती लोगों में पौधे लगाने और उन्हें सुरक्षित रखने के प्रति जागरूकता पैदा करती है।'' वे लोगों को ‘हरिशंकरी’, ‘पंचपल्लव’, ‘पंचवटी’ व ‘आरोग्यत्रयी’ के रोपण की धार्मिक, पर्यावरणीय, औषधीय व आर्थिक उपयोगिता बताकर उन्हें उत्प्रेरित करते हैं। इसके अन्तर्गत 16 प्रकार के पौधे आते हैं। हरिशंकरी के तहत पीपल, बरगद और पाकड़ ये तीन पौधे 'एक ही थाले' में लगाए जाते हैं। सर्वाधिक प्राणवायु देने वाले ये तीनों पौधे सनातन धर्म की तीन प्रतिनिधि शक्तियों ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश के प्रतीक हैं। पंचवटी के तहत भगवान राम के वनवास के आश्रय स्थल पंचवटी के पंच प्रमुख वृक्षों में पीपल, बरगद, अशोक, बेल व आंवला आते हैं। पंच पल्लवों में सर्वाधिक जल संग्रहण करने वाले पीपल, बरगद, पाकड़, गूलर व आम ये पांच पौधे आते हैं और आरोग्यत्रयी समूह के तीन पौधे हैं – नीम, जामुन और सहजन। बृजेंद्रपाल कहते हैं कि हम लोगों को खेतों के किनारे, पार्कों, सामुदायिक स्थलों, आवासीय परिसरों व मंदिर-आश्रम आदि उन स्थलों में पौधारोपण करने को प्रेरित करते हैं जहां उनकी निगरानी व देखभाल सहजता से हो सके। इस साल यह हरियाली माह का आयोजन 24 जुलाई (गुरु पूर्णिमा) से शुरू होकर 22 अगस्त (श्रावणी पूर्णिमा) तक चलेगा। जानना दिलचस्प होगा कि इस साल कोरोना संकट के चलते भगवान सदाशिव का जलाभिषेक करने वाली कांवड़ यात्रा पर भले ही प्रतिबंध लगा दिया गया है, पर लोकभारती के श्रावण मास में आयोजित किए जाने वाला इस हरियाली रोपण अभियान से प्रकृति के सतत सान्निध्य में रहने वाले भोले शंकर जरूर प्रसन्न होंगे। कारण कि पेड़-पौधे भी तो उन्हीं के समान विष ग्रहण कर हमें जीवित रखने के लिए प्राणवायु का वरदान देते हैं।
चूंकि पर्यावरण सरंक्षण हेतु सभी जगह हरियाली व्यवस्था सुनिश्चित करना आवश्यक है। इस हेतु लोकभारती ने एक कदम और आगे बढ़कर गृह वाटिका में शाकभाजी आदि लगाने के लिए भी लोगों को प्रोत्साहित किया है। इससे प्रेरित होकर लोग अपनी छत आदि पर जैविक साग-सब्जी उगा रहे हैं। इससे घर का तापमान भी घटता है और लोगों का रक्तचाप भी। यही नहीं, रसोई के गीले जैविक कचरे की रीसाईकलिंग द्वारा निर्मित खाद व कीटनाशक का उपयोग अपनी इस वाटिका में करके लोग गर्व से यह कह रहे हैं कि सड़क से आने वाली दुर्गंध में अब उनकी हिस्सेदारी नहीं है। उन्होंने नगर निगम के लिए कचरे के दैनिक भार में 50 प्रतिशत की कमी लाकर भारत सरकार के स्वच्छता मिशन में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है। बृजेंद्रपाल के अनुसार ‘आम के आम और गुठलियों के दाम’ की यह योजना उत्तर प्रदेश के लोगों को खूब आकर्षित कर रही है।
गाजियाबाद में तकरीबन 2000 परिवार, लखनऊ में 1500 परिवार, मेरठ में 1000 परिवार, प्रयागराज तथा कानपुर में में 500-550 परिवार और शाहजहांपुर में 100 परिवार इस रसोई कचरा निस्तारण संयंत्र को अपने घरों पर स्थापित कर चुके हैं और इसकी उपयोगिता से पूर्ण संतुष्ट हैं।
पर्यावरण सरंक्षण की दिशा में लोकभारती का एक अन्य महत्वपूर्ण उपक्रम है देशी गाय आधारित प्राकृतिक कृषि को बढ़ावा देना। बृजेंद्रपाल कहते हैं कि गाय रहेगी तभी खेत व भूमि उर्वर रहेगी और हमको खाद्यान्न भी प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने वाला मिलेगा। इसे लेकर हमने देशभर में एक बड़ा अभियान चला रखा है। सरकार भी सहयोगी बनी है। हम शहर और गांव को जोड़ने का काम भी कर रहे हैं। उत्पादक गांव में और उपभोक्ता शहर में, दोनों जुड़ेंगे तभी यह काम आगे बढ़ेगा, गाय सुरक्षित रहेगी, खेत भी सुरक्षित रहेगा और किसान स्वयं द्वारा निर्धारित मूल्य पर अपना उत्पाद बेच सकेगा। हमारे अभियान से प्रेरित होकर उत्तर प्रदेश के हर जिले में किसान ऐसा कर रहे हैं। उत्तर प्रदेश सरकार ने भी अपने दस प्रदर्शन केन्द्रों पर एक-दो एकड़ में जैविक उत्पादन शुरू कर दिया है।
ऐसे काम करता है रसोई कचरा प्रबंधन संयंत्र
लखनऊ में रसोई कचरा प्रबंधन संयंत्र स्थापित कराने के कार्य में जुटे लोकभारती के कार्यकर्त्ता कमला प्रसाद मिश्र बताते हैं कि सिर्फ 600 रु. खर्च कर प्लास्टिक की बोरी लगा एक ढक्कनदार ड्रम जिसमें नीचे तली के पास एक पाइप लगी हो और प्लांट कल्चर (जीवामृत) की एक बोतल; इस सामग्री से घर में ही रसोई कचरे की रिसाइकलिंग अत्यंत सरलता से की जा सकती है। इसकी विधि अत्यंत सरल है। इसके तहत हर दिन का रसोई का गीला जैविक कचरा जिसमें फल व सब्जियों के छिलके, चाय की उपयोग की हुई पत्ती व पूजा में चढ़ाए गए फूल-पत्ते आदि होते हैं, इस ड्रम में डाला जाता है तथा इस कचरे से दुर्गन्ध न आए, इसके लिए इस ड्रम में जीवामृत की बोतल से एक ढक्कन तरल निकाल कर उसको एक कप पानी में मिलाकर उस घोल को इस कचरे के ऊपर छिड़क कर तुरंत ठीक से ढक्कन बंद कर दिया जाता है। एक हफ्ते बाद इस घोल का छिड़काव एक-दो दिन छोड़ कर किया जाता है। 20-25 दिन में इस ड्रम में प्राकृतिक खाद बनने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। इस आसान विधि से बनी यह खाद रसोई वाटिका में अत्यंत उपयोगी साबित हो रही है। इस ड्रम में नीम, कनेर व धतूरे की पत्तियों को डालने से इससे प्राप्त जैविक घोल बेहतरीन कीटनाशक का भी काम करता है।
भारतीयता का विस्तार करता मंगल परिवार
बृजेंद्रपाल कहते हैं ‘मंगल परिवार’ अभियान का लक्ष्य वैदिक परम्पराओं और व्यवस्थाओं को पुनर्जीवित करना है। इसके तहत हमारा पहला कदम है- दिनचर्या सुधार व योग-व्यायाम पर बल देना तथा सामाजिक समरसता व शिष्टाचार विकसित करना। इसके लिए हम ‘सहभोज’ को प्रेरित करते हैं ताकि परिवार के सभी सदस्यों का दिन में कम से कम एक समय भोजन साथ हो। परिवार के सदस्य जो एक ही नगर में अलग—अलग घरों व क्षेत्रों में रहते हैं, वे महीने में किसी एक घर में अपने परिवार का मिलन कार्यक्रम रखें, जिससे बच्चे चाचा, ताऊ, चाची, बुआ, भाभी, बाबा, दादी आदि रिश्तों की गरिमा को समझ सकें। नहीं तो वे सभी को अंकल, आंटी और अस्पतालों की भांति सिस्टर ही समझेंगे। सहभोज का अगला विस्तार है—हम जिस मोहल्ले, कालोनी या गांव में रहते हैं, उसमें समय—समय पर सत्संग, आरती, योग, श्रमदान, पिकनिक आदि कोई ऐसा आयोजन करते रहें जिसमें सभी का परस्पर मिलन होता रहे। साथ ही वर्ष में कम से कम एक बार ऐसे कार्यक्रम करें जिसमें सभी की सहभागिता हो, वह कथा, यज्ञ, उत्सव, भंडारा आदि कुछ भी हो सकता है। यह हमारे मंगल के लिए आवश्यक है।
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