हिन्दुत्व ही भारत की पहचान

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धर्म सबको जोड़ता है। भारत की इस जीवनदृष्टि को दुनिया में 'हिंदू जीवनदृष्टि' के नाम से जाना जाता रहा है। यह भारत के सभी लोगों की पहचान बन गई है। किसी की भाषा, जाति या उपासना पंथ कोई भी हो,सब इस एकात्म जीवनदृष्टि को अपना मानते हैं। इसलिए भारत में रहने वाले सभी जन की पहचान 'हिन्दू' के नाते बनी
भारत की जीवनदृष्टि दुनिया में विशिष्ट है और इसका आधार है आध्यात्मिकता। इसीलिए यह दृष्टि एकात्म है और सर्वांगीण भी है। इसी कारण भारत सत्य के अनेक रूप देखता है, उस तक पहुंचने के मार्ग भिन्न होते हुए भी वे सभी समान हैं, ऐसा मानता है। इसी कारण वह अनेकता में एकता देखता है और विविधता में ऐक्य की प्रस्थापना कर सकता है। वह विविधता को भेद नहीं समझता। प्रत्येक व्यक्ति में, चराचर में एक ही आत्म-तत्व विद्यमान है। इसलिए हम सभी परस्पर जुड़े हुए हैं, यह भारत मानता है। इस जुड़ाव की अनुभूति करना, जुड़ाव के विस्तार की परिधि बढ़ाते जाना और अपनेपन का विस्तार करते हुए अपनेपन के भाव से दूसरों के लिए कुछ करना, इसी को हमारे यहां धर्म कहा गया है।
यह धर्म (जो 'रिलिजन' से अलग है) सबको जोड़ता है, किसी को छोड़ता नहीं है। भारत की इस जीवनदृष्टि को दुनिया में 'हिंदू जीवनदृष्टि' के नाम से जाना जाता रहा है। इसीलिए यह भारत के सभी लोगों की पहचान बन गई है। फिर उनकी भाषा, जाति, प्रदेश या उपासना पंथ (रिलिजन) कोई भी हो, वे सब इस एकात्म और सर्वांगीण जीवनदृष्टि को अपना मानते हैं, इससे अपना रिश्ता जोड़ते हैं। इसलिए भारत में रहने वाले सभी जन की पहचान 'हिन्दू' के नाते बनी है। यह हिंदू होना यानी 'हिंदुत्व' भारत के सभी लोगों को आपस में जोड़ता है, एकता का एहसास कराता है। रा.स्व. संघ संस्थापक डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार ने भारत के विभिन्न भाषा, जाति, उपासना पंथ और प्रदेश के लोगों में एकता का भाव जगाने के लिए इसी हिंदुत्व को आधार बनाया और सबको इस हिंदुत्व के आधार पर जोड़कर संगठित करने का कार्य प्रारम्भ किया।
परंतु अपने-अपने राजनीतिक व निहित स्वार्थ के लिए जो लोग इस समाज को जाति, भाषा, प्रदेश या रिलिजन के नाम पर बंटा हुआ ही रखना चाहते थे, उन सभी ने इस 'हिंदुत्व' को साम्प्रदायिक, प्रतिगामी, विभाजनकारी, अल्पसंख्यकविरोधी आदि-आदि कहकर, हिंदुत्व का और संघ का जोर-शोर से विरोध करना शुरू किया। स्वामी विवेकानंद, दयानंद सरस्वती जैसे हिंदुत्व के पुरोधाओं, संतों पर भी यही सारे दूषण लगाकर इनके कार्यों को नकारना, विरोध करना शुरू हुआ।
परंतु हिंदुत्व का शाश्वत आधार लेकर चला संघ कार्य इन सभी के विरोध के बावजूद और इन सभी की इच्छा के विपरीत बढ़ता ही चला गया, व्यापक होता चला गया। फिर इन्हीं विरोधियों ने अपने स्वार्थ के कारण अपनी भूमिका में थोड़ा परिवर्तन करते हुए यह कहना शुरू किया कि हिंदुत्व तो ठीक है, पर एक नरम (सॉ़फ्ट) हिंदुत्व है और एक गरम (हार्ड) हिंदुत्व है। स्वामी विवेकानंद का 'नरम हिंदुत्व' है, जो ठीक है पर संघ का 'गरम हिंदुत्व' है जो भर्त्सनीय है। इसी खेमे से एक पुस्तक लिखी गयी ''व्हाय आई एम नॉट ए हिन्दू''। पर हिंदुत्व का प्रसार और स्वीकार समाज के सहयोग से बढ़ता ही गया। फिर इसी खेमे से दूसरी पुस्तक लिखी गयी ''व्हाय आई एम ए हिन्दू''। हिंदुत्व का स्वीकार और विस्तार लगातार बढ़ता ही चला गया और कारण वही कि यह भारत की आत्मा है, भारत के मन की बात है।
फिर इन्हीं निहित स्वार्थी तत्वों ने यह भ्रम फैलाना शुरू किया कि एक 'हिन्दुइज्म' तो अच्छा है, पर 'हिंदुत्व' खराब है, क्यों कि वह साम्प्रदायिक, प्रतिगामी और अल्पसंख्यक विरोधी है। एक मीडिया संस्थान ने इसी दौरान मुझसे प्रश्न पूछा कि 'हिन्दुइजम और हिंदुत्व में क्या अंतर है?'मैंने कहा, 'दोनों एक ही तो हंै। एक अंग्रेजी है, दूसरा हिंदी है। इसमें उतना ही फर्क है जितना गुलाब और रोज (१ङ्म२ी) में है। डॉक्टर राधाकृष्णन पुस्तक ''हिन्दू व्यू ऑफ लाइफ'' अंग्रेजी में है इसलिए उन्होंने 'हिन्दुइज्म' का प्रयोग किया। उनकी किताब यदि हिंदी में होती तो वे 'हिंदुत्व' का प्रयोग करते। सावरकर जी अपनी पुस्तक 'हिंदुत्व' मराठी के बदले यदि अंग्रेजी में लिखते तो शायद 'हिन्दुइज्म' का ही प्रयोग करते। हां! मेरा यह व्यक्तिगत रुप से मानना है कि हिंदुत्व का सही अंग्रेजी अनुवाद 'हिन्दुइज्म' न हो कर हिन्दूनेस (Hindunesss) होना चाहिए'।
रा. स्व. संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहनराव भागवत ने विज्ञान भवन में गत दिनों अपनी त्रि-दिवसीय व्याख्यानमाला में हिंदू और हिंदुत्व को पर्याप्त विस्तार से स्पष्ट किया है। परंतु सच जानने में नहीं अपितु झूठा प्रचार करने के इरादे से जिनका प्रचार चल रहा है वे इस पर ध्यान नहीं देंगे। भारत में असली वैचारिक संघर्ष भारत की दो विभिन्न अवधारणाओं के बीच है। एक भारत की भारतीय अवधारणा है, जिसकी जड़ें भारत की प्राचीन अध्यात्म आधारित जीवनदृष्टि से गहराई तक जुड़ी हैं। और दूसरी भारत की अभारतीय अवधारणा है जिसके प्रतिमान और प्रेरणास्रोत भारत के बाहर के हैं। पत्रकार से राजनेता बने ऐसे एक नेता ने अभी-अभी एक बयान दिया कि 'इस चुनाव में हिंदू भारत या हिंदुत्व भारत के बीच चुनाव करना होगा'। इस खेमे के द्वारा हिंदू भारत के संबंध में बात करना हिंदुत्व के बढ़ते प्रभाव और विस्तार के कारण ही हो रहा है। इनकी इसमें कोई प्रतिबद्धता नहीं दिखती है। राजकीय दृष्टि से सुविधा के अनुसार, इनकी भूमिकाएं बदलती जाती हैं। सारा भारत हिंदुत्व के कारण एक हो रहा है तो इनकी जातीय, साम्प्रदायिक, प्रादेशिक राजनीति कमजोर हो रही है, इनके जनाधार का क्षरण हो रहा है। इनके लिए अपनी स्वार्थी राजनीति के लिए समाज को बांटना अनिवार्य है। अब जाति, भाषा, रिलिजन के नाम पर समाज नहीं बंट रहा है तो हिंदू और हिंदुत्व के नाम से बांटने का प्रयास हो रहा है। यह बदलाव इनके हिंदू प्रेम या प्रतिबद्धता के कारण नहीं बल्कि सुविधा के कारण ही आता दिखता है। भारत की भोली दिखने वाली जनता नासमझ नहीं है जो इनके झांसे में आ कर गलत निर्णय कर ले। और एक शब्द का प्रयोग जान-बूझकर भ्रम फैलाने के लिए किया जा रहा है कि 'ये लोग हिंदुत्ववादी या हिंदूवादी हैं'। यह भी बुद्धि को भ्रमित करने की चाल है। साम्यवादी, समाजवादी, पूंजीवादी तो लोग होंगे, पर ये हिंदूवाद या हिंदुत्ववाद कहां से आया? यहां तो केवल 'हिन्दुत्व' है जो एक 'एकात्म और सर्वांगीण' जीवनदृष्टि है और उसे अपना मानने वाला, उसके प्रकाश में अपना व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक, व्यावसायिक जीवन जीने वाला समाज है जो 'हिंदू' कहलाता है। फिर ये हिंदूवादी, हिंदुत्ववादी शब्द अनावश्यक भ्रम फैलाने के लिए क्यों उपयोग में लाए जा रहे हैं? इसके पीछे के षड्यंत्र पहचान कर, इसके प्रचार से भ्रमित हुए बिना हिंदुत्व के शाश्वत चिंतन और मूल्यों को प्रस्थापित करना और अपने आचरण से उसे प्रतिष्ठित करने का प्रयास करना चाहिए। इसी से भारत की पहचान, जो दुनिया सदियों से जानती है, प्रकट होगी और समाज जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में भारत का पुरुषार्थ प्रकट होगा। अपने 'स्वदेशी समाज' नामक निबंध में रविंद्र नाथ ठाकुर कहते हैं-'सबसे पहले हमें, हम जो हैं, वह बनना पड़ेगा।
(लेखक रा.स्व. संघ के सह सरकार्यवाह हैं)
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