प्रो. भगवती प्रकाश
वैदिक वाड्मय 13 प्रकार की शासन प्रणालियों का विवेचन करता है। प्रत्येक प्रणाली के प्रमुख को पृथक पदनाम से बुलाया जाता था। कोई शासन प्रणाली, एकाधिकारी थी तो कोई जनतांत्रिक; किसी में सामूहिक उत्तरदायित्व था तो किसी में सलाहकारी समिति की प्रधानता, किसी में पाण्डित्य का समावेश था तो किसी में व्यापार व समृद्धि की प्रधानता
आजकल वैश्विक शासन अर्थात् ग्लोबल गवर्नेन्स की चर्चाओं के साथ ही संयुक्त राष्ट्र, विश्व व्यापार संगठन, अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष, विश्व स्वास्थ्य संगठन व अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन जैसी संस्थाओं का सदस्य देशों पर प्रभाव भी देखा जाता है। वैदिक वाड्मय में भी सार्वभौम साझी मर्यादा युक्त, सम्पूर्ण भूमण्डलव्यापी राष्ट्र व उसके अंतर्गत विविध शासन प्रणालियों के सन्दर्भ मिलते हैं।
सार्वभौम राष्ट्र व विविध शासन प्रणालियां
मौलिक सांस्कृतिक एकता एवं एकीकृत व्यवस्थाओं से युक्त एक सार्वभौम राष्ट्र व उसके अंतर्गत विविध शासन प्रणालियों द्वारा संचालित राज्यों के संदर्भ वेदों व अन्य प्राचीन ग्रन्थों में हैं। पृथ्वी से समुद्र्र पर्यंत विस्तृत राष्ट्र की वैदिक उक्ति ‘‘पृथिव्याये समुद्र्र पर्यन्ताया एक राड्ऽइति’’ से यही लगता है।
ऊं स्वस्ति साम्राज्यं भौज्यं स्वाराज्यं वैराज्यं पारमेष्ट्यं राज्यं महाराज्यमाधिपत्यमयं, समन्तपयार्यीस्यात सार्वभौम: सावार्युष: आन्तादापरार्धात, पृथीव्यै समुद्र्रपयंर्ताया एकराड्ऽइति..
भावार्थ : पृथ्वी से समुद्र्रपर्यंत, इस सर्व-कल्याणकारी अखण्ड राष्ट्र में विविध शासन प्रणालियों पर आधारित कई साम्राज्य, भौज्य, स्वाराज्य वैराज्य, पारमेष्टि राज्य, महाराज्य, अधिराज्य, समन्त पयार्यी राज्य, सार्वभौम राज्य हैं। इन राज्यों से युक्त यह सार्वभौम राष्ट्र सर्व उपभोग्य सामाग्रियों से परिपूर्ण होवे, क्षितिज तक विस्तार के साथ यह सृष्टि के अन्त तक सुरक्षित रहे, हम ऐसी आसक्ति व लोभ रहित शुभेच्छा व्यक्त करते हैं।
आज सभी देश भिन्न-भिन्न शासन प्रणालियों से युक्त हैं। भारत का संसदीय लोकतंत्र इंग्लैण्ड से भिन्न है। फ्रांस व अमेरिकी राष्ट्रपति प्रणालियां एक-दूसरे से भिन्न हैं। कहीं एकतंत्रात्मक व कहीं जनतंत्रात्मक व्यवस्थाएं हैं। उपरोक्त मन्त्र में आये विविध राज्यों के अनुरूप वेदों में ऐतरेय ब्राह्मण की अष्टम पंचिका, बृहदारण्यकोपनिषद् व महाभारत आदि में भिन्न-भिन्न शासन प्रणालियों के पर्याप्त विवेचन हैं। उपरोक्त ‘पृथिव्याये एक राडिति’ शब्दों से समाप्त मन्त्र में उल्लिखित शासन प्रणालियों का विवेचन अग्रानुसार है:
प्राचीन शासन प्रणालियां व उनके शासकों का नामकरण :
उपरोक्त शासन प्रणालियों के अनुरूप ही उनके राजाओं के सम्बोधन पीढ़ी दर पीढ़ी उन स्थानों या क्षेत्रों में रहे हैं। उदाहरणत: मन्त्र में ‘भोज्यं’ शब्द है। लोक कल्याण केन्द्र्रित व बुद्धिजीवी सामन्तों की सभायुक्त राज्य, ‘भोज्य’ एवं उसका राजा ‘भोज’ कहलाता रहा है। भारत, नेपाल आदि वृहत्तर भारत के अनेक नगरों के नाम आज भी भोजपुर हैं। मालवा की धारा नगरी के राजा पीढ़ी दर पीढ़ी भोज कहलाते थे। प्रबल सामन्तों की सभा से युक्त राज्य ‘वैराज्य’ एवं वहां का राजा ‘विराट’ कहलाता रहा है। अलवर के प्राचीन मत्स्य साम्राज्य व नेपाल के विराटनगर आदि के राजा शताब्दियों तक ‘विराट’ कहलाते आये हैं। ऐसे राज्यों के नामकरण व उनके राजाओं के प्राचीन सम्बोधन अग्रानुसार हैं :
1. साम्राज्य- इस प्रणाली का शासक ‘सम्राट’ कहलाता था, जो पूर्व दिशा के राज्यों मगध, कलिंग, बंग आदि में थी। सम्राट एकछत्र शासक होता था। वहां कोई सभा, समिति या संसद नहीं होती थी।
2. भौज्य- इस प्रणाली का शासक ‘भोज’ कहलाता था। यह दक्षिण दिशा के सात्वत (यादव) राज्यों में थी। अंधक और वृष्णि यादव-गणराज्य इस श्रेणी में थे। इस प्रणाली में जनहित और लोक-कल्याण की भावना अधिक रहती थी। इनमें बुद्धिजीवियों की सभा सब प्रकार के प्रमुख निर्णय लिया करती थी।
3. स्वराज्य- इस प्रणाली के शासक को ‘स्वराट्र’ कहते थे। यह पश्चिम दिशा के सुराष्ट्र, कच्छ, सौवीर आदि राज्यों में थी। यह स्वायत्तशासी प्रणाली है। राजा स्वतंत्र न होकर अपनी सभा व समिति के निर्णयों से प्रतिबद्ध होता था।
4. वैराज्य- इस प्रणाली के शासक को ‘विराट’ कहते थे जो हिमालय के उत्तरी भाग उत्तर कुरू, उत्तर मद्र्र आदि राज्यों में थी। सामूहिक निर्णय पद्धति युक्त इस संघीय प्रणाली में शासन का उत्तरदायित्व व्यक्ति पर न होकर समूह या सभा पर होता था, जो प्रबल व पराक्रमी सामंतों की होती थी।
5. पारमेष्ठ्द्व राज्य- इस प्रणाली में शासक ‘परमेष्ठी’ या परमात्मा होता है। महाभारत के शांतिपर्व और सभापर्व में वर्णित इस गणतंत्र-पद्धति में शांति व्यवस्था की स्थापनार्थ परमेश्वर को राज्य का अधिपति मानकर राजा द्वारा पीढ़ी दर पीढ़ी इसके ध्वजवाही प्रधानमंत्री के रूप में, त्यागपूर्वक राज्य संचालन किया जाता था। गणमुख्य योग्यता और गुणों के आधार पर होता है। राजस्थान के ‘मेवाड़’ अर्थात् मेदपाट राज्य में भगवान शिव अर्थात् एकलिंगनाथ को राजा मानकर महाराणा, उनके दीवान के रूप में आठवीं सदी से स्वाधीनतापर्यंत शासन करते रहे हैं।
6. राज्य- इस प्रणाली में उच्चतम शासक ‘राजा’ होता था। यह प्रणाली मध्यदेश में कुरू, पांचाल, उशीनर आदि राज्यों में प्रचलित थी। राजा की सहायता के लिए मन्त्रिपरिषद् व शासन संचालन के लिए विभिन्न अधिकारियों की नियुक्ति होती थी। (वासुदेव शरण अग्रवाल रचित पाणिनिकालीन भारत वर्ष पृष्ठ 399-400)
7. महाराज्य- इस प्रणाली में शासक को ‘महाराज’ कहते थे। किसी प्रबल शत्रु पर विजय प्राप्ति पर ‘महाराज’ की उपाधि दी जाती थी।
8. आधिपत्य व समंतपयार्यी- इस प्रणाली में शासक को ‘अधिपति’ कहते थे। ऐसे राज्य को ‘समंतपयार्यी’ कहा गया है। वह पड़ोसी जनपदों को अपने अधीन कर उनसे ‘कर’ वसूल करता था। छान्दोग्योउपनिषद में इसे श्रेष्ठ कहा है। (सहि ज्येष्ठ: राजाऽधिपति:-छान्दोग्योपनिषद् 5/6)
9. सार्वभौम- इसमें शासक को ‘एकराष्ट्र’ कहते थे। ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार सारी भूमि राजा की होती थी, जिसका ‘सार्वभौम प्रभुत्व’ होता था।
10. जनराज्य या जानराज्य- यजुर्वेद, तैत्तिरीय संहिता और शतपथ ब्राह्मण आदि में ‘महते जानराज्याय’ अर्थात् महान जनराज्य वाक्यों से ज्ञात होता है कि राजा का निर्वाचन ‘जनतंत्रात्मक शासन’ के लिए होता था। शासक को ‘जानराजा’ कहते थे।
11. अधिराज्य- ऋग्वेद और अथर्ववेद के अनुसार शासक को ‘अधिराज’ कहते थे। इस प्रणाली में ‘उग्रं चेत्तरम्’ अर्थात् राजा उग्र और कठोर अनुशासन रखते हुए निरंकुश भी हो जाता था।
12. विप्र राज्य- ऋग्वेद और अथर्ववेद के अनुसार विप्रराज्य में विद्वतापूर्ण व पांडित्य में अग्रणी विप्र को राज पद दिया जाता था या राजा चुना जाता था। महाभारत (उद्योगपर्व-33वें अध्याय) के अनुसार विप्र या पण्डित जाति निरपेक्ष व गुणसूचक पद है। यथा: ‘‘अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान, उद्योग, दु:ख सहने की शक्ति और धर्म में स्थिरता वाला मनुष्य पंडित कहलाता है। क्रोध, हर्ष, गर्व, लज्जा, उद्दंडता तथा अपनी पूज्यता-जिसको पुरुषार्थ से भ्रष्ट नहीं करते, वही पंडित है। पहले निश्चय करके फिर कार्य आरंभ करता है, बीच में नहीं रुकता, समय व्यर्थ नहीं करता और चित्त को वश में रखता है, वही पंडित है। अपना आदर होने पर हर्ष से फूलता नहीं, अनादर से विचलित नहीं होता, वह पण्डित है।’’
13. समर्य राज्य- ऋग्वेदानुसार ‘समर्य’ का अर्थ-समृद्धि संपन्न, वैश्य या धनाढ्यों का राज्य। यह व्यापार प्रधान, उद्यमों से धन-धान्य समृद्ध और सैन्यशक्ति आधारित होता था। महाभारतकालीन, 5000 वर्ष प्राचीन अग्रोहा में महाराज अग्रसेन का राज्य इसका उदाहरण है। इस प्रकार कई सहस्राब्दी पूर्व, एक सार्वभौम राष्ट्र एवं विविध शासन प्रणालियों से युक्त उन्नत राज्यों का, भारतीय वाड्मय में प्रचुर विवेचन है।
(लेखक गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय, ग्रेटर नोएडा के कुलपति हैं)
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