यूरोपीय संघ का सर्वोच्च न्यायालय
जर्मनी की दो महिलाओं ने उनकी कंपनी द्वारा उन्हें हिजाब पहनने से रोकने पर अदालत का दरवाजा खटखटाया तो फैसला आया, कंपनियों ने कोई गलती नहीं की
यूरोपीय संघ के सर्वोच्च न्यायालय ‘यूरोपियन कोर्ट ऑफ जस्टिस’ ने सभी कंपनियों को इस बात की छूट दी है कि वे तय कर सकती हैं कि उनके क्या 'ड्रेस कोड' क्या हो। अर्थात अगर कोई कंपनी नहीं चाहती कि उनके यहां काम करने वाली महिलाएं दफ्तर में हिजाब पहनकर न आएं तो उसे अधिकार है कि वह उन्हें ऐसा करने से मना कर दे। कंपनियों को अब छूट है कि वे अपने कर्मचारियों को किसी भी प्रकार के राजनीतिक, मजहबी या फिर मनोवैज्ञानिक प्रतीक पहनकर दफ्तर आने से रोक सकती हैं। पिछले दिनों यूरोप की शीर्ष अदालत ने यह फैसला सुनाया है।
सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि कंपनियां अपनी समझ से सामाजिक संघर्ष को रोकने या उपभोक्ताओं के समक्ष खुद को निष्पक्ष दिखाने के लिए इस तरह के फैसले ले सकती हैं। इसके साथ ही अदालत ने यूरोप के देशों से कहा है कि वे अपने-अपने कानून के हिसाब से ‘मजहबी आज़ादी’ की व्याख्या करके इस फैसले को लागू कर सकते हैं। साल 2017 में कंपनियों को कर्मचारियों के लिए एक 'निष्पक्ष ड्रेस कोड' निर्धारित करने की छूट दी गई थी।
फ्रांस में हिजाब के पक्ष में प्रदर्शन करती महिलाएं (फाइल चित्र)
उल्लेखनीय है कि फ्रांस ने भी अपने यहां सार्वजनिक स्थानों पर हिजाब पहनने पर पाबंदी लगाई थी। सैमुअल पैटी सहित वहां अनेक घटनाएं पिछले कुछ समय में हुई हैं जिनमें कट्टर इस्लामी तत्वों का हाथ स्पष्ट रूप से सामने आया था। आतंकवाद को लेकर उस देश में कानून कड़े किए हैं। फ्रांस और जर्मनी में खासतौर पर कई इस्लामवादियों और मुस्लिम समाजकर्मियों ने इस फैसले का विरोध किया था। इन्हीं लोगों ने अब यूरोपीय संघ के सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का विरोध किया है। वे कहते हैं कि अदालत के इस फैसले से उन मुस्लिम महिलाओं पर बुरा असर पड़ेगा, जो हिजाब पहन कर ही काम पर जाती हैं। उल्लेखनीय है कि जर्मनी में एक दफ्तर में काम कर रहीं दो महिलाओं को काम की जगह पर हिजाब पहनने से रोक दिया गया था। इसके विरुद्ध वे अदालत में गई थीं।
यह कहा अदालत ने
नाज शाह ने किया अदालत के फैसले का विरोध
‘ओपन सोसाइटी जस्टिस इनिशिएटिव’ ने अदालत के इस फैसले का विरोध किया है। उसने कहा है कि इससे मुस्लिम महिलाओं को नुकसान हो सकता है। इस संगठन ने कहा कि 'खास तरह के कपड़ों को प्रतिबंधित करना और ऐसे कानून बनाना सदा से 'इस्लामोफोबिया का हिस्सा' रहा है। उसका दावा है कि हिजाब पहनने से किसी को कोई नुकसान नहीं होता। यह एक तरह से नफरत से उपजा जुर्म है व भेदभाव बढ़ाने वाला है'।
अपने फैसले में यूरोपीय संघ के सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि इन दोनों महिलाओं को कार्यस्थल पर उनकी कंपनी द्वारा हिजाब पहनने से रोकना किसी प्रकार का भेदभाव नहीं है। अदालत ने यह भी कहा है कि यह फैसला सभी मत—पंथों के मानने वालों पर बिना किसी भेदभाव के लागू है। यह अलग बात है कि उस चीज को किसी के मजहब में अनिवार्य माना गया हो या न माना गया हो।
इसके साथ ही अदालत ने कंपनियों को सलाह दी है कि वे प्रतिबंध लगाने से पहले उसका ठोस कारण पहले बता दें। अदालत ने अपने फैसले में कहा कि खासकर शिक्षण संस्थानों में यह ज़रूरी है, क्योंकि कई माता—पिता नहीं चाहते कि उनके बच्चे किसी मजहबी परिवेश में पढ़ें। कंपनियों के लिए यह साबित करना जरूरी है कि वे प्रतिबंध लगाने के पीछे कारण बताएं कि ऐसा क्यों किया जा रहा है। ऐसा करने के लिए कंपनियां अपने-अपने देशों के राष्ट्रीय प्रावधानों को भी ध्यान में रख सकती हैं।
‘ओपन सोसाइटी जस्टिस इनिशिएटिव’ ने अदालत के इस फैसले का विरोध किया है। उसने कहा है कि इससे मुस्लिम महिलाओं को नुकसान हो सकता है। इस संगठन ने कहा कि 'खास तरह के कपड़ों को प्रतिबंधित करना और ऐसे कानून बनाना सदा से 'इस्लामोफोबिया का हिस्सा' रहा है। उसका दावा है कि हिजाब पहनने से किसी को कोई नुकसान नहीं होता। यह एक तरह से नफरत से उपजा जुर्म है व भेदभाव बढ़ाने वाला है'।
ब्रिटिश सांसद नाज शाह ने भी अदालत के फैसले की भर्त्सना की है। उन्होंने इसे मुस्लिम महिलाओं की हिजाब पहनने, सिखों की पगड़ी पहनने, यहूदियों की किप्पा पहनने की आजादी पर हमला बताया है।
टिप्पणियाँ